MS04 विनय-पत्रिका-सार सटीक || योग, वैराग्य, ज्ञान और भक्ति को प्रेम रस से सराबोर विनय-पत्रिका पुस्तक है
विनय-पत्रिका-सार सटीक
गोस्वामी जी की ईश्वर के प्रति भक्ति, विनती और सच्चे प्रेम की प्रतीक है विनय पत्रिका
|
![]() |
| MS04_आंतरिक_पेज_1 |
गोस्वामी तुलसीदास जी कैसे संत थे
गोस्वामीजी महाराज प्राचीन काल के नारद , सनकादिक और परम भक्तिन शबरी की तरह के और आधुनिक काल के कबीर साहब और गुरु नानक इत्यादि संतों की तरह के भक्ति की चरम सीमा तक पहुँचे हुए , योग और ज्ञानयुक्त भक्ति में परिपूर्ण और निर्मल सन्त थे । ऐसे सन्त के अन्तिम ग्रन्थ में उनकी अन्तिम गति का भाव अवश्य ही वर्णित होगा । इसी भाव को जानने और उसे संसार के सामने प्रकाश करने के लिए यह ' विनय - पत्रिका - सार सटीक ' लिखने का मैंने प्रयास किया है । इससे गोस्वामीजी महाराज की अन्तिम गति का और उस गति तक पहुँचने के मार्ग का पता लग जाता है । इस मार्ग को जानकर यदि मनुष्य इसपर चले , तो अन्त में गोस्वामीजी महाराज की तरह परम कल्याण पा सके । मनुष्य के लिए इससे बढ़कर लाभ दूसरा नहीं हो सकता ।
![]() |
| MS04_अन्तरिक_पेज_2 |
काल धर्म किसे नहीं व्यापता है?
कितने लोगों का यह विश्वास है कि प्राचीन काल के सनकादिक , देव - ऋषि नारद , कागभुशुण्डि और शवरी आदि की तरह सन्त , कलिधर्म के कारण इस युग में नहीं हो सकते । इसके उत्तर में गोस्वामीजी महाराज स्वयं ही कहते हैं कि
गोस्वामी तुलसीदास जी की अंतिम गति
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी की दृष्टि में गोस्वामी तुलसीदास जी
लोगों का विचार भिन्न भिन्न क्यों है❓
आधुनिक संत-साहित्य के शीर्ष विद्वानों ने आध्यात्मिक स्थितियों के दो बौद्धिक विकल्प निश्चित कर रखे हैं-सगुण और निर्गुण । सगुणोपासक तथा निर्गुणोपासक का अलग-अलग स्वतंत्र सर्वोच्च एवं सर्वांगपूर्ण लक्ष्य एवं भिन्न-भिन्न साधना विधि भी उन्होंने निर्धारित कर रखी है-मान रखी है। ऐसा करके वे विद्वद्वर्ग सगुणोपासकों को भक्त तथा निर्गुणोपासकों को संत नाम से अभिहित करना ठीक समझते हैं। ये सारे के सारे निर्णय उन्होंने अपनी बौद्धिक प्रतिभा, तीक्ष्ण कल्पना, विशाल अध्ययन और गंभीर चिन्तन-मनन के वल पर-आधार पर दे रखे हैं। इन निर्णयों में सच्चे संतों की संगति - सत्संगति और साधना-उपासना का एकान्त अभाव रहता है। इसीलिए आध्यात्मिक साधकों को उनकी वाणियों में 'अंधकार में टटोलने की गंध' आती है और मार्ग-दर्शन और साधन-संबल की आशा, रिक्त हृदय से वापस लौट आती है। ऐसे निराश साधकों को गोस्वामी तुलसीदासजी की 'विनय-पत्रिका' के प्रच्छन्न और योग - रहस्यावरणित पद उद्घाटित हो जाने से सुधा - सिञ्चित आलोक-माला - सा मार्ग-दर्शक ही प्रतीत होगा और सत्यान्वेषी विनयशील विद्वान भी अपने प्राप्त विद्या- प्रकाश को इस अनुभव - ज्ञान की दिव्य दीप्ति से उज्ज्वलित और परिमार्जित कर परिशुद्ध सत्य को अधिक शक्तिशालिता के साथ अपना सकेंगे।
