प्रभु प्रेमियों ! संतमत का प्रतिनिधि ग्रंथ सत्संग योग के प्रथम भाग के तीसरे मंत्र का चर्चा यहाँ किया जा रहा है। यह मंत्र "वैदिक विहंगम-योग" से लिया गया है। यह मंत्र और कुछ संत वाणियों के द्वारा यह सिद्ध किया जाएगा कि वेद ज्ञान और संतों के ज्ञान भिन्न नहीं है। इन बातों को समझने के पहले, आइये ग्रंथ रचयिता और संपादक संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का दर्शन करें-
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सद्गुरु महर्षि मेँहीँ
सत्संग-योग के प्रथम भाग के तीसरे मंत्र की व्याख्या
प्रभु प्रेमियों ! संतमत सत्संग का प्रतिनिधि ग्रंथ सत्संग-योग के पहले एवं दूसरे मंत्र में बताया गया है कि शांति स्वरूप ईश्वर की प्राप्ति के लिए योग करना चाहिए और योग करने की युक्ति जानने के लिए सद्गुरु की शरण लेना चाहिए। इस तीसरे मंत्र में बताया जा रहा है कि 1. पूरे एवं सच्चे सतगुरु का मार्ग अपनाना चाहिए। 2. सद्गुरु आज्ञानुसार ही चलना चाहिए? 3. गुरु भक्ति अनिवार्य है ईश्वर की प्राप्ति के लिए 4. संत सद्गुरु जिस मार्ग का अनुसरण करके ईश्वर की प्राप्ति किए हैं उसी मार्ग पर चलना चाहिए। दूसरे मार्ग पर चलने वाले ईश्वर प्राप्ति नहीं कर सकते। इत्यादि बातें। इन बातों को समझने के लिए निम्नलिखित महत्वपूर्ण लेख पढ़े और विडियो देखें, सुनें--
सत्संग-योग, भाग १
वैदिक विहंगम योग मंत्र 3
मंत्र-ओ३म् प्र हंसासस्तृपला वग्नुमच्छामादस्तं वृषगणा अयासुः । अंगोषिणं पवमानं सखायो दुर्मर्षष वाणं प्रवदन्ति साकम्॥ --सा० उ० अ० ८, मं० २
शब्दों के भावार्थ-- अंगोषिणं = इस देह में वसनेवाले कान्