महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष / म
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष
मेलना - योनि
मेलना ( स ० क्रि ० ) = डालना , रखना ।
मेहर ( फा ० , स्त्री ० ) = कृपा , दया ।
(मैं - तू = द्वैतता , अनेकता , विविधता , अलगाव , सृष्टि के पदार्थों के भिन्न - भित्र होने का भाव । P01 )
(मोटी और बाहरी बातें= कंठी - छाप, तिलक धारण करना , छपी चादर ओढ़ना , सफेद या गैरिक वस्त्र पहनना , दाढ़ी - मूंछ - केश शिखा रखना अथवा मुंडा लेना आदि बातें । P08 )
(मोक्ष = परम मोक्ष , सब शरीरों और संसार से सदा के लिए छूट जाना । P06 )
मोक्ष - साधक ( सं ० , वि ० ) = मोक्ष प्राप्ति की साधना या अभ्यास करनेवाला ।
मोक्ष - साधन ( सं ० , पुं ० ) = मोक्ष प्राप्त करने का उपाय या युक्ति , मोक्ष प्राप्त करने का प्रयत्न ।
(मोरछड़ - मोरछल , मयूर के पंखों का बना चँवर । श्रीचंदवाणी 1क )
मोह ( सं ० , पुं ० ) = भ्रम , अज्ञानता , सांसारिक प्राणि - पदार्थों के प्रति होनेवाला प्रेम या आसक्ति ।
(मोह = अज्ञानता , ममत्व , लालच , आसक्ति । P13 )
(मोही = मोहित करनेवाला । नानक वाणी 53 )
मौज ( अ ० , स्त्री ० ) = संकल्प , इच्छा , लहर , तरंग , कंपन , कंपनयुक्त शब्द , सारशब्द , आदिनाद ।
मौज ( अ ० स्त्री ० ) = तरंग , लहर , उत्साह , उमंग , आनन्द , ईक्षण , संकल्प , शब्द - धार , आदिशब्द, सारशब्द । P07 )
य
यंत्र ( सं ० , पुं ० ) = मशीन , कल , मनुष्य के द्वारा बनायी गयी वह चीज जो प्राणी की तरह काम करे ।
यज्ञ-अग्नि ( सं ० , स्त्री ० ) = द्रव्य - यज्ञ में काम आनेवाली आग ।
(यतः = जिनके। MS01-2 )
यत्न ( सं ० , पुं ० ) = कोशिश , प्रयास , मेहनत ।
यथा ( सं ० ) = जिस प्रकार , जैसे ।
यथार्थ ( सं ० , वि ० ) = वास्तविक , ठीक , उचित , सत्य , जैसा है वैसा ।
यथार्थतः ( सं ० , क्रि ० वि ० ) = यथार्थ रूप से , वास्तविक रूप में , सच्चे रूप में ।
यथोचित ( सं ० , वि ० ) = जैसा उचित है वैसा ।
यद्यपि ( सं ० ) = हालाँकि ।
यम ( सं ० , पुं ० ) = अष्टांग योग का पहला अंग जिसमें सत्य , अहिंसा , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ( असंग्रह ) आते हैं , संयम , अपनी इन्द्रियों को हानिकारक विषयों से हटाकर रखना ।
यात्रा ( सं ० , स्त्री ० ) = चलना , एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना ।
(याद ( फा ० ) = स्मरण स्मृति । P07 )
युक्त ( सं ० , वि ० ) = सहित , जुड़ा = हुआ , सटा हुआ , लगा हुआ ।
युक्ति ( सं ० , स्त्री ० ) = उपाय ।
(युक्ति = विचार । P04 )
युक्तियुक्त ( सं ० , वि ० ) = युक्ति संगत , तर्क - युक्त , तर्क - संगत , विचार के अनुकूल ।
युक्तिवाद ( सं ० , पुं ० ) = वह सिद्धान्त जिसमें उचित विचार को महत्त्व दिया जाता है ।
(युक्त्वाय = योगाभ्यास करके (अपने अन्तर की वे) ।MS01-2 )
(युग - जोड़ा , दोनों । P30 , P03 )
(युग - युगान = युग - युगों तक , युग - युगों से , अनेक युगों से । ( युग चार हैं- सत्ययुग , त्रेता , द्वापर और कलियुग । P09)
युगल ( सं ० , वि ० ) = दोनों , जोड़ा , दो वस्तुओं का समूह ।
{युञ्जानः = योग कर ( इस ) । MS01-1 }
{योग = ईश्वर - प्राप्ति की युक्ति । ( महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है । चित्तवृत्ति का पूर्ण निरोध असली समाधि में होता है । ) P04 }
योग - विषयक ज्ञान ( सं ० , पुं ० ) = वह ज्ञान जो परमात्म - प्राप्ति की युक्ति के विषय से संबंध रखता है ।
योगी जन ( सं ० , पुं ० ) = वह पुरुष जो योग करता हो , वह व्यक्ति जो चित्त की वृत्तियों ( व्यापार , , कार्य ) को युक्ति - विशेष के द्वारा रोकने का प्रयत्न करता हो , वह व्यक्ति जो युक्ति - विशेष के द्वारा आत्मसाक्षात्कार करने का प्रयत्न कर रहा हो ।
योग्य ( सं ० , वि ० ) = लायक , समर्थ , उचित , ठीक , योग्यता रखनेवाला , कोई काम करने की क्षमता रखनेवाला ।
योग्यता ( सं ० , स्त्री ० ) = योग्य होने का भाव , शक्ति , सामर्थ्य ।
योनि ( सं ० , स्त्री ० ) = प्राणी का शरीर ।
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