प्रभु प्रेमियों ! संतमत परंपरा के महान संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज द्वारा रचित विभिन्न आध्यात्मिक ग्रंथों का एक संग्रह है, जिसमें मुख्य रूप से उनकी रचनाएँ जैसे महर्षि मेँहीँ-पदावली, सत्संग-योग, रामचरितमानस-सार सटीक, और संतमत-सिद्धांत शामिल हैं, जो संतमत साधना (मानस जप, दृष्टियोग, शब्दयोग) और गूढ़ आध्यात्मिक ज्ञान (ईश्वर, जीव, माया, सद्गुरु) को सरल भाषा में समझाती हैं, जो साधकों के लिए आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती हैं। इनके द्वारा लिखित, संपादित एवं उनके प्रवचनों के द्वारा बनाया गया साहित्य लगभग 18 या 20 है। जिनका नाम और संक्षिप्त परिचय नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है। इन सभी रचनाओं का उद्देश्य लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देकर आत्म-कल्याण और परम शांति की ओर अग्रसर करना है। आइये पहले सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का दर्शन करें--
MS01 . सत्संग योग (चारो भाग) - संतमत सत्संग के प्रतिनिधि ग्रंथ हैं, जिसे महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज ने संपादित किया है, जिसमें वेदों, उपनिषदों और विभिन्न संतों की वाणियों का संग्रह है, जो ईश्वर प्राप्ति और आध्यात्मिक ज्ञान के लिए सत्संग, ध्यान (बुद्धियोग, मानसयोग, ज्योति/दृष्टियोग) और सद्गुरु की शिक्षाओं पर केंद्रित है, और यह ग्रंथ ज्ञान-योग, भक्ति-योग के साथ-साथ आंतरिक साधना (अष्टांग योग के अंगों) के मार्ग को स्पष्ट करता है। इसमें सूक्ष्म भक्ति का निरूपण वेद, शास्त्र, उपनिषद्, उत्तर- गीता, गीता, अध्यात्म-रामायण, महाभारत, संतवाणी और आधुनिक विचारकों के विचारों द्वारा किया गया है। इसके स्वाध्याय और चिन्तन-मनन से अध्यात्म-पथ के पथिकों को सत्पथ मिल जाता है। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम 1940 ई0 में हुआ था। इस ग्रंथ के प्रकाशन का मुख्य लक्ष्य यह भी है कि सभी संत महात्माओं वेद उपनिषद गीता रामायण आदि धर्म शास्त्रों का सिद्धांत और मत एक ही है जो इस ग्रंहै के पढने से सिद्ध हो जाता है। ( और जाने )
MS02 . रामचरितमानस-सार सटीक- सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी द्वारा रचित एक अनोखा ग्रंथ है, जो रामचरितमानस के गूढ़ रहस्यों, खासकर भक्ति योग और ध्यान (दृष्टियोग) पर केंद्रित है, जिसमें नवधा भक्ति और कागभुशुंडि जी के भजन-साधन की व्याख्या की गई है, ताकि पाठक राम-कथा के साथ-साथ आंतरिक आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकें, काम, क्रोध, लोभ जैसे विकारों को छोड़कर ईश्वर-भक्ति के मार्ग पर चल सकें और आंतरिक साधना (जैसे दृष्टियोग) के माध्यम से मोक्ष पा सकें। संत कवि मेँहीँ की यह दूसरी रचना है। यह 1930 ई0 में भागलपुर, बिहार प्रेस से प्रकाशित हुई थी। इसमें गोस्वामी तुलसीदासजी के रामचरितमानस के 152 दोहों और 951 चौपाइयों की व्याख्या की गयी है। इसका मुख्य लक्ष्य है-स्थूल भक्ति और सूक्ष्म भक्ति के साधनों को प्रकाश में लाना । यह केवल कथा-वाचन नहीं, बल्कि रामचरितमानस के सूक्ष्म आध्यात्मिक अर्थों को स्पष्ट करती है, जो सामान्य पाठ में छिपे रहते हैं। यह पुस्तक रामचरितमानस के ऊपरी कथा-सार से आगे बढ़कर, उसके आंतरिक आध्यात्मिक ज्ञान और ध्यान-साधना (दृष्टियोग) के व्यावहारिक पक्ष को उजागर करती है, जिसे पढ़कर साधक अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। ( और जाने )
MS03 . वेद-दर्शन-योग- सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज की एक प्रसिद्ध कृति है, जो वेदों में वर्णित योग साधना, विशेषकर नादानुसन्धान (अनाहत नाद का ध्यान) और दृष्टियोग (आंतरिक ज्योति का दर्शन) को संत-वचनों और दार्शनिक सिद्धांतों (सांख्य, योग) के साथ जोड़कर समझाती है, जिससे व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त कर सके, यह एक व्यावहारिक आध्यात्मिक मार्ग है जो वैदिक ज्ञान को सुलभ बनाता है। इसमें चारो वेदों से चुने हुए एक सौ मंत्रों पर टिप्पणी लिखकर संतवाणी से उनका मिलान किया गया है। यह पुस्तक वेदों (जैसे ऋग्वेद) के गूढ़ वचनों का भाष्य करती है, जिसमें आंतरिक प्रकाश (अन्तर्ज्योति) और आंतरिक ध्वनि (अनाहत नाद) का वर्णन है, जो योग साधना के महत्वपूर्ण अंग हैं। यह सांख्य और योग दर्शन के सिद्धांतों को वेदों से जोड़ती है, जिसमें योग को आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का साधन बताया गया है। यह पुस्तक मुख्य रूप से दृष्टियोग (आंतरिक ज्योति का दर्शन) और नादानुसन्धान (आंतरिक ध्वनि का श्रवण) जैसी सूक्ष्म योग साधनाओं का रहस्योद्घाटन करती है। इसका उद्देश्य वैदिक ज्ञान और संत-वचनों के आधार पर मोक्ष प्राप्ति के सरल और प्रामाणिक मार्ग को जन-जन तक पहुँचाना है, जिससे व्यक्ति आध्यात्मिक उन्नति कर सके। इसका प्रथम प्रकाशन 1956 ई0 में हुआ था। ( और जाने)