![]() |
| MS04_अन्तरिक_पेज_6 |
ब्रह्मज्ञानी, आत्मज्ञानी के विचारों में भिन्नता नही
आध्यात्मिक अनुभव - ज्ञान की ज्योति - साया में बैठकर सभी जिज्ञासु अपनी वौद्धिक चेतना में यह धारण करने में समर्थ होंगे कि जगत में पुरुष के क्रमोन्नत तीन रूप हैं, जो श्रीमद् 'भगवद्गीता में क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम नाम से अभिहित किए गए हैं। तीनों गुणों (सत्त्व, रज और तम ) के सहित रूप को सगुण और इन तीन गुणों से रहित, किन्तु सत्-चित्-आनन्द गुणों सहित रूप को निर्गुण और इन दोनों रूपों से भी उत्तम, उनका जो अपना सत्य रूप है, उसे पुरुषोत्तम कहा गया है। इन सगुण और निर्गुण रूपों को हम 'अपरा' और 'परा' प्रकृति भी कह सकते हैं और महर्षि मेँहीँ वाणी में कह सकते हैं--
ये अजा अनाया स्वयं हैं, हरगिज न कहना चाहिये ||
इसे धारण कर लेने पर हमारी प्रज्ञा - शक्ति यह भली भाँति समझ सकेगी कि पूर्ण भक्त, पूर्ण योगी, पूर्ण कर्मयोगी एवं पूर्ण ज्ञान - योगी ही ब्रह्मज्ञानी, आत्मज्ञानी, निर्वाण प्राप्त, अनुभवज्ञानी, तत्त्व ज्ञानी, ऋषि, बुद्ध, अर्हत, जिन, संत आदि नामों से वर्णित होते हैं और शब्द-भेद के अतिरिक्त इनमें जरा भी अर्थ - भेद- तत्त्व-भेद नहीं है। यह प्रज्ञा विकसित होते ही यह तथ्य भली भाँति समक्ष में आ जाएगा कि सगुणोपासना के द्वारा ही हम निर्गुणोपासना की योग्यता प्राप्त कर सकते हैं और निर्गुणोपासना की पूर्णता पर ही आत्म या परमात्म-साक्षात्कार कर कोई भी संत या ऋषि हो सकते हैं।
|
जिन्होंने सगुण-निर्गुणातीत परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति कर ली है, ऐसे महान पुरुषों को 'भक्त' शब्द का कल्पित अर्थ बनाकर उन्हें सगुणोपासक की सीमा में ही आबद्ध बताना अवश्य ही एक अपराध है। पूर्ण भक्तिन शवरी को कौन भक्त कहने से रोक सकता है ? क्योंकि उसके बारे में स्वयं भगवान रामचन्द्रजी ने कहा है- 'सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे' और यह शवरी उस लोक को गई, जहाँ जाने से कोई आवागमन के बेबसी भरे चक्र से सदा के लिए मुक्त हो जाता है।
'तजि योग पावक देह हरिपद लीन भई जहँ नहिं फिरे । '
-- रामचरितमानस
'यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।' - गीता '
- सन्त कबीर साहब
गोस्वामी तुलसीदासजी और 'विनय पत्रिका'
ऊपर वर्णित पद या स्थिति गोस्वामी तुलसीदासजी को प्राप्त नहीं थी, उन्हें जटायु और राजा दशरथवाली भक्ति की स्थिति ही उपलब्ध थी- ऐसा माननेवाले विद्वानों को अवश्य ही 'विनय पत्रिका - सार सटीक के अध्ययन - मनन से नवज्ञानोन्मेष होगा और वे गोस्वामी तुलसीदासजी को भी पूर्ण भक्त, ऋषि और संत मानकर उनकी निम्नोक्त वाणी को मन-ही-मन गुनगुनाते रहेंगे।
