MS12 सत्संग-सुधा भाग 1
सत्संग-सुधा भाग 1 |
सत्संग-सुधा भाग 1 में क्या है?
MS12_Aantarik_pase_3 |
मर्म-चिन्तन
पंच विषयों के भ्रामक सुख में जीवों को असीम काल से आबद्धकारिणी माया ने धर्म और ईश्वर भक्ति के नाम पर भी गोस्वामी तुलसीदासजी वर्णित 'माया कटक प्रचंड' को नियोजित कर दिया है। महामाया की इस आश्चर्यमयी छद्मलीला ने सदाचारी सुभक्तों और बुद्धिशील विवेचकों को भी अपने सौंदर्य और रस की मादकता से अभिभूत कर रखा है। भगवान के पूर्णावतार श्रीकृष्णजी यद्यपि ऋषि-मुनि मनोहारिणी, परमशक्तिशालिनी एवं विश्वव्यापिनी वाणी ( श्रीमद्भगवद्गीता ) में यह उद्घोषित कर दिया है- 'क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ; ये दोनों भिन्न हैं।' 'क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम; ये तीन प्रकार के पुरुष हैं।' मेरा तो उत्तमोत्तम यानी सबसे उत्तम (पुरुषोत्तम ) स्वरूप है, वह अज है यानी न कभी उसका जन्म हुआ और न कभी होगा ही, वह अनन्त है अर्थात् प्रकृतिजन्य देश और काल में जितना और जो विस्तृतत्व है, उससे भी वह परे है, वह अव्यय है यानी शाश्वत है, एकरस, एक ही एक, जिसमें कुछ भी व्यय नहीं होता और न हो ही सकता है ऐसा है और वह भाव से परे है, भाव यानी सत् अक्षर पुरुष- सच्चिदानंद तत्त्व से भी परे है अर्थात् उत्कृष्ट ।
MS12_Aantarik_pase_4 |
इस भाँति मैं स्वरूपतः अव्यक्त ही हूँ; अव्यक्त यानी मैं अपने अतिरिक्त और किसी के भी द्वारा देखने की शक्ति से परे हूँ अर्थात् मैं केवल आत्मगम्य हूँ। ऐसा जो मैं हूँ, उसको अबुद्धिशील यानी बुद्धिहीन लोग व्यक्त प्रकट मानते-समझते हैं; व्यक्त यानी इन्द्रियगोचर ।' भगवान श्रीकृष्ण की ऐसी वाणी के रहते हुए भी माया के मद-मोहक आदेश से विवेकशील भक्त भी इन्द्रियगोचर रूप की भक्ति को ही पूर्ण भक्ति मानते हैं। और अपनी भावना और विचारणा की तुष्टि के लिए भगवद्द्वाणी के विरुद्ध अन्यों को उपदेश करने लगते हैं कि 'भगवदवतार के क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में तात्त्विक एकता है-भेद नहीं है।'
MS12_Aantarik_pase_5 |
ऐसे प्रेमी भावुक भक्त भी सभी मानवों की भाँति ईश्वरीय विधानवश मायाकृत आवागमन के चक्र से मुक्त हो सकें और परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का बौद्धिक ज्ञान प्राप्त कर पूर्ण भक्त का आश्रय ले अपनी भक्ति को पूरी कर सकें- इसी ख्याल को ध्यान में रखकर अखिल भारतीय संतमत सत्संग प्रकाशन समिति ने पूज्यपाद महर्षिजी के सभी अमृत- भरे प्रवचनों का संग्रह पुस्तकाकार में प्रकाशित करने का निश्चय किया है। ये प्रवचन अध्यात्म-ज्ञान, प्रेम और आनंद के सुधा-सदृश ही श्रोतागण के अंतःकरणों का सिंचन और पवित्रीकरण करते हैं; क्योंकि इसमें अनुभवज्ञान की साक्षात् शक्ति क्रियाशील होकर प्रेरणा के रूप में जीवन्त रहती है। महर्षिजी महाराज के सत्संग में यही सुधा-पान करने का सौभाग्य साधकगण प्राप्त करते हैं। इसीलिए इसे 'सत्संग-सुधा' कहकर जानना ही योग्य है।
MS12_Aantarik_pase_6 |
. साधकगण, श्रोता और अध्येता इन वाणियों में समाधि जन्य ज्ञान के अचल और शक्तिशाली विश्वास का बोध करके स्वयं भी इस श्रद्धा से अनुप्राणित हो जाते हैं। मानव मात्र इस ज्ञान के अधि कारी हैं। सभी सरल, सुबोध भारती भाषा में यथार्थ धर्म- संतमत अर्थात् वास्तविक अध्यात्म-ज्ञान को सुलभता से प्राप्त कर सकें, इसी विचार के अनुसार इस प्रकाशन के द्वारा खंड-खंड रूप में इस सुधा- प्रसारण का काम होगा। प्रेमीगण सुलभ मूल्य में इसे खरीद सकें-ऐसा विशेष प्रयत्न है।
आश्विन शुक्ल अष्टमी सं० २०२३ वि० विनीत
अ० भा० संतमत सत्संग प्रकाशन समिति
सत्संग-सुधा बिषय-सूची |
MS12_अन्तरिक_पासे_7 |
MS12_अन्तरिक_पासे_9 |
सत्संग-सुधा भाग 1
बिषय-सूची
- ईश्वर भक्ति- -
- ईश्वर - भक्ति से सुख की प्राप्ति-
- घूँघट - पट खोलकर प्रभु से मिलो
- चेतन आत्मा द्वारा परमात्मा की प्राप्ति-
- संतमत के अनुकूल परमात्म- भक्ति से परम कल्याण
- उठो, जागो !-
- सुरत का जगना-
- अंतः प्रकाश का पाना आवश्यक-
- विन्दु और नाद की महिमा-
- देखने के लिए दृष्टि-साधन करो-
- ध्यानयोग की महिमा-
- ध्यान - यांग से पापों का क्षय और कर्मों से मुक्ति-
- संतों का उपदेश मोक्ष प्राप्त करने के लिए है-
- मुक्ति और उसकी साधना-
- शरीर और संसार के बंदीगृह से छूटने के उपाय-
- गृहस्थी के कर्तव्यों का पालन करते हुए मोक्ष पाना-
- मनुष्य- शरीर पाने का परम फल-
- प्रभु की प्राप्ति और मृतक दशा-
कोई टिप्पणी नहीं:
सत्संग ध्यान से संबंधित प्रश्न ही पूछा जाए।