MS04 . विनय-पत्रिका-सार सटीक- गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ 'विनय-पत्रिका' का सार है, जिस पर महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज ने सटीक टिप्पणी या व्याख्या लिखी है। यह पुस्तक महर्षि मेँहीँ साहित्य सूची की चौथी पुस्तक है। यह 1931 ई0 में भागलपुर के युनाइटेड प्रेस में छपी थी। इसमें गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज रचित ‘विनय-पत्रिका’ के कुछ पदों की सरल व्याख्या की गई है। बहुत ही अच्छी और सारगर्भित पुस्तक है। यह पुस्तक गोस्वामी तुलसीदास जी की साधना पद्धति और उनकी साधनात्मक गति का परिचयात्मक पुस्तिका है। 'विनय-पत्रिका' में भगवान श्री राम के प्रति तुलसीदास जी की गहरी भक्ति, विनम्रता (दास भाव), और पूर्ण समर्पण का भाव है, जिसे महर्षि जी ने आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सरल भावार्थ के साथ प्रस्तुत किया है। इस सार-सटीक का उद्देश्य पाठकों को गोस्वामी जी महाराज की अंतिम गति (मोक्ष की स्थिति) और उस तक पहुँचने के मार्ग को समझाना है, ताकि मनुष्य परम कल्याण प्राप्त कर सके। ( और जाने )
MS05 . श्रीगीता-योग-प्रकाश-श्रीमद्भागवत् गीता के भ्रान्तिपूर्ण विचारों का सही निराकरण करने वाली पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज द्वारा लिखा गया एक अत्यंत महत्वपूर्ण आध्यात्मिक पुस्तक है। इसमें कौन-सा ध्यान करें? ध्यान के कितने प्रकार होते हैं? विविध प्रकार के ध्यानों में श्रेष्ठ ध्यान कौन-सा है? इत्यादि बातों पर चर्चा किया गया है। गीता के सच्चे भेद को इस रचना में उद्घाटित किया गया है। इसका प्रथम प्रकाशन सन् 1955 ई0 में हुआ था। इस पुस्तक में एक स्थल पर महर्षिजी कहते हैं- ‘समत्वयोग प्राप्त कर, स्थितप्रज्ञ बन कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह कर्त्तव्य कर्मों के पालन करने का उपदेश गीता देती है।’ योगः कर्मसु कौशलम् ' अर्थात् कर्म करने की कुशलता या चतुराई को योग कहते हैं । यहाँ ' योग ' शब्द उपर्युक्त अर्थों से भिन्न , एक तीसरे ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अतएव गीता के तात्पर्य को अच्छी तरह समझने के लिए ' योग ' शब्द के भिन्न - भिन्न अर्थों को ध्यान में रखना चाहिए । गीता न सांसारिक कर्तव्यों के करने से हटाती है और न कर्मबंधन में रखती है । समत्व - योग प्राप्त कर स्थितप्रज्ञ बन , कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह , कर्तव्य कर्मों के पालन करने का उपदेश गीता देती है । ( और जाने )
MS06 . संतवाणी सटीक- इसमें 31 सन्त- कवियों के चुने हुए पदों की व्याख्या महर्षिजी ने की है। इसका प्रथम प्रकाशन 1968 ई0 में हुआ था। संतवाणी सटीक के विषय में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के निम्नलिखित उद्गार हैं- "गुरु महाराज ने दृढ़ता के साथ यह ज्ञान बतलाया कि सब संतों का एक ही मत है । मैंने सोचा कि यदि बहुत - से संतों की वाणियों का संग्रह किया जाए , तो उस संग्रह के पाठ से गुरु महाराज की उपर्युक्त बात की यथार्थता लोगों को उत्तमता से विदित हो जाएगी । इसी हेतु मैंने यत्र-तत्र से उनका संग्रह किया ।" 'संतवाणी का संग्रह हुआ , बड़ा अच्छा हुआ ; परन्तु इन वाणियों का अर्थ भी आप कर दें , तो और भी अच्छा हो । ' मुझको भी यह बात अच्छी लगी । सबका संग्रह कर एक पुस्तकाकार में छपवा दिया जाए कि लोग उस पुस्तक से विशेष लाभ उठावें ।" संतों ने ज्ञान और योग - युक्त ईश्वर - भक्ति को अपनाया । ईश्वर के प्रति अपना प्रगाढ़ प्रेम अपनी वाणियों में दर्शाया है । उनकी यह प्रेमधारा ज्ञान से सुसंस्कृत तथा सुरत - शब्द के सरलतम योग - अभ्यास से बलवती होकर , प्रखर और प्रबल रूप से बढ़ती हुई अनुभूतियों और अनुभव से एकीभूत हो गई थी , जहाँ उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और परम मोक्ष प्राप्त हुआ था । उनकी वाणी उन्हीं गम्भीरतम अनुभूतियों और सर्वोच्च अनुभव को अभिव्यक्त करने की क्षमता से सम्पन्न और अधिकाधिक समर्थ है । ' संतवाणी सटीक ' में पाठकगण उसी विषय को पाठ कर जानेंगे । ( और जाने )
