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MS04 विनय-पत्रिका-सार सटीक || Nirgun aur Shagun Bhakt Kaise Hote Hain? गो.तुलसीदास

विनय-पत्रिका-सार सटीक

     प्रभु प्रेमियों ! 'महर्षि मेँहीँ साहित्य सूची' की पांचवीं पुस्तक "विनय-पत्रिका-सार सटीक" है । इस पुस्तक में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज बताते हैं कि निज विचारों और अनुभवों से भरा हुआ है . गो. तुलसीदास जी महाराज योग , वैराग्य , ज्ञान और भक्ति को प्रेम के अत्यन्त मधुर रस में पागकर बने हुए अत्युत्तम मोदक ' विनय - पत्रिका ' में भरे पड़े हैं , जो भव - रोगों से ग्रसित दुर्बल और आत्म - बलहीन जीवों के लिए अत्यन्त पुष्टिकर हैं ।  इन्ही वचनों के संग्रह की सटीक और व्याख्या की पुस्तक है-'विनय-पत्रिका-सार सटीक' । आइये इसकी एक झलक दैखे--

महर्षि मेंहीं साहित्य श्रृंखला की तीसरी पुस्तक "वेद-दर्शन-योग" के बारे में जानने के लिए    👉 यहां दवाएं.

विनय-पत्रिका-सार-सटीक


गोस्वामी जी की ईश्वर के प्रति भक्ति,ं विनती और सच्चे प्रेम की प्रतीक है विनय पत्रिका

     प्रभु प्रेमियों  !  'विनय - पत्रिका' गोसाईं तुलसीदासजी महाराज का अन्तिम ग्रंथ है । यह उनके निज विचारों और अनुभवों से भरा हुआ है । गोसाईंजी महाराज ने ' रामचरितमानस ' को ' सद्गुरु ज्ञान विराग जोग के ' कहकर उसे योग का सद्गुरु बतलाया है । यदि . ग्रंथकर्ता स्वयं योग का सद्गुरु न हो , तो उनका ग्रंथ योग का सद्गुरु कैसे हो सकता है ? गोस्वामीजी महाराज योग के सद्गुरु थे , इस बात को उनकी ' विनय - पत्रिका ' भली भाँति सिद्ध कर देती है । योग , वैराग्य , ज्ञान और भक्ति को प्रेम के अत्यन्त मधुर रस में पागकर बने हुए अत्युत्तम मोदक ' विनय - पत्रिका ' में भरे पड़े हैं , जो भव - रोगों से ग्रसित दुर्बल और आत्म - बलहीन जीवों के लिए अत्यन्त पुष्टिकर हैं ।


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गोस्वामी तुलसीदास जी कैसे संत थे

      गोस्वामीजी महाराज प्राचीन काल के नारद , सनकादिक और परम भक्तिन शबरी की तरह के और आधुनिक काल के कबीर साहब और गुरु नानक इत्यादि संतों की तरह के भक्ति की चरम सीमा तक पहुँचे हुए , योग और ज्ञानयुक्त भक्ति में परिपूर्ण और निर्मल सन्त थे । ऐसे सन्त के अन्तिम ग्रन्थ में उनकी अन्तिम गति का भाव अवश्य ही वर्णित होगा । इसी भाव को जानने और उसे संसार के सामने प्रकाश करने के लिए यह ' विनय - पत्रिका - सार सटीक ' लिखने का मैंने प्रयास किया है । इससे गोस्वामीजी महाराज की अन्तिम गति का और उस गति तक पहुँचने के मार्ग का पता लग जाता है । इस मार्ग को जानकर यदि मनुष्य इसपर चले , तो अन्त में गोस्वामीजी महाराज की तरह परम कल्याण पा सके । मनुष्य के लिए इससे बढ़कर लाभ दूसरा नहीं हो सकता ।


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काल धर्म किसे नहीं व्यापता है? 

     कितने लोगों का यह विश्वास है कि प्राचीन काल के सनकादिक , देव - ऋषि नारद , कागभुशुण्डि और शवरी आदि की तरह सन्त , कलिधर्म के कारण इस युग में नहीं हो सकते । इसके उत्तर में गोस्वामीजी महाराज स्वयं ही कहते हैं कि 

काल धर्म नहिं व्यापहिं तेही । 
                           रघुपति चरन प्रीति अति जेही ।। ' 
                                      ( रामचरितमानस , उत्तरकाण्ड ) 

और 

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गोस्वामी तुलसीदास जी की अंतिम गति

