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मोक्ष दर्शन (94-104) प्राणायाम करने से अधिक अच्छा है ध्यानाभ्यास करना ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं

सत्संग योग भाग 4 (मोक्ष दर्शन) / 12

प्रभु प्रेमियों ! भारतीय साहित्य में वेद, उपनिषद, उत्तर गीता, भागवत गीता, रामायण आदि सदग्रंथों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सदग्रंथों, प्राचीन और आधुनिक संतो के विचारों को संग्रहित करकेे 'सत्संग योग' नामक पुस्तक की रचना हुई है। इसमें सभी पहुंचे हुए संत-महात्माओं के विचारों में एकता है, इसे प्रमाणित किया है और चौथे भाग में इन विचारों के आधार पर और सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की अपनी साधनात्मक अनुभूतियों से जो अनुभव ज्ञान हुआ है, उसके आधार पर मनुष्यों के सभी दुखों से छूटने के उपायों का वर्णन किया गया है। इसे मोक्ष दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। इसमें ध्यान योग से संबंधित बातों को अभिव्यक्त् करने के लिए पाराग्राफ नंंबर दिया गया हैैैै । इन्हीं पैराग्राफों में से  कुुछ पैराग्राफों  के बारे  में  जानेंगेेेे ।


इस पोस्ट के पहले वाले पोस्ट मोक्ष दर्शन (88-94) को पढ़ने के लिए    यहां दबाएं। 

गुरु महाराज महर्षि मेंहीं बाबा


प्राणायाम करने से अधिक अच्छा है  ध्यानाभ्यास करना 

     प्रभु प्रेमियों  ! संतमत के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इसमें ध्यानाभ्यास से भी प्राण स्पंदन बंद होता है, प्राणायाम में खतरा है, प्राणायाम से दृष्टियोग की विशेषता, दृष्टि के चार भेद हैं, सूरत में मन मिला हुआ है, मन के लाए होने पर सूरत शुद्ध हो जाती है, शुद्ध सूरत परमात्मा में लीन हो कर परमानंद को प्राप्त कर लेता है जीव, साधक को कैसे रहना चाहिए, विघ्नों से बचने के लिए गुरु भक्ति आवश्यक है, dhyaanaabhyaas se bhee praan spandan band hota hai, praanaayaam mein khatara hai, praanaayaam se drshtiyog kee visheshata, drshti ke chaar bhed hain, soorat mein man mila hua hai, man ke lae hone par soorat shuddh ho jaatee hai, shuddh soorat paramaatma mein leen ho kar paramaanand ko praapt kar leta hai jeev, saadhak ko kaise rahana chaahie, vighnon se bachane ke lie guru bhakti aavashyak hai, shuddh saatvik bhojan evan any dhyaan abhyaas se sambandhit baaton,  शुद्ध सात्विक भोजन एवं अन्य ध्यान अभ्यास से संबंधित बातों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि- 

मोक्ष दर्शन (94-104) 


( ९४ ) केवल ध्यानाभ्यास से भी प्राण - स्पन्दन ( हिलना ) बंद हो जाएगा , इसके प्रत्यक्ष प्रमाण का चिह्न यह है कि किसी बात को एकचित्त होकर वा ध्यान लगाकर सोचने के समय श्वास - प्रश्वास की गति कम हो जाती है । पूरक , कुम्भक और रेचक करके प्राणायाम करने का फल प्राण - स्पन्दन को बंद करना ही है ; परन्तु यह क्रिया कठिन है । प्राण का स्पन्दन बन्द होने से सुरत का पूर्ण सिमटाव होता है । सिमटाव का फल संख्या ५६ में लिखा जा चुका है । बिना प्राणायाम किये ही ध्यानाभ्यास करना सुगम साधन का अभ्यास करना है । इसके आरम्भ में प्रत्याहार का अभ्यास करना होगा अर्थात् जिस देश में मन लगाना होगा , उससे मन जितनी बार हटेगा , उतनी बार मन को लौटा - लौटाकर उसमें लगाना होगा । इस अभ्यास से स्वाभाविक ही धारणा ( मन का अल्प टिकाव उस देश पर ) होगी । जब धारणा देर तक होगी , वही असली ध्यान होगा और संख्या ६० में वर्णित ध्वनि धारों का ग्रहण ध्यान में होकर अंत में समाधि प्राप्त हो जाएगी । प्रत्याहार और धारणा में मन को दृष्टियोग का सहारा रहेगा । दृष्टियोग का वर्णन संख्या ५९ में हो चुका है । 