MS07 . महर्षि मेँहीँ-पदावली- संतमत के महान संत महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ है। यह पुस्तक मूल रूप से भजनों और पदों का संग्रह है। इसके पदों के शब्दार्थ, भावार्थ और टिप्पणियाँ शामिल हैं, ताकि पाठक उनके गहरे अर्थों को आसानी से समझ सकें। इसका रचना-काल 1925 से 1950 ई0 है। यह गुरु महाराज जी की बड़ी लोकप्रिय काव्य-कृति है। इसमें 142 पद हैं। इसके पदों का वर्गीकरण विषय के आधार पर किया गया है। परम प्रभु परमात्मा, सन्तगण और मार्गदर्शक सद्गुरु, इन तीनों को एक ही के तीन रूप समझकर इन तीनों की स्तुति-प्रार्थनाओं को प्रथम वर्ग में स्थान दिया गया है । द्वितीय वर्ग में सन्तमत के सिद्धान्तों का एकत्रीकरण है। तृतीय वर्ग में प्रभु-प्राप्ति के एक ही साधन ‘ध्यान-योग’ का संकलन है, जो मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि-साधन और नादानुसंधान या सुरत-शब्द-योग का अनुक्रमबद्ध संयोजन-सोपान है। चतुर्थ वर्ग में ‘संकीर्त्तन’ नाम देकर तद्भावानुकूल गेय पदों के संचयन का प्रयत्न है। पंचम वर्ग में आरती उतारी गई है अर्थात् उपस्थित की गई है। साधकों की सुविधा का ख्याल करके नित्य प्रति की जानेवाली स्तुति-प्रार्थनाओं, सन्तमत- सिद्धान्त एवं परिभाषा आदि को प्रारम्भ में ही अनुक्रम-बद्ध कर दिया गया है और उसे स्तुति-प्रार्थना का अंग मानकर उसी वर्ग में स्थान दिया गया है। ( और जाने )
MS08 . मोक्ष दर्शन-इसका प्रथम प्रकाशन 1967 ई0 में हुआ था। इसमें महर्षिजी ने सूत्र-रूप में प्रभु, माया, ब्रह्म, प्रकृति, जीव, अन्तस्साधना, परमपद, सद्गुरु, प्रणवनाद आदि का सुन्दर और सरल विवेचन किया है। उन्होंने बतलाया है कि सुरत-शब्द-योग किये बिना परमात्मा को प्राप्त करना असम्भव है। महर्षि मेँहीँ साहित्य सत्संग योग के चतुर्थ भाग की ही एक पुस्तक है। जो मोक्ष (मुक्ति या निर्वाण) के बारे में चरण-दर-चरण जानकारी देती है, जिसमें बताया गया है कि कैसे जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर आत्मा परमात्मा से एकाकार हो सकती है, और इसके लिए ज्ञान, भक्ति, कर्म, ध्यान और आंतरिक तपस्या के मार्ग बताए गए हैं, जो जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने में मदद करते हैं। भारतीय दर्शन के अनुसार, मोक्ष जीवन का अंतिम लक्ष्य है, जहाँ व्यक्ति जन्म और पुनर्जन्म के बंधन से मुक्त हो जाता है। यह सभी दुखों, मोह और नश्वरता से परे जाकर अपने शुद्ध, ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त करने की अवस्था है। यह पुस्तक इन सभी मार्गों का एक व्यवस्थित परिचय देती है, जिससे साधक समझ सके कि मोक्ष कैसे प्राप्त किया जा सकता है।
यह बताती है कि कैसे जीवन के कष्टों से मुक्ति पाकर परम आनंद को प्राप्त किया जा सकता है। ( और जाने )
MS09 . ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर भक्ति- इसका रचना-काल 1970 ई0 है। इसमें बतलाया गया है कि परमात्मा को प्राप्त करने के लिए ज्ञान-योग और भक्ति का समन्वय परमावश्यक है। किसी एक के अभाव में साधना पूर्ण नहीं हो सकती। महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के साहित्य की एक पुस्तक है, जो ज्ञान (आत्म-साक्षात्कार) और योग (ध्यान) के माध्यम से ईश्वर की भक्ति (प्रेम) को जोड़कर परम सत्य को प्राप्त करने का मार्ग बताती है, जहाँ मनुष्य जीवन का उद्देश्य केवल खाना-सोना नहीं, बल्कि ईश्वर-स्वरूप को जानना और भजन करना है, ताकि आत्मा परमात्मा से मिल सके और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके। यह पुस्तक मनुष्य शरीर को ईश्वर-प्राप्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण बताती है, जिसे पशु-जीवन से अलग करके ईश्वर का भजन और आत्म-साक्षात्कार के लिए उपयोग करना चाहिए। संक्षेप में, यह पुस्तक ज्ञान और योग के आधार पर ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण का मार्ग सिखाती है, ताकि मनुष्य अपने जीवन के परम लक्ष्य - ईश्वर से एकाकार - को प्राप्त कर सके। ( और जाने )
