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मोक्ष दर्शन (88-94) ध्यानाभ्यास का सही तरीका और त्रैकाल संध्या ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस

सत्संग योग भाग 4 (मोक्ष दर्शन) / 11

प्रभु प्रेमियों ! भारतीय साहित्य में वेद, उपनिषद, उत्तर गीता, भागवत गीता, रामायण आदि सदग्रंथों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सदग्रंथों, प्राचीन और आधुनिक संतो के विचारों को संग्रहित करकेे 'सत्संग योग' नामक पुस्तक की रचना हुई है। इसमें सभी पहुंचे हुए संत-महात्माओं के विचारों में एकता है, इसे प्रमाणित किया है और चौथे भाग में इन विचारों के आधार पर और सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की अपनी साधनात्मक अनुभूतियों से जो अनुभव ज्ञान हुआ है, उसके आधार पर मनुष्यों के सभी दुखों से छूटने के उपायों का वर्णन किया गया है। इसे मोक्ष दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। इसमें ध्यान योग से संबंधित बातों को अभिव्यक्त् करने के लिए पाराग्राफ नंंबर दिया गया हैैैै । इन्हीं पैराग्राफों में से  कुुछ पैराग्राफों  के बारे  में  जानेंगेेेे ।


इस पोस्ट के पहले वाले पोस्ट मोक्ष दर्शन (83-88) को पढ़ने के लिए    यहां दबाएं। 

गुरु देव और गुरुदेव का समाधि

ध्यानाभ्यास का सही तरीका और त्रैकाल संध्या

     प्रभु प्रेमियों  ! संतमत के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इसमें यम नियम का सार, दृढ़ आसन से देर तक बैठने का अभ्यास, ध्यानाभ्यास का सही तरीका, त्रैकाल संध्या, नादानुसंधान के लिए गुरु आज्ञा, नादानुसंधान करने की शारीरिक स्थिति, प्राणायाम करने के गुण-दोष, प्रत्याहार की आवश्यकता, yam niyam ka saar, drdh aasan se der tak baithane ka abhyaas, dhyaanaabhyaas ka sahee tareeka, traikaal sandhya, naadaanusandhaan ke lie guru aagya, naadaanusandhaan karane kee shaareerik sthiti, praanaayaam karane ke gun-dosh, pratyaahaar kee aavashyakata इत्यादि बातों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि-


मोक्ष दर्शन (88-94) 


( ८८ ) सत्य , अहिंसा , अस्तेय ( चोरी नहीं करना ) , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ( असंग्रह ) को यम कहते हैं । शौच , सन्तोष , तप , स्वाध्याय ( अध्यात्म - शास्त्र का पाठ करना ) और ईश्वर - प्रणिधान ( ईश्वर में चित्त लगाना ) को नियम कहते हैं । 

( ८९ ) यम और नियम का जो सार है , संख्या ६० में वर्णित पाँच पापों से बचने का और गुरु की सेवा , सत्संग और ध्यानाभ्यास करने का वही सार है । 

( ९० ) मस्तक , गरदन और धड़ को सीधा रखकर किसी आसन से देर तक बैठने का अभ्यास करना अवश्य ही चाहिये । दृढ़ आसन से देर तक बैठे रहने के बिना ध्यानाभ्यास नहीं हो सकता है । 

( ९१ ) आँखों को बन्द करके आँख के भीतर डीम को बिना उलटाये वा उसपर कुछ भी जोर लगाये बिना , ध्यानाभ्यास करना चाहिये ; परन्तु नींद से अवश्य ही बचते रहना चाहिये । 

( ९२ ) ब्रह्ममुहूर्त में ( पिछले पहर रात ) , दिन में स्नान करने के बाद तुरंत और सायंकाल , नित्य नियमित रूप से अवश्य ध्यानाभ्यास करना चाहिए । रात में सोने के समय लेटे - लेटे अभ्यास में मन लगाते हुए सो जाना चाहिये । काम करते समय भी मानस - जप वा मानस ध्यान करते रहना उत्तम है । 

