सत्संग योग भाग 1 / वेद-मंत्र 2
प्रभु प्रेमियों ! संतमत का प्रतिनिधि ग्रंथ सत्संग योग के प्रथम भाग के दूसरे मंत्र का चर्चा यहाँ किया जा रहा है। यह मंत्र "वैदिक विहंगम-योग" से लिया गया है। यह मंत्र और कुछ संत वाणियों के द्वारा यह सिद्ध किया जाएगा कि वेद ज्ञान और संतों के ज्ञान भिन्न नहीं है। इन बातों को समझने के पहले, आइये ग्रंथ रचयिता और संपादक संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का दर्शन करें-
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सद्गुरु महर्षि मेँहीँ |
सत्संग-योग के प्रथम भाग के दूसरे मंत्र की व्याख्या
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग का प्रतिनिधि ग्रंथ सत्संग-योग के पहले मंत्र में बताया गया है कि शांति स्वरूप ईश्वर की प्राप्ति के लिए योग करना चाहिए। इस दूसरे मंत्र में बताया जा रहा है कि योग की युक्ति जानने के लिए सद्गुरु की आवश्यकता होती है। अतः 1. सद्गुरु के लिए क्या करें? 2. सद्गुरु की प्राप्ति कैसे होगी? 3. सद्गुरु कहाँ मिलेंगे? 4. सद्गुरु कैसे होते हैं? इत्यादि बातें। इन बातों को समझने के लिए निम्नलिखित महत्वपूर्ण लेख पढ़े और विडियो देखें, सुनें--
सत्संग-योग, भाग १
वैदिक विहंगम योग मंत्र 2
मंत्र - ओ३म् युक्त्वाय सविता देवान्त्स्वर्य्यतो धिया दिवम् । बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान् ॥
-- य ० अ ० ११ , मं ० ३
शब्दों के भावार्थ-- सविता = हे जगत्-प्रसवकर्त्ता ईश्वर ! आप , तान् = ऐसे, देवान् = विद्वानों को, प्रसुवाति = उत्पन्न करें। यतः = जिनके , धिया = बुद्धियोग अर्थात् जिसके ज्ञान-उपदेश के द्वारा हम। स्वः = सुख-स्वरूप सविता जगत्-प्रसवकर्त्ता ईश्वर को प्राप्त करने के निमित्त। युक्त्वाय = योगाभ्यास करके (अपने अन्तर की वे) । बृहत् = महान्। ज्योतिः = ज्योतियाँ (और वह)। दिवम् = दिव्य गुणयुक्त अनाहत नाद। करिष्यतः = दोनों को प्राप्त करें। ( अन्य शब्दों की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ + मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें )
सारांश- इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान् उपदेश करते हैं कि योगाभ्यास सीखनेवाले मनुष्य सच्चे सद्गुरु के द्वारा ही योग का भेद जानकर अभ्यास-द्वारा अपने अन्तर की महान् ज्योतियाँ और दिव्य गुणयुक्त अनाहत नाद; दोनों प्राप्त करें। और वह सद्गुरु, जिनसे योग का भेद जानना है, उनको प्राप्त करने के निमित्त ईश्वर से इस प्रकार की स्तुति करें।
हे जगत्-प्रसवकर्त्ता ईश्वर ! आप ऐसे विद्वानों को उत्पन्न करें कि जिनसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश पाकर आप सुखस्वरूप परमात्मा में योग करने के लिए अपने अन्तर की ज्योतियों और
दिव्य गुणयुक्त अनाहत नाद, दोनों को हम प्राप्त करें।
संत सद्गुरु के बारे में संतों के क्या विचार है
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के शब्दों में-
प्रभु प्रेमियों ! मोक्ष-दर्शन पाराग्राफ संख्या 81 सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी जी महाराज कहते हैं--