MS10 . ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति-इसका प्रथम प्रकाशन 1963 ई0 में हुआ था। इसमें ईश्वर के स्वरूप का निरूपण किया गया है। ईश्वर का स्वरूप कैसा है? उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? इसका विशद विश्लेषण इसमें किया गया है। यह पूर्णियाँ जिले के डोभा गाँव में 1950 ई0 में उनका दिया गया प्रवचन है। जिसमें उन्होंने ईश्वर है कि नहीं है? अगर है तो ईश्वर का स्वरूप कैसा है? ईश्वर कैसा है? ईश्वर क्या है? संतों के अनुसार ईश्वर की परिभाषा क्या है? तर्क बुद्धि से ईश्वर को कैसे समझ सकते हैं? वैदिक संस्कृति में ईश्वर का स्वरूप कैसा है? वैज्ञानिक दृष्टि से ईश्वर का स्वरूप कैसा है? ईश्वर से संबंधित हर तरह के प्रश्नों का उत्तर इस पुस्तक में है और उसकी प्राप्ति के मार्ग हैं भक्ति, ज्ञान (आत्म-ज्ञान), और ध्यान, जिसमें अहंकार का त्याग, प्रेम और समर्पण, तथा सद्गुरु का मार्गदर्शन प्रमुख हैं, जो अंततः निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति की ओर ले जाते हैं। ईश्वर के सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूप हैं; सगुण उपासना भक्तिमार्ग में बच्चों के खिलौने के समान है । असली भक्ति का मार्ग ज्ञान मार्ग है। जो निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति की ओर ले जाती है, जहां भक्त अपने भीतर उस परम सत्ता को अनुभव करता है । इसमें नए सत्संगियों के लिए स्तुति प्रार्थना इत्यादि भी दिया गया है। पुस्तक पॉकेट में रखने योग्य छोटा साइज में प्रकाशित किया गया है, जिससे इसे हर जगह ले जाया जा सके। ( और जाने )
MS11 .भावार्थ-सहित घटरामायण- पदावली- संत तुलसी साहब द्वारा रचित एक आध्यात्मिक ग्रंथ है, जो शरीर (घट) के भीतर परम प्रभु को खोजने के रहस्य (सुरत/ध्यान) पर केंद्रित है; यह पुस्तक बाहरी आडंबरों से दूर, केवल सुरत के द्वारा भीतर ही भीतर भक्ति और परमात्मा से मिलने का सरल, सुगम मार्ग बताती है, जिसमें शारीरिक कष्ट या रोगादि की चिंता नहीं होती और गृहस्थ व त्यागी, दोनों इसका अभ्यास कर सकते हैं। 'भावार्थ-सहित घटरामायण-पदावली' में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज संत तुलसी साहब की पुस्तक ‘घटरामायण’ के 7 छन्दों, 3 सोरठों, 3 चौपाइयों, एक दोहे और एक आरती का भावार्थ दिया गया है। इसका प्रकाशन सर्वप्रथम 1935 ई0 में हुआ था। यह पुस्तक परम प्रभु से मिलने के भक्तिमय भेद की एक अनुपम रचना है, जो आडंबरों से परे है। यह ग्रंथ परमेश्वर को घट (शरीर) में पाने के सरल भेद को बताता है। यह सरल और सहज साधना का मार्ग दिखाती है, जो सभी के लिए सुलभ है। यह पुस्तक शरीर रूपी मंदिर में ही ईश्वर को पाने का एक आंतरिक, सहज और भक्तिपूर्ण आध्यात्मिक मार्गदर्शक है। ( और जाने )
MS12 . सत्संग-सुधा , प्रथम भाग- महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज द्वारा दिए गए १८ महत्वपूर्ण प्रवचनों का संग्रह है, जिसे संतमत की एक किताब के रूप में अखिल भारतीय संतमत सत्संग प्रकाशन ने प्रकाशित किया है; यह आध्यात्मिक प्रवचन, भक्ति और गुरु की शिक्षाओं पर केंद्रित है, जिसमें भक्ति के गुण, स्वभाव, और जीवन-मृत्यु से जुड़े प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं. । इसका प्रथम प्रकाशन 1954 ई0 में हुआ था। इसके प्रकाशन का मुख्य लक्ष्य यह है कि भक्तों को आध्यात्मिक मार्ग पर मार्गदर्शन देना और गुरु की शिक्षाओं से जोड़ना । यह पुस्तक उन साधकों के लिए महत्वपूर्ण है जो संतमत और सद्गुरु महर्षि मेँहीँ जी की शिक्षाओं को समझना चाहते हैं, खासकर भक्ति और आत्म-साधना के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हैं। लोग इन साधनाओं को करके आप अपना इहलोक और परलोक के जीवन को सुखमय बना सकते हैं । जिन लोगों ने इसका अनुसरण किया वे धन्य धन्य हो रहे हैं । ( और जाने )
MS13. सत्संग सुधा , द्वितीय भाग - इसका प्रथम प्रकाशन 1964 ईस्वी। ई0 में हुआ था। इसमें भी गुरु महाराज जी के 18 प्रवचनों का संकलन है। 60 वर्षों से बिंदु-नाद की साधना करते हुए संत- साहित्य के प्रमाणों के आधार पर सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज ने अपने इन अट्ठारह प्रवचनों में सत्संग, ध्यान, ईश्वर, सद्गुरु, सदाचार एवं संसार में रहने की कला के बारे में बताया है। साथ ही यह भी बताया है कि वेद-उपनिषद एवं संत-साहित्य में वर्णित बातें बिल्कुल सत्य हैं और जांचने पर प्रत्यक्ष है। लोग इन साधनाओं को करके आप अपना इहलोक और परलोक के जीवन को सुखमय बना सकते हैं । जिन लोगों ने इसका अनुसरण किया वे धन्य धन्य हो रहे हैं । सत्संग-सुधा के दोनों भागों के पाठ से पाठकों को यह बोध होगा कि वेदों, उपनिषदों, गीता, सन्तवाणियों में सदा से ईश्वर-स्वरूप उसके साक्षात्कार करने की सद्युक्ति एवं अनिवार्य सदाचार-पालन के निर्देश बिल्कुल एक ही हैं। मानव-जीवन के सर्वांगीण और पूर्ण विकास तथा कल्याण के लिए ईश्वर भक्ति या अध्यात्म-ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। ( और जाने )