     कुछ स्वल्प संख्यक लोग बहुत भद्दी - सी यह बात कहते हैं कि ' परम संत कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों की तरह ऊँची गति गोस्वामीजी महाराज की नहीं थी । ' देश - कालातीत , अतिशय द्वैतहीन , त्रयवर्ग पर परमपद और सगुण शब्दब्रह्मैकपर ब्रह्मज्ञानी का वर्णन ' विनय - पत्रिका में गोस्वामीजी महाराज करते हैं , उससे आगे कोई विशेष पद है , जहाँ की गति कबीर साहब आदि संतों की थी और गोस्वामीजी महाराज की नहीं , युक्ति - संगत बात नहीं जंचती । अपने को विद्वान माननेवाले कुछ लोग ऐसे भी हैं , जो कबीर साहब ही को हेय दृष्टि से और गोस्वामीजी महाराज को ऊँची निगाह से देखते हैं । पर 

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लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी की दृष्टि में गोस्वामी तुलसीदास जी 

     लोकमान्य बालगंगाधर तिलक अपने ' गीता - रहस्य ' के अध्यात्म - प्रकरण में इस भाँति लिखकर कबीर साहब और गोस्वामीजी महाराज को सम गति के सिद्ध कर देते हैं ; यथा - ' उपर्युक्त विवेचन से विदित होगा कि सारे मोक्ष धर्म के मूलभूत अध्यात्मज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिषदों से लगाकर ज्ञानेश्वर , तुकाराम , रामदास , कबीरदास , सूरदास , तुलसीदास इत्यादि आधुनिक साधु पुरुषों तक किस प्रकार अव्याहत चली आ रही है । ' गुरु , अवतार , देवता और देवी आदि अनेक उपास्यों में पृथक्त्व केवल शरीरों में ही है , आत्मा में नहीं । भक्ति के उत्तम साधन से आत्मा तक पहुँचने पर उपासकों की गतियों में अन्तर कहाँ रहा ? उपासना की इसी उत्तम विधि का पता इस " विनय - पत्रिका - सार सटीक ' में खोलकर बतलाया गया है । पाठकों से मेरा नम्र निवेदन है कि इसको सिलसिले के साथ ओर से छोर तक पढ़ें । इसको ठीक - ठीक समझने के लिए ' रामचरितमानस - सार सटीक ' के विचारों को भी जानने की बड़ी आवश्यकता है । (भूमिका से)

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लोगों का विचार भिन्न भिन्न क्यों है❓

     आधुनिक संत-साहित्य के शीर्ष विद्वानों ने आध्यात्मिक स्थितियों के दो बौद्धिक विकल्प निश्चित कर रखे हैं-सगुण और निर्गुण । सगुणोपासक तथा निर्गुणोपासक का अलग-अलग स्वतंत्र सर्वोच्च एवं सर्वांगपूर्ण लक्ष्य एवं भिन्न-भिन्न साधना विधि भी उन्होंने निर्धारित कर रखी है-मान रखी है। ऐसा करके वे विद्वद्वर्ग सगुणोपासकों को भक्त तथा निर्गुणोपासकों को संत नाम से अभिहित करना ठीक समझते हैं। ये सारे के सारे निर्णय उन्होंने अपनी बौद्धिक प्रतिभा, तीक्ष्ण कल्पना, विशाल अध्ययन और गंभीर चिन्तन-मनन के वल पर-आधार पर दे रखे हैं। इन निर्णयों में सच्चे संतों की संगति - सत्संगति और साधना-उपासना का एकान्त अभाव रहता है। इसीलिए आध्यात्मिक साधकों को उनकी वाणियों में 'अंधकार में टटोलने की गंध' आती है और मार्ग-दर्शन और साधन-संबल की आशा, रिक्त हृदय से वापस लौट आती है। ऐसे निराश साधकों को गोस्वामी तुलसीदासजी की 'विनय-पत्रिका' के प्रच्छन्न और योग - रहस्यावरणित पद उद्घाटित हो जाने से सुधा - सिञ्चित आलोक-माला - सा मार्ग-दर्शक ही प्रतीत होगा और सत्यान्वेषी विनयशील विद्वान भी अपने प्राप्त विद्या- प्रकाश को इस अनुभव - ज्ञान की दिव्य दीप्ति से उज्ज्वलित और परिमार्जित कर परिशुद्ध सत्य को अधिक शक्तिशालिता के साथ अपना सकेंगे।



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ब्रह्मज्ञानी, आत्मज्ञानी के विचारों में भिन्नता नही

