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मोक्ष दर्शन, (83-88) गुरु भक्ति और साधकों को करने योग्य आवश्यक निर्देश ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं

सत्संग योग भाग 4 (मोक्ष दर्शन) / 10

प्रभु प्रेमियों ! भारतीय साहित्य में वेद, उपनिषद, उत्तर गीता, भागवत गीता, रामायण आदि सदग्रंथों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सदग्रंथों, प्राचीन और आधुनिक संतो के विचारों को संग्रहित करकेे 'सत्संग योग' नामक पुस्तक की रचना हुई है। इसमें सभी पहुंचे हुए संत-महात्माओं के विचारों में एकता है, इसे प्रमाणित किया है और चौथे भाग में इन विचारों के आधार पर और सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की अपनी साधनात्मक अनुभूतियों से जो अनुभव ज्ञान हुआ है, उसके आधार पर मनुष्यों के सभी दुखों से छूटने के उपायों का वर्णन किया गया है। इसे मोक्ष दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। इसमें ध्यान योग से संबंधित बातों को अभिव्यक्त् करने के लिए पाराग्राफ नंंबर दिया गया हैैैै । इन्हीं पैराग्राफों में से  कुुछ पैराग्राफों  के बारे  में  जानेंगेेेे ।

पहले आइए गुरु महाराज का दर्शन करें।


इस पोस्ट के पहले वाले पोस्ट मोक्ष दर्शन (77-83) को पढ़ने के लिए    यहां दबाएं। 


गुरु निवास और गुरुदेव महर्षि मेंहीं

गुरु भक्ति और साधकों को करने योग्य आवश्यक निर्देश

     प्रभु प्रेमियों  !   संतमत के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इसमें गुरु भक्ति स्वाभाविक है, साधकों को करने योग्य आवश्यक निर्देश, शांति प्राप्ति की प्रेरणा, सभी तरह इष्टों के आत्मस्वरुप कैसा है, नादानुसंधान ( सुरत - शब्द - योग ) की साधना की बातें, साधकों के लिए यम-नियम की आवश्यकता,guru bhakti svaabhaavik hai, saadhakon ko karane yogy aavashyak nirdesh, shaanti praapti kee prerana, sabhee tarah ishton ke aatmasvarup kaisa hai, naadaanusandhaan ( surat - shabd - yog ) kee saadhana kee baaten, saadhakon ke lie yam-niyam kee aavashyakata इत्यादि बातों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि-

मोक्ष दर्शन (83-88) 


( ८३ ) किसी से कोई विद्या सिखनेवाले को सिखलानेवाले से नम्रता से रहने का तथा उनकी प्रेम - सहित कुछ सेवा करने का ख्याल हृदय में स्वाभाविक ही उदय होता है , इसलिए गुरु - भक्ति स्वाभाविक है । गुरु - भक्ति के विरोध में कुछ कहना फजूल है । निःसन्देह अयोग्य गुरु की भक्ति को बुद्धिमान आप त्यागेंगे और दूसरे से भी इसका त्याग कराने की कोशिश करेंगे , यह भी स्वाभाविक ही है ।
 
( ८४ ) सत्संग , सदाचार , गुरु की सेवा और ध्यानाभ्यास ; साधकों को इन चारो चीजों की अत्यन्त आवश्यकता है । संख्या ५३ में सत्संग का वर्णन है । संख्या ६० में वर्णित पंच पापों से बचने को सदाचार कहते हैं । गुरु की सेवा में उनकी आज्ञाओं का मानना मुख्य बात है और ध्यानाभ्यास के बारे में संख्या ५४ , ५५ , ५६ , ५७ और ५ ९ में लिखा जा चुका है । सन्तमत में उपर्युक्त चारो चीजों के ग्रहण करने का अत्यन्त आग्रह है । इन चारो में मुख्यता गुरु - सेवा की है , जिसके सहारे उपर्युक्त बची हुई तीनों चीजें प्राप्त हो जाती हैं । 

( ८५ ) दुःखों से छूटने और परम शान्तिदायक सुख को प्राप्त करने के लिए जीवों के हृदय में स्वाभाविक प्रेरण है । इस प्रेरण के अनुकूल सुख को प्राप्त करा देने में सन्तमत की उपयोगिता है । 