MS14 . सत्संग-सुधा, तृतीय भाग, - इसका प्रथम प्रकाशन 2004 ई0 में हुआ था। इसमें गुरु महाराज जी के 24 प्रवचनों का संकलन है। इन प्रवचनों में मानव-जीवन के सर्वांगीण और पूर्ण विकास तथा कल्याण के लिए ईश्वर भक्ति या अध्यात्म-ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। वेदों, उपनिषदों, गीता, सन्तवाणियों में सदा से ईश्वर - स्वरूप, उसके साक्षात्कार करने की सयुक्ति एवं अनिवार्य सदाचार- पालन के निर्देश बिल्कुल एक ही हैं, केवल भाषा, शैली और शब्द-योजनाओं का ही उनमें भेद हैं- - तथ्य और अर्थ सभी के साररूप में एक ही हैं। ऐसा बताया गया है। यह आध्यात्मिक प्रवचन श्रृंखला है। जिसमें वेद, उपनिषद, गीता, रामायण और संत-वाणी के आधार पर ईश्वर-भक्ति, सदाचार, आत्म-बल, और जीवन के आध्यात्मिक पहलुओं पर गहन चर्चा हुुई हैै। जिसमें माया से मुक्ति और आंतरिक शुद्धि (दिल की सफाई) पर जोर दिया गया है। ( और जाने )
MS15 . सत्संग-सुधा , चतुर्थ भाग- इसका प्रकाशन वर्ष 2003 ई0। इसमें 26 प्रवचनों का संकलन है। इसमें मानव जीवन के सर्वांगीण विकास और कल्याण के लिए ईश्वर-भक्ति और आध्यात्मिक ज्ञान पर विशेष रूप से विश्लेषण हैं। आज विज्ञान का युग है। वैज्ञानिक आविष्कारों से नए-नए चमत्कार हो रहे हैं। सुख-सुविधाओं में अभिवृद्धि हो रही है। देश और काल की दूरी दूर हो गई है; परन्तु व्यक्ति के हृदय की दूरी बढ़ गई है। साहचर्य, सामंजस्य, सहयोग, सद्भाव आदि सद्गुणों का अभाव होता जा रहा है। जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति-राग, रोष, घृणा-द्वेष से संचालित दीखता है। विशेषकर धार्मिक असहिष्णुता देश और समाज को कलंकित-विखंडित करने पर तुला है। ऐसी विषम परिस्थिति में संतों के ज्ञान की बड़ी आवश्यकता है। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के शब्दों में हम कह सकेंगे- जो मारग श्रुति साधु दिखाये। तेहि मग चलत सबै सुख पावै ।। समाज और देश के कल्याण के लिए सदगुरु महाराज के इन प्रवचनों की बड़ी आवश्यकता है। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए इसका प्रकाशन किया गया है ( और जाने )
MS16. राजगीर, हरिद्वार दिल्ली सत्संग- इसमें राजगीर, हरिद्वार और दिल्ली में दिए गए सत्संग प्रवचनों के 26 संकलन है । जो बहुत ही सुंदर और अद्वितीय प्रवचन है। अखिल भारतीय संतमत सत्संग का वार्षिक महाधिवेशन करीब १०१ वर्षों से लगातार होता चला आ रहा है। इन महाधिवेशनों में तीन महाधिवेशन भारत के विशेष प्रमुख स्थानों में हुए हैं । उक्त अवसर पर जिन-जिन महात्माओं तथा आध्यात्मिक विद्वान् सज्जनों के प्रवचन एवं भाषण हुए हैं, उन सबका संग्रह रूप यह पुस्तक है। बिहार प्रान्त में राजगीर भगवान बुद्ध और भगवान महावीर तीर्थंकर के प्रचार का प्रमुख क्षेत्र रहा है। ढाई सहस्र वर्षों से भी अधिक समय व्यतीत होने के बावजूद वहाँ उनके प्रतीक विद्यमान हैं। इसी राजगीर ( राजगृह ) में परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज, श्रीसंतसेवीजी महाराज, नव नालन्दा महाविहार के निदेशक भिक्षु श्रीजगदीश काश्यपजी महाराज तथा कोशी कॉलेज, खगड़िया (मुंगेर) के उपप्राचार्य श्रीविश्वानन्दजी महोदय के प्रवचन हुए थे। उसके बाद भारत के सुप्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र हरिद्वार में जहाँ बड़े-बड़े साधु-महात्मा एवं महामण्डलेश्वर रहते हैं। वहीं पर परम पूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के अतिरिक्त स्थानीय महामण्डलेश्वरों के भी प्रवचन हुए थे। भारत की राजधानी दिल्ली में हुआ था। जहाँ देश-विदेश के उच्च कोटि के विद्वान् सज्जन रहते हैं। इस महाधिवेशन में भी परमपूज्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के अतिरिक्त कतिपय साधुओंए एवं वरिष्ठ विद्वानों के प्रवचन हुए थे। ( और जाने )
