MS20. महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ
प्रभु प्रेमियों ! महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के जीवन, उपदेशों और कार्यों पर केंद्रित एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह ग्रंथ उनके जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर प्रकाशित किया गया है। इस ग्रंथ में कृपासिंधु नर रूप हरि' के रूप में अवतरित पूज्यपाद महर्षिजी का अभिनंदन, उन्हीं के जीवनवृत्तों, प्रवचनों, उनकी कृतियों की आलोचनाओं एवं सिद्धांत-विवेचनों तथा युग-युग एवं देश-विदेश या विश्व के संतों के विचारों से सामंजस्य एवं एकता का दिग्दर्शन कराने; अनेक सत्पुरुषों द्वारा उनके प्रति अभिव्यक्त किए गए पुनीत भावनाओं, विचारों एवं अनुभूतियों, संतमत-साहित्य के इतिहासों आदि-आदि के द्वारा किया गया हैं। त्रिलोक और त्रिकाल में संत से पूज्य कौन हो सकते हैं! देवों, महापुरुषों और पूज्यों के द्वारा पूजित होनेवाले संत ही तो हैं। वे उत्कृष्ट दैविक गुणों से सुशोभित साक्षात ब्रह्म होते हैं। जिन संतों ने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए सारा जगत् नन्दनवन है, सब वृक्ष कल्पवृक्ष है, सब जल गंगाजल है, उनकी सारी क्रियाएँ पवित्र हैं, उनकी वाणी प्राकृत हो या संस्कृत वह वेद का सार है, उनके लिए सारी पृथ्वी काशी है और उनकी सभी चेष्टाएँ परमात्ममयी हैं। आइये ऐसे ही महापुरुष के अभिनंदन ग्रंथ का एक झलक प्राप्त करें--
'महर्षि मेँहीँ साहित्य सीरीज' की उन्नीसवीं पुस्तक "MS19. महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर" के प्रवचनों में ध्यानाभ्यास, सदाचार, सद्गुरु इत्यादि व्यवहारिक ज्ञान को उजागर करने वाली पुस्तक के बारे में जानने के लिए 👉 यहां दवाएँ।
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जीवनवृत्तों, प्रवचनों, उनकी कृतियों की आलोचनाओं एवं सिद्धांत-विवेचनो युक्त 'महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ' का एक झलक
त्रिलोक और त्रिकाल में संत से पूज्य कौन हो सकते हैं! देवों, महापुरुषों और पूज्यों के द्वारा पूजित होनेवाले संत ही तो हैं। वे उत्कृष्ट दैविक गुणों से सुशोभित साक्षात ब्रह्म होते हैं। मानव शरीर में निवास करते हुए भी मानवीय क्षुद्रता उन्हें स्पर्श नहीं करती। श्री मदाद्य शंकराचार्य का वचन है- 'सम्पूर्ण जगदेव नन्दनवनं रार्वेऽपि कल्पद्रुमा गांगं वारि समस्तवारिनिवहाः पुण्याः समस्ताः क्रियाः । वाचः प्राकृतसंस्कृताः श्रुतिशिरो वाराणसी मेदिनी सर्वावस्थितिरस्य वस्तुविषया दृष्टे परब्रह्मणि ।।' जिन संतों ने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए सारा जगत् नन्दनवन है, सब वृक्ष कल्पवृक्ष है, सब जल गंगाजल है, उनकी सारी क्रियाएँ पवित्र हैं, उनकी वाणी प्राकृत हो या संस्कृत वह वेद का सार है, उनके लिए सारी पृथ्वी काशी है और उनकी सभी चेष्टाएँ परमात्ममयी हैं। इन्हीं भावों को अक्षरशः चरितार्थ करनेवाले संत थे महर्षि मे ही परमहंस, जिनका तेज आज लाखों नर-नारिया के हृदय में ज्ञान-प्रदीप प्रज्ज्वलित कर रहा है। अपने जीवन में सत्यधर्म को सर्वोपरि स्थान देते हुए इन्होंने मनसा, वाचा, कर्मणा सत्य के आचरण को शांति और कल्याण का मार्ग बतलाया। महाभारत का निम्नांकित श्लोक इन्हीं विचारों को सम्पुष्ट करता दीखता है। सत्यं सत्सु सदा धर्मः सत्यं धर्मः सनातनः । सत्यमेव नमस्येत सत्यं हि परमा गतिः ।। सदा सत्य ही संतो का धर्म है, सत्य ही सनातन धर्म है, सन्तजन सत्य को ही नमस्कार करते हैं, सत्य ही परम गति (आश्रय) है। ऐसे ही संतों की महिमा प्रतिष्ठित करते हुए भगवान श्रीराम ने शवरी से कहा था- 'सतां संगतिरेवात्र साधनं प्रथमं स्मृतम।' (अध्यात्म रामायण ३।१०।२२) अर्थात् भक्ति के सब साधनों में श्रेष्ठ साधन संतों का संग है। एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐसे संत यदि सगुण रूप में हमारे बीच उपस्थित न हों तो उनके संग का लाभ हम किस प्रकार ले सकते हैं? उत्तर होगा कि उनके लिखित जीवन-दर्शन और उपदेश का परिज्ञान प्राप्त कर यदि हम उनका अनुसरण करें तो हमें उनके संग का वास्तविक लाभ मिल सकता है। इसी पुनीत लक्ष्य तक पहुँचाने हेतु सत्साहित्यों की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में १६६१ ई० में 'महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ' का प्रकाशन किया गया था। आइये इसी अभिनंदन ग्रंथ का सिंहावलोकन करें--
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| महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 1 |
 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 2 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 3 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 4 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 5 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 6 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 7 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 8 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 9 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 10 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 11 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 12 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 13 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 14 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 15 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 16 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 17 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 18 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 19 |
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 | | महर्षि मेँहीँ अभिनंदन ग्रंथ 20 |
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