( ९५ ) जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में दृष्टि और श्वास चंचल रहते हैं , मन भी चंचल रहता है । सुषुप्ति अवस्था ( गहरी नींद ) में दृष्टि और मन की चंचलता नहीं रहती है , पर श्वास की गति बन्द नहीं होती है । इन स्वाभाविक बातों से जाना जाता है कि जब - जब दृष्टि चंचल है , मन भी चंचल है ; जब दृष्टि में चंचलता नहीं है , तब मन की चंचलता जाती रहती है और श्वास की गति होती रहने पर भी दृष्टि का काम बन्द रहने के समय मन का काम भी बन्द हो जाता है । अतएव यह सिद्ध हो गया कि मन के निरोध के हेतु में दृष्टि - निरोध की विशेष मुख्यता है । मन और दृष्टि , दोनों सूक्ष्म हैं और श्वास स्थूल । इसलिए भी मन पर दृष्टि के प्रभाव का  श्वास के प्रभाव से अधिक होना अवश्य ही निश्चित है । 

( ९६ ) दृष्टि के चार भेद हैं - जाग्रत की दृष्टि , स्वप्न की दृष्टि , मानस दृष्टि और दिव्य दृष्टि । दृष्टि के पहले तीनों भेदों के निरोध होने से मनोनिरोध होगा और दिव्यदृष्टि खुल जाएगी । दिव्यदृष्टि में भी एकविन्दुता रहने पर मन की विशेष ऊर्ध्वगति होगी और मन सूक्ष्मातिसूक्ष्म नाद को प्राप्त कर उसमें लय हो जाएगा । 

( ९७ ) जब मन लय होगा , तब सुरत को मन का संग छूट जाएगा । मन - विहीन हो , शब्द - धारों से आकर्षित होती हुई निःशब्द में अर्थात् परम प्रभु सर्वेश्वर में पहुँचकर वह भी लय हो जायगी । अन्तर साधन की यहाँ पर इति हो गई । प्रभु मिल गये । काम समाप्त हुआ । 

( ९८ ) साधक को स्वावलम्बी होना चाहिये । अपने पसीने की कमाई से उसे अपना निर्वाह करना चाहिये । थोड़ी - सी वस्तुओं को पाकर ही अपने को संतुष्ट रखने की आदत लगानी उसके लिए परमोचित है । 

( ९९ ) काम , क्रोध , लोभ , मोह अहंकार , चिढ़ , द्वेष आदि मनोविकारों से खूब बचते रहना और दया , शील , सन्तोष , क्षमा , नम्रता आदि मन के उत्तम और सात्त्विक गुणों को धारण करते रहना , साधक के पक्ष में अत्यन्त हित है । 

( १०० ) मांस और मछली का खाना तथा मादक द्रव्यों का सेवन , मन में विशेष चंचलता और मूढ़ता उत्पन्न करते हैं । साधकों को इनसे अवश्य बचना चाहिये । 

( १०१ ) ज्ञान - बिना कर्त्तव्य कर्म का निर्णय नहीं हो सकता । कर्त्तव्यकर्म के निर्णय के बिना अकर्त्तव्य कर्म भी किया जायगा , जिससे अपना परम कल्याण नहीं होगा ; इसलिए ज्ञानोपार्जन अवश्य करना चाहिये , जो विद्याभ्यास और सत्संग से होगा । 

( १०२ ) आत्मा का स्वरूप अनन्त है । अनन्त के बाहर कुछ अवकाश हो , सम्भव नहीं है । अतएव उसका कहीं से आना और उसका कहीं जाना , माना नहीं जा सकता है । क्योंकि दो अनन्त हो नहीं सकते । चेतन - मण्डल सान्त है , उसके बाहर अवकाश है ; इसलिए उसके धार - रूप का होना और उस धार में आने - जाने का गुण होना निश्चित है । अनन्त के अंश पर के प्रकृति के आवरणों का मिट जाना , उस अंश - रूप का मोक्ष कहलाता है । स्थूल शरीर जड़ात्मक प्रकृति से बना एक आवरण है । इसमें चेतन - धार के रहने तक यह स्थित रहता है , नहीं तो मिट जाता है । इस नमूने से यह निश्चित है कि जड़ात्मक प्रकृति के अन्य तीनों आवरण भी मिट जाएँगे , यदि उन तीनों में चेतन - धार वा सुरत न रहे । अन्तर में नादानुसंधान से सुरत जड़ात्मक सब आवरणों से पार हो जाएगी , उनमें नहीं रहेगी और अंत में स्वयं भी आदिनाद के आकर्षण से आकर्षित हो , अपने केन्द्र में केन्द्रित होकर उसमें विलीन हो जाएगी । इस तरह सब आवरणों का मिटना होगा । उस चेतन - धार के कारण एक पिंड बनने योग्य प्रकृति के जितने अंश की स्थिति ( कैवल्य , महाकारण , कारण , सूक्ष्म और स्थूल रूपों में ) सम्भव है , वह मिट जाएगी और उसके मिटने से शुद्धात्मा का जो अंश आवरणहीन हो जायगा , वह मुक्त हुआ कहा जायगा । यद्यपि शुद्ध आत्मतत्त्व सर्वव्यापक होने पर भी मायिक दुःख - सुख का सदा अभोगी ही रहता है , तथापि उसके और चित् ( चेतन ) , अचित् ( जड़ ) के संग से जीवात्मा की स्थिति प्रकट होती है , जिसको उपर्युक्त दुःख - सुख का भोग होता है , वह भोग अशांतिपूर्ण होने के कारण मिटा देने योग्य है । उपुर्यक्त संग के मिटने से ही यह भोग मिटेगा ; क्योंकि वह संग ही इस भोग और उपर्युक्त जीव - रूप इसके भोगी ; दोनों का कारण है । 