MS17 . महर्षि मेँहीँ-वचनामृत, प्रथम खंड- इसका रचनाकाल 1989 ई0 है। इसमें 16 प्रवचनों का संकलन है। इन प्रवचनों में मानव-जीवन के सर्वांगीण और पूर्ण विकास तथा कल्याण के लिए ईश्वर भक्ति या अध्यात्म-ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। वेदों, उपनिषदों, गीता, सन्तवाणियों में सदा से ईश्वर - स्वरूप, उसके साक्षात्कार करने की सयुक्ति एवं अनिवार्य सदाचार- पालन के निर्देश बिल्कुल एक ही हैं, केवल भाषा, शैली और शब्द-योजनाओं का ही उनमें भेद हैं- - तथ्य और अर्थ सभी के साररूप में एक ही हैं। जिसमें ध्यान, सदाचार और गुरु के महत्व पर व्यावहारिक ज्ञान दिया गया है। यह पुस्तक आध्यात्मिक साधकों के लिए बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है जो संतमत दर्शन और योगाभ्यास के सिद्धांतों को समझना चाहते हैं। एक जमाना था, जबकि हमारे परम पूज्य गुरुदेव एक आसन पर बैठकर घण्टों प्रवचन करते थे। हजारों-लाखों की संख्या में श्रद्धालु-भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती और मन्त्र-मुग्ध हो आपके वचनामृत का पान करते अघाते नहींं । ( ज्यादा जाने )
MS18 . महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर भाग 1- एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें शुरू से अंत तक मानव जीवन के सम्पूर्ण दु:खों से छुटकारा दिलाने के लिए धर्मग्रथों, साधु-संतों वचनों और निजी अनुभूतियों सहित तर्कसंगत, बुध्दिसंमत युक्तियों से भरा हुआ है। इस ग्रन्थ को अगर कोई एक बार भी शुरू से अंत तक मनोयोग पूर्वक पाठ कर लेता है, तो उसे ब्रह्म ज्ञान हो जाता है। जिसे बौद्धिक रूप से भी ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। उसे मनुष्य शरीर का मिलना ध्रुव निश्चित है। उसे तब तक मनुष्य शरीर मिलता रहेगा जब तक की उसे मोक्ष नहीं मिल जाता। क्योंकि शास्त्रों में बताया गया है कि "अगर इस जन्म में ब्रह्म को जान लिया तब तो ठीक है नहीं तो बहुत बड़ी हानि है ।" इन सभी प्रवचनों का एक बार भी पाठ कर लेने से व्यक्ति को ब्रह्म संबंधी ठोस एवं प्रमाणिक जानकारी हो जाती है । जिसके फलस्वरूप उपर्युक्त लाभ मिलना अनिवार्य है। इसका प्रथम प्रकाशन वर्ष2004 ई0 है. इसमें गुरु महाराज के 323 प्रवचनों का संकलन है। इन प्रवचनों का पाठ करके ईश्वर, जीव ब्रह्म, साधना आदि आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान हो जाता है। ( और जाने )
MS19 . महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर भाग 2,
..सुधा सागर भाग- 2
MS19 . महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर भाग 2- महर्षि मेँहीँ सत्संग - सुधा सागर भाग-2 में महर्षि मेँहीँ सत्संग - सुधा सागर भाग- 1 के प्रकाशन के बाद जो प्रवचन और उपलब्ध थे उसका ही संकलन इसमें किया गया है। यह पुस्तक केवल पीडीएफ रूप में उपलब्ध है। इसका एक बार भी प्रशासन अभी तक ( 2025 ई. तक ) नहीं हुआ है। महर्षि मेँहीँ सत्संग सुधा सागर" में गुरु महाराज के सभी प्रवचनों का संग्रह है। जो प्रवचन पूज्यपाद संतसेवी जी महाराज द्वारा एवं अन्य महापुरुषों के द्वारा लिखा गया है। उन सभी प्रवचनों को संग्रहित करके दो भागों में प्रकाशित किया गया है। ( और जाने )
MS20. महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ- महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के जीवन, उपदेशों और कार्यों पर केंद्रित एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह ग्रंथ उनके जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर प्रकाशित किया गया है। इस ग्रंथ में कृपासिंधु नर रूप हरि' के रूप में अवतरित पूज्यपाद महर्षिजी का अभिनंदन, उन्हीं के जीवनवृत्तों, प्रवचनों, उनकी कृतियों की आलोचनाओं एवं सिद्धांत-विवेचनों तथा युग-युग एवं देश-विदेश या विश्व के संतों के विचारों से सामंजस्य एवं एकता का दिग्दर्शन कराने; अनेक सत्पुरुषों द्वारा उनके प्रति अभिव्यक्त किए गए पुनीत भावनाओं, विचारों एवं अनुभूतियों, संतमत-साहित्य के इतिहासों आदि-आदि के द्वारा किया गया हैं। त्रिलोक और त्रिकाल में संत से पूज्य कौन हो सकते हैं! देवों, महापुरुषों और पूज्यों के द्वारा पूजित होनेवाले संत ही तो हैं। वे उत्कृष्ट दैविक गुणों से सुशोभित साक्षात ब्रह्म होते हैं। जिन संतों ने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए सारा जगत् नन्दनवन है, सब वृक्ष कल्पवृक्ष है, सब जल गंगाजल है, उनकी सारी क्रियाएँ पवित्र हैं, उनकी वाणी प्राकृत हो या संस्कृत वह वेद का सार है, उनके लिए सारी पृथ्वी काशी है और उनकी सभी चेष्टाएँ परमात्ममयी हैं। ( और जाने )