     आध्यात्मिक अनुभव - ज्ञान की ज्योति - साया में बैठकर सभी जिज्ञासु अपनी वौद्धिक चेतना में यह धारण करने में समर्थ होंगे कि जगत में पुरुष के क्रमोन्नत तीन रूप हैं, जो श्रीमद् 'भगवद्गीता में क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम नाम से अभिहित किए गए हैं। तीनों गुणों (सत्त्व, रज और तम ) के सहित रूप को सगुण और इन तीन गुणों से रहित, किन्तु सत्-चित्-आनन्द गुणों सहित रूप को निर्गुण और इन दोनों रूपों से भी उत्तम, उनका जो अपना सत्य रूप है, उसे पुरुषोत्तम कहा गया है। इन सगुण और निर्गुण रूपों को हम 'अपरा' और 'परा' प्रकृति भी कह सकते हैं और महर्षि मेँहीँ वाणी में कह सकते हैं-- 

ये प्रकृति उत्पत्ति लय, होर्ते प्रभु की मौज से ।
         ये अजा अनाया स्वयं हैं, हरगिज न कहना चाहिये || 

     इसे धारण कर लेने पर हमारी प्रज्ञा - शक्ति यह भली भाँति समझ सकेगी कि पूर्ण भक्त, पूर्ण योगी, पूर्ण कर्मयोगी एवं पूर्ण ज्ञान - योगी ही ब्रह्मज्ञानी, आत्मज्ञानी, निर्वाण प्राप्त, अनुभवज्ञानी, तत्त्व ज्ञानी, ऋषि, बुद्ध, अर्हत, जिन, संत आदि नामों से वर्णित होते हैं और शब्द-भेद के अतिरिक्त इनमें जरा भी अर्थ - भेद- तत्त्व-भेद नहीं है। यह प्रज्ञा विकसित होते ही यह तथ्य भली भाँति समक्ष में आ जाएगा कि सगुणोपासना के द्वारा ही हम निर्गुणोपासना की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं और निर्गुणोपासना की पूर्णता पर ही आत्म या परमात्म-साक्षात्कार कर कोई भी संत या ऋषि हो सकते हैं।


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     जिन्होंने सगुण-निर्गुणातीत परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति कर ली है, ऐसे महान पुरुषों को 'भक्त' शब्द का कल्पित अर्थ बनाकर उन्हें सगुणोपासक की सीमा में ही आबद्ध बताना अवश्य ही एक अपराध है। पूर्ण भक्तिन शवरी को कौन भक्त कहने से रोक सकता है ? क्योंकि उसके बारे में स्वयं भगवान रामचन्द्रजी ने कहा है- 'सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे' और यह शवरी उस लोक को गई, जहाँ जाने से कोई आवागमन के बेबसी भरे चक्र से सदा के लिए मुक्त हो जाता है।

'तजि योग पावक देह हरिपद लीन भई जहँ नहिं फिरे । '

                                                       -- रामचरितमानस

'यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।' - गीता '

'जौं जल में जल पैटि न निकसे, यों दुरि मिला जुलाहा ।'
                                                   - सन्त कबीर साहब 


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गोस्वामी तुलसीदासजी और 'विनय पत्रिका'

     ऊपर वर्णित पद या स्थिति गोस्वामी तुलसीदासजी को प्राप्त नहीं थी, उन्हें जटायु और राजा दशरथवाली भक्ति की स्थिति ही उपलब्ध थी- ऐसा माननेवाले विद्वानों को अवश्य ही 'विनय पत्रिका - सार सटीक के अध्ययन - मनन से नवज्ञानोन्मेष होगा और वे गोस्वामी तुलसीदासजी को भी पूर्ण भक्त, ऋषि और संत मानकर उनकी निम्नोक्त वाणी को मन-ही-मन गुनगुनाते रहेंगे।

सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवइ निद्रा तजि योगी । 
सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय बैत-वियोगी ।। 
सो मोह भय हरण दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं । 
तुलसिदास एहि दसा - हीन, संशय निर्मूल न जाहीं ॥

     देश - काल जहाँ नहीं है, ऐसे द्वैत से रहित पद या स्थिति को पाकर ही गोस्वामी तुलसीदासजी ने बलवती वाणी में यह लिख दिया कि इस पद को प्राप्त किए बिना किसी का भी सर्वसंशय निर्मूल नहीं हो सकता

     तमस् के भ्रमाच्छादनों को भंग कर सत्य का प्रचण्ड प्रकाश, प्रेमी जिज्ञासुओं के हृदय में प्रभु भक्ति की सुधा-धारा बनकर बह सके, यही आशा - अभिलाषा लेकर महर्षिजी रचित "विनय पत्रिका-सार सटीक' का प्रकाशन अखिल भारतीय संतमत सत्संग - प्रकाशन की ओर से किया गया है। आशा है, सत्संग - प्रेमी सज्जन इसे अपनाकर लाभ उठावेंगे।

   अ० भा० संतमत सत्संग- प्रकाशन  समिति,  -संवत् २०२२ वि०



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