सोइ हरि पद अनुभवइ परम सुख, अतिसय बैत-वियोगी ।।
सो मोह भय हरण दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास एहि दसा - हीन, संशय निर्मूल न जाहीं ॥
देश - काल जहाँ नहीं है, ऐसे द्वैत से रहित पद या स्थिति को पाकर ही गोस्वामी तुलसीदासजी ने बलवती वाणी में यह लिख दिया कि इस पद को प्राप्त किए बिना किसी का भी सर्वसंशय निर्मूल नहीं हो सकता ।
तमस् के भ्रमाच्छादनों को भंग कर सत्य का प्रचण्ड प्रकाश, प्रेमी जिज्ञासुओं के हृदय में प्रभु भक्ति की सुधा-धारा बनकर बह सके, यही आशा - अभिलाषा लेकर महर्षिजी रचित "विनय पत्रिका-सार सटीक' का प्रकाशन अखिल भारतीय संतमत सत्संग - प्रकाशन की ओर से किया गया है। आशा है, सत्संग - प्रेमी सज्जन इसे अपनाकर लाभ उठावेंगे।
अ० भा० संतमत सत्संग- प्रकाशन समिति, -संवत् २०२२ वि०
![]() |
| MS04 लास्ट कवर |
खरीदने के लिए
इतनी जानकारी के बाद अगर आपके मन में इस पुस्तक को खरीदने की इच्छा हो रही है, तो आप निम्नलिखित साइटों से इस पुस्तक को ऑनलाइन खरीद सकते हैं और महर्षि मेंहीं आश्रम कुप्पाघाट से इसे ऑफलाइन में प्राप्त कर सकते हैं। जय गुरु महाराज
सद्गुरु महर्षि साहित्य सुमनावली
MS05 . श्रीगीता-योग-प्रकाश- श्रीमद्भागवत् गीता के भ्रान्तिपूर्ण विचारों का सही निराकरण करने वाली पुस्तक "श्रीगीता-योग-प्रकाश" सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज द्वारा लिखा गया एक अत्यंत महत्वपूर्ण आध्यात्मिक पुस्तक है। इसमें कौन-सा ध्यान करें? ध्यान के कितने प्रकार होते हैं? विविध प्रकार के ध्यानों में श्रेष्ठ ध्यान कौन-सा है? इत्यादि बातों पर चर्चा किया गया है। गीता के सच्चे भेद को इस रचना में उद्घाटित किया गया है। इसका प्रथम प्रकाशन सन् 1955 ई0 में हुआ था। इस पुस्तक में एक स्थल पर महर्षिजी कहते हैं- ‘समत्वयोग प्राप्त कर, स्थितप्रज्ञ बन कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह कर्त्तव्य कर्मों के पालन करने का उपदेश गीता देती है।’ योगः कर्मसु कौशलम् ' अर्थात् कर्म करने की कुशलता या चतुराई को योग कहते हैं । यहाँ ' योग ' शब्द उपर्युक्त अर्थों से भिन्न , एक तीसरे ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अतएव गीता के तात्पर्य को अच्छी तरह समझने के लिए ' योग ' शब्द के भिन्न - भिन्न अर्थों को ध्यान में रखना चाहिए । गीता न सांसारिक कर्तव्यों के करने से हटाती है और न कर्मबंधन में रखती है । समत्व - योग प्राप्त कर स्थितप्रज्ञ बन , कर्म करने की कुशलता या चतुराई में दृढ़ारूढ़ रह , कर्तव्य कर्मों के पालन करने का उपदेश गीता देती है । 👉 ( और जाने )
सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की पुस्तकें मुफ्त में पाने के लिए शर्तों के बारे में जानने के लिए 👉 यहां दवाएं।












कोई टिप्पणी नहीं:
सत्संग ध्यान से संबंधित प्रश्न ही पूछा जाए।