"Satsang Yoga (Part I-IV)" is the most eminent creation of the legendary Sant & Guru in the Santmat tradition, Maharshi Mehi Paramhans. It very aptly encapsulates the harmonizing and syncretistic ethos or spirit of Santmat recognizing and propagating the unity in the essential teaching of sages of all ages and places. Very diligently Maharshi Ji has collected and compiled in one place references from Vedas, Upnishads, preaching of old and contemporary sants and prominent thinkers & critics and proved beyond doubt the unity in their thoughts. It is a glorious work which, Maharshi Ji had once said, would represent him in times to come. Prof. Pravesh K. Singh has done a commendable and benevolent work by translating the Second & Third Part (English Translation of the Fourth Part of this book is already available) of this work into English and making it available to the English speaking people the world over. I compliment, congratulate and bless him for this great contribution of his; it is a great service to the most adorable Guru, Maharshi Mehi Paramhans, and the altruistic cause promoted by Santmat. I very sincerely hope and pray that Pravesh Ji would continue to endeavour and translate more works of Santmat in general and Maharshi Mehi Paramhans Ji in particular. Wishing Pravesh Ji the best of everything ! Jai Guru ! ( Our Jaane )
MS03 . Veda-Darshan-Yoga- Beloved devotees ! In the intitial period of Creation, God revealed the Vedas in the hearts of saints/Rishis such as Angira, Adityā, Vayu and Agni, and they composed the Vedas. The Vedas say- Let my mind be one which is well settled in the welfare of all, which imbibes total consciousness of all people, and in which Rik, Yajuh and Sām (i.e. all Vèdas) are ensconced like the spokes in the hub (of wheels) of a chariot.The sadhus and saints are also influenced by these merchants. In this book, Saint Sadguru Maharshi Manhi Paramhans Ji Maharaj has written commentaries on one hundred mantras selected from the four Vedas, and by comparing them with the teachings of the saints, he has proven that there is not a difference but rather unity between the teachings of the saints and the teachings of the Vedas. Let's explore this book. ( Our Jaane )
'Essence of Gita -Yoga' is an English rendering by my lisciple Sir Satyadeo Sha of my book 'SirGita-Yoga Prakash' written on the Gita. I have had great happiness to see that he has, by volunteering to translate it into English, rendered a very distinguished service to the English-speaking spiritual aspirants.The English-speaking spiritual aspirants often desire to know Lord Krishna's message of Spirituality and Yoga-knowledge. For these people, this is a good guide-book. They will, I hope, derive benefit from it. Om vouchsafing Arjuna a divine vision by His Yogic powers and assuming His supernatual powers, namely Mahima, Lord Krishna showed him a vision of His Universal form as Arjuna desired. His that form was very marvellous. It was huge and enormous. Its bounds were unconceivable. He has been described as Infinite and All-pervasive deity.He was lustrous and effulgent. Even the brilliance of thousand suns put together could hardly be equal to His exceedingly blazing effulgence. All beaings, deities etc, ( Our Jaane )