( ८१ ) परम प्रभु सर्वेश्वर को पाने की विद्या के अतिरिक्त जितनी विद्याएँ हैं , उन सबसे उतना लाभ नहीं , जितना की परम प्रभु के मिलने से । परम प्रभु से मिलने की शिक्षा की थोड़ी - सी बात के तुल्य लाभदायक दूसरी - दूसरी शिक्षाओं की अनेकानेक बातें ( लाभदायक ) नहीं हो सकती हैं । इसलिए इस विद्या के सिखलानेवाले से बढ़कर उपकारी दूसरे कोई गुरु नहीं हो सकते और इसीलिए किसी दूसरे गुरु का दर्जा , इनके दर्जे के तुल्य नहीं हो सकता है । केवल आधिभौतिक विद्या के प्रकाण्ड से भी प्रकाण्ड वा अत्यन्त धुरन्धर विद्वान के अन्तर के आवरण टूट गये हों , यह कोई आवश्यक बात नहीं है और न इनके पास कोई ऐसा यंत्र है , जिससे अन्तर का आवरण टूटे वा कटे ; परन्तु सच्चे और पूरे सद्गुरु में ये बातें आवश्यक हैं । सच्चे और पूरे सद्गुरु का अंतर - पट टूटने की सद्युक्ति का किंचित् मात्र भी संकेत संसार की सब विद्याओं से विशेष लाभदायक है ।
गुरु नानकदेवजी महाराज की वाणी में
गुरु नानक देव जी महाराज के वाणी नंबर 31 में है-
गुर की सेवा करि पिरा , जीउ हरि नाम धिआए ।
मंजहु दूरि न जाहि पिरा , जीउ घरि बैठिआ हरि पाए ।
घरि बैठिआ हरि पाए सदा,चितु लाए सहजे सति सुभाए ।
गुर की सेव खरी सुखाली , जिसनो आपि कराए ।
नामो बीजे नामो जंमै , नामो मंनि बसाए ।
नानक सचि नाम बडिआई , पूरबि लिखिआ पाए ।
भावार्थ - हे प्यारे ! गुरु की सेवा करो । हृदय में हरिनाम ( ओंकार ) का ध्यान करो । परमात्मा से उसके साक्षात्कार या प्राप्ति की माँग के लिए कहीं दूर ( बाहर ) मत जाओ । हृदयरूपी घर में ही बैठे हुए युक्ति से हरि को पा सकते हो अथवा जीव संंसार की ओर सेेेे मुड़कर अपने शरीर के ही अंदर हरिि को पा सकता है।। सहज रूप से परमात्मा अच्छा लगेे; सदा उसकी ओर चित्त ( ख्याल ) लगा रहे , तो शरीर के अंदर अवस्थित रहते हुए ही हरि प्राप्त हो जाता है । गुरु की सेवा अच्छी और सुखदायी है । परमात्मा स्वयं जिससे कराना चाहता है , वही गुरु - सेवा करता है । परमात्मा का आदिनाम सृष्टि का बीज है , उसी नाम से सब उत्पन्न होते हैं ; उसी नाम से मन वश ( स्थिर ) होता है । गुरु नानकदेवजी महाराज कहते हैं कि उस सत्नाम की बड़ी महिमा है । पहले का लिखा हुआ ही कोई पाता है अर्थात् प्रारब्ध कर्म के अनुसार ही कोई कुछ पाता है।।
सद्गुरु कबीर साहेब की वाणी में है--
सद्गुरु कबीर साहेब जी की वाणी नंबर 06 में है-
गुरुदेव बिन जीव की कल्पना ना मिटै ,
गुरुदेव बिन जीव का भला नाही ।
गुरुदेव बिन जीव का तिमर नासे नहीं ,
समुझि विचारि ले मने माहीं ॥
राह बारीक गरुदेव तें पाइये ,
जन्म अनेक की अटक खोलै ।
कहै कबीर गुरुदेव पूरन मिले ,
जीव और सीव तब एक तोलैः ।।
पद्यार्थ - गुरुदेव के बिना जीव का दुःख नहीं मिटता है ; गुरुदेव के बिना जीव का भला नहीं होता है और गुरुदेव के बिना अंधकार का नाश नहीं होता है , ( इस विषय को ) मन में समझकर विचार लो ॥ गुरुदेव से सूक्ष्म मार्ग पाइये , ( तो वे पिण्ड में के ) अनेक जन्मों के अटकाव को खोलते हैं । कबीर साहब कहते हैं कि यदि पूरे गुरुदेव मिलें , तो जीव और ब्रह्म की मर्यादा एक हो जाय अर्थात् जीव ब्रह्म - स्वरूप हो जाय । इति।
प्रभु प्रेमियों ! इसी प्रकार अन्य संतों की भी वाणियों में भी ईश्वर प्राप्ति के बारे उपरोक्त बातें वर्णित है । यहाँ लेख विस्तार न हो इसलिए इतना ही दिया गया है।
सत्संग - योग भाग १ में प्रकाशित उपरोक्त मंत्र-
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तीसरा मंत्र है-
मंत्र-ओ३म् प्र हंसासस्तृपला वग्नुमच्छामादस्तं वृषगणा अयासुः । अंगोषिणं पवमानं सखायो दुर्मर्ष वाणं प्रवदन्ति साकम्॥ --सा० उ० अ० ८, मं० २
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सत्संग योग चारों भाग |
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MS01-2 वेद-मंत्र 2 || सद्गुरु की प्राप्ति के लिए क्या करें? What to do to attain Sadguru?
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
7/27/2024
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