( १०३ ) जीवता का उदय हुआ है , इसका नाश भी किया जा सकेगा । इसके नाश से आत्मा की कुछ हानि नहीं । इसके मिटने से आत्मा नहीं मिटेगी । आत्मा का मिटना असम्भव है । क्योंकि अनन्त का मिटना असम्भव है । जब किसी जीवन - काल में ( पूर्ण समाधि में ) जीवता मिटा दी जायगी , तभी जीवन - मुक्त प्राप्त होगी और जीवन - काल के गत होने ( मरने ) पर भी मुक्ति दशा होगी , अन्यथा नहीं । मोक्ष के साधन में लगे हुए अभ्यासी को जीवन - काल में मुक्ति नहीं मिलने पर उस जीवन - काल के अनन्तर फिर मनुष्य - जन्म होगा ; क्योंकि दूसरी योनि उसके मोक्ष - साधन के संस्कार को सँभालने और उसको आगे बढ़ाने के योग्य नहीं है । इस प्रकार मोक्ष - साधक बारम्बार उत्तम - उत्तम मनुष्य - जन्म पाकर अन्त में सदा के लिए मोक्ष प्राप्त कर लेगा । परम प्रभु में सृष्टि की मौज का उदय जहाँ से हुआ , वहाँ उसका फिर लौट आना असम्भव है ; क्योंकि वह मौज रचना करती हुई उसमें जिधर को प्रवाहित है , उधर को काल के अन्त तक प्रवाहित होती हुई तथा रचना करती हुई चली जायगी ; परन्तु अनन्त का न अन्त होगा और न फिर वह मौज वहाँ लौटेगी , जहाँ से उसका प्रवाह हुआ था । इसलिए उस मौज के केन्द्र में जो सुरत केन्द्रित होगी , वह फिर रचना में उतरे , यह सम्भव नहीं और तब यह भी सम्भव नहीं कि उस सुरत वा चेतन - धार के कारण प्रकृति के जिस अंश की स्थिति पहले हुई थी , वह पुनः बने , उसकी स्थिति से आत्मा का जो अंश आवरणित था , वह फिर आवरण - सहित हो और संख्या १०२ में कथित त्रय संग से पूर्व - जीवता का पुनरुदय हो । जिस मुक्ति का इसमें वर्णन हुआ है , वही असली मुक्ति है । उसके अतिरिक्त और प्रकार की मुक्ति केवल कहने मात्र की है , यथार्थ नहीं । 

( १०४ ) सब आवरणों को पार किये बिना न परम प्रभु मिलेंगे और न परम मुक्ति मिलेगी । इसलिए दोनों फलों को प्राप्त करने का एक ही साधन है । ईश्वर - भक्ति का साधन कहो वा मुक्ति का साधन कहो ; दोनों एक ही बात है । 

जिमि थल बिनु जल रहि ना सकाई । कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥ तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई । रहि न सका हरि भगति बिहाई ॥ ( तुलसीकृत रामायण ) । इति।।


( मोक्ष-दर्शन में आये किलिष्ट शब्दों की सरलार्थ एवं अन्य शब्दों के शब्दार्थादि की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ + मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें ) 



इस पोस्ट के बाद वाले पोस्ट में मोक्ष-दर्शन के पाराग्राफ (104  से 106 तक  को पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं ।
  


     प्रभु प्रेमियों ! मोक्ष दर्शन के उपर्युक्त पैराग्राफों से हमलोगों ने जाना कि Meditation also stops life pulsing, there is danger in pranayama, characteristic of vision from pranayama, there are four distinctions of vision, mind is mixed in Surat, Surat becomes pure when the mind is brought, pure Surat is absorbed in God  Tax achieves ecstasy, how the seeker should live, guru devotion is necessary to avoid obstacles, things related to pure satvik food and other meditation practice, इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस पोस्ट के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में उपर्युक्त वचनों का पाठ किया गया है। इसे भी अवश्य देखें, सुनें।



महर्षि मेंहीं साहित्य "मोक्ष-दर्शन" का परिचय

मोक्ष-दर्शन
  'मोक्ष-दर्शन' सत्संग-योग चारों भाग  पुस्तक का चौथा भाग ही है. इसके बारे में विशेष रूप से जानने के लिए  👉 यहां दवाएं


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मोक्ष दर्शन (94-104) प्राणायाम करने से अधिक अच्छा है ध्यानाभ्यास करना ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं मोक्ष दर्शन (94-104)   प्राणायाम करने से अधिक अच्छा है  ध्यानाभ्यास करना  ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं Reviewed by सत्संग ध्यान on 12/29/2020 Rating: 5

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