MS07. Mistycal Poems of Maharshi Manhi : Maharshi Mehi Paramhans was born 28th April, 1885 (Vaishakh Shukla Paksha Chaturdashî according to Indian calendar) in Khokshi Shyâm village in Saharsa, Bihar, India. Mr. Babujan Lâl Dâs and Mrs. Jariakwati Devi were his parents. He had a spiritual bent of mind from childhood. He finally bade adieu to household life on July 3, 1904 as he got emotional answering to a philosophical question in English during Class X examination and left the hall to take to the life of recluse. His desperate search for Guru ended when he found out Bâbâ Devî Sahab in 1909 who initiated him. Impressed with his progress and zeal in meditation, Bâbâ Devî Sahab initiated him into Sound meditation just in three years' time in 1912. Maharshi Mehî took Santmat to much greater heights spreading it to millions of common, poor and illiterate people in North India. So great was his aura that while he never went out of India and Nepal, devotees from foreign countries like Norway, Sweden, Russia, Japan, UK, USA etc got initiated by him. He acted as a bridge between scriptures and saintly literature syncretising their essential teachings . ( Our Jaane )
MS08. THE PHILOSOPHY OF LIBERATION : The infinite riches of the deepest mystery of the Supreme Yoga, Supreme knowledge and Supreme devotion are scattered throughout in the little space of this individual book which is the ripest and sweetest fruit of the Ultimate Experience acquired after long meditation and penance by great spiritual guide, Sadguru Maharshi Mehi Paramhansa. It is the overflow of his Universal love and kindness to mankind, (being inevitable for the Sants), to impart this higher knowledge to the world through this book, so that its craved 'Peace' or 'Shanti' can be found here, on this earth where there is a close struggle for existence, and hearafter too. The urge for attaining Shanti is natural in the human-heart. In ancient times, under this inspiration, the ancient Sants made a complete search for Shanti and expressed their well-considered opinions for its attainment in the Upanishads. Similar to these views, Sants like Kabir Sahab and Guru Nanak Sahab etc. also have described the views in languages like Bharti and Punjabi etc. for the good of the general people. Only these thoughts are called Santmat. But only the hymns of Upanishads have got to be taken for granted as the groundwork of Santmat; for the highest wisdom and the special means of Naadaanushandhaan or Surat Shabda Yoga (the 'Investigation of the Divine Word-Sound' or the 'Yoga of concentrating the consciousness-force into the Divine word-Sound') which leads to the state of that highest wisdom of which Santmat has its unique dignity, are still undimmed only on this ground work of the immemorial ages. It will become impossible to doubt the above statement after a careful study of all the three parts, first, second and third of the Satsang-Yoga. ( Our jaane )
Quintessence of Yoga : Secret of all Success
Quintessence of Yoga :
Quintessence of Yoga : Secret of all Success ।। More about Suitable Practice of Yoga God is realized in one's own self, therefore inner practice (Meditation) is absolutely essential. However, English speaking people have been bereft of the precious wisdom of this treatise. It was my desire that this treatise be translated into English, so the worthy people could benefit. In this treatise there is an' extensive elaboration of the following subjects :- 1. An Intorduction by my Master, Maharshi Mehi Paramhansdev. 2. What is Yoga? 3. Eight Parts of Yoga. 4. Yoga of restraint. 5. Liberty of Yoga. 6. The Utility of Yoga. 7. Suitable Practice of Yoga. 8. Glory of Yoga 9. Ancientness of Yoga 10. More about Suitable Practice of Yoga God is realized in one's own self, therefore inner practice (Meditation) is absolutely essential. ( our jaane )
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S01 || महर्षि मेँहीँ साहित्य-सुमनावली || Maharshi Mehi's Literary Anthology and its brief introduction.
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
1/31/2019
Rating: 5
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