( ९३ ) जबतक नादानुसंधान का अभ्यास करने की गुरु - आज्ञा न हो - केवल मानस जप , मानस - ध्यान और दृष्टि - योग के अभ्यास करने की गुरु - आज्ञा हो , तबतक दो ही बंद ( आँख बन्द और  मुँह बन्द ) लगाना चाहिये । नादानुसंधान करने की गुरु - आज्ञा मिलने पर आँख , कान और मुँह - तीनों बंद लगाना चाहिये । 

( ९४ ) केवल ध्यानाभ्यास से भी प्राण - स्पन्दन ( हिलना ) बंद हो जाएगा , इसके प्रत्यक्ष प्रमाण का चिह्न यह है कि किसी बात को एकचित्त होकर वा ध्यान लगाकर सोचने के समय श्वास - प्रश्वास की गति कम हो जाती है । पूरक , कुम्भक और रेचक करके प्राणायाम करने का फल प्राण - स्पन्दन को बंद करना ही है ; परन्तु यह क्रिया कठिन है । प्राण का स्पन्दन बन्द होने से सुरत का पूर्ण सिमटाव होता है । सिमटाव का फल संख्या ५६ में लिखा जा चुका है । बिना प्राणायाम किये ही ध्यानाभ्यास करना सुगम साधन का अभ्यास करना है । इसके आरम्भ में प्रत्याहार का अभ्यास करना होगा अर्थात् जिस देश में मन लगाना होगा , उससे मन जितनी बार हटेगा , उतनी बार मन को लौटा - लौटाकर उसमें लगाना होगा । इस अभ्यास से स्वाभाविक ही धारणा ( मन का अल्प टिकाव उस देश पर ) होगी । जब धारणा देर तक होगी , वही असली ध्यान होगा और संख्या ६० में वर्णित ध्वनि धारों का ग्रहण ध्यान में होकर अंत में समाधि प्राप्त हो जाएगी । प्रत्याहार और धारणा में मन को दृष्टियोग का सहारा रहेगा । दृष्टियोग का वर्णन संख्या ५९ में हो चुका है ।

( ९५ ) जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में दृष्टि और श्वास चंचल रहते हैं , मन भी चंचल रहता है । सुषुप्ति अवस्था ( गहरी नींद ) में दृष्टि और मन की चंचलता नहीं रहती है , पर श्वास की गति बन्द नहीं होती है । इन स्वाभाविक बातों से जाना जाता है कि जब - जब दृष्टि चंचल है , मन भी चंचल है ; जब दृष्टि में चंचलता नहीं है , तब मन की चंचलता जाती रहती है और श्वास की गति होती रहने पर भी दृष्टि का काम बन्द रहने के समय मन का काम भी बन्द हो जाता है । अतएव यह सिद्ध हो गया कि मन के निरोध के हेतु में दृष्टि - निरोध की विशेष मुख्यता है । मन और दृष्टि , दोनों सूक्ष्म हैं और श्वास स्थूल । इसलिए भी मन पर दृष्टि के प्रभाव का.... । इति।। 

इस पोस्ट के बाद वाले पोस्ट मोक्ष दर्शन (94-104) को  पढ़ने के लिए    यहां दबाएं ।


प्रभु प्रेमियों ! मोक्ष दर्शन के उपर्युक्त पैराग्राफों से हमलोगों ने जाना कि The essence of the Yama Niyam, the practice of sitting for long periods of steadfast posture, the right way of meditation, the Trikala Sandhya, the Guru's command for nadanasandhan, the physical condition of doing nadanasandhan, the virtues of doing pranayama, the need for repatriation, इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस पोस्ट के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में उपर्युक्त वचनों का पाठ किया गया है। इसे भी अवश्य देखें, सुनें।



महर्षि मेंहीं साहित्य "मोक्ष-दर्शन" का परिचय

मोक्ष-दर्शन
  'मोक्ष-दर्शन' सत्संग-योग चारों भाग  पुस्तक का चौथा भाग ही है. इसके बारे में विशेष रूप से जानने के लिए  👉 यहां दवाएं


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मोक्ष दर्शन (88-94) ध्यानाभ्यास का सही तरीका और त्रैकाल संध्या ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस मोक्ष दर्शन (88-94)  ध्यानाभ्यास का सही तरीका और त्रैकाल संध्या  ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/19/2020 Rating: 5

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