( ८६ ) भिन्न - भिन्न इष्टों के माननेवाले के भिन्न - भिन्न इष्टदेव कहे जाते हैं । इन सब इष्टों के भिन्न - भिन्न नामरूप होने पर भी सबकी आत्मा अभिन्न ही है । भक्त जबतक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप को प्राप्त न कर ले , तबतक उसकी भक्ति पूरी नहीं होती । किसी इष्टदेव के आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेने पर परम प्रभु सर्वेश्वर की प्राप्ति हो जाएगी , इसमें सन्देह नहीं । संख्या ८४ में वर्णित साधनों के द्वारा ही आत्म - स्वरूप की प्राप्ति होगी । प्रत्येक इष्ट के स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण , कैवल्य और शुद्ध आत्मस्वरूप हैं । जो उपासक अपने इष्ट के आत्मस्वरूप का निर्णय नहीं जानता और उसकी प्राप्ति का यत्न नहीं करता ; परन्तु उसके केवल वर्णात्मक नाम और स्थूल रूप में फंसा रहता है , उसकी मुक्ति अर्थात् उसका परम कल्याण नहीं होगा । 

( ८७ ) नादानुसंधान ( सुरत - शब्द - योग ) लड़कपन का खेल 
 नहीं है । इसका पूर्ण अभ्यास यम - नियम - हीन पुरुष से नहीं हो सकता है । स्थूल शरीर में उसके अन्दर के स्थूल कम्पों की ध्वनियाँ भी अवश्य ही हैं । केवल इन्हीं ध्वनियों के ध्यान को पूर्ण नादानुसंधान जानना और इसको ( नादानुसंधान को ) मोक्ष- साधन में अनावश्यक बताना बुद्धिमानी नहीं है , बल्कि ऐसा जानना और ऐसा बताना योग - विषयक ज्ञान की अपने में कमी दरसाना है । यम और नियमहीन पुरुष भी नादानुसंधान में कुशल हो सकता है , ऐसा मानना सन्तवाणी - विरुद्ध है और अयुक्त भी 

( ८८ ) सत्य , अहिंसा , अस्तेय ( चोरी नहीं करना ) , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ( असंग्रह ) को यम कहते हैं । शौच , सन्तोष , तप , स्वाध्याय ( अध्यात्म - शास्त्र का पाठ करना ) और ईश्वर - प्रणिधान ( ईश्वर में चित्त लगाना ) को नियम कहते हैं । इति।।


( मोक्ष-दर्शन में आये किलिष्ट शब्दों की सरलार्थ एवं अन्य शब्दों के शब्दार्थादि की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ + मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें ) 



इस पोस्ट के बाद वाले पोस्ट में मोक्ष-दर्शन के पाराग्राफ  88  से 94 तक को पढ़ने के लिए   👉 यहां दबाएं ।


प्रभु प्रेमियों ! मोक्ष दर्शन के उपर्युक्त पैराग्राफों से हमलोगों ने जाना कि Guru bhakti is natural, necessary instructions to seekers, inspiration to attain peace, how is the self-respect of all the favors, things like the practice of nadanusandhan (Surat - word - yoga), the need of yama-niyam for seekers, इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस पोस्ट के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में उपर्युक्त वचनों का पाठ किया गया है। इसे भी अवश्य देखें, सुनें।
 


महर्षि मेंहीं साहित्य "मोक्ष-दर्शन" का परिचय

मोक्ष-दर्शन
  'मोक्ष-दर्शन' सत्संग-योग चारों भाग  पुस्तक का चौथा भाग ही है. इसके बारे में विशेष रूप से जानने के लिए  👉 यहां दवाएं


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मोक्ष दर्शन, (83-88) गुरु भक्ति और साधकों को करने योग्य आवश्यक निर्देश ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं मोक्ष दर्शन, (83-88)   गुरु भक्ति और साधकों को करने योग्य आवश्यक निर्देश ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं Reviewed by सत्संग ध्यान on 1/29/2019 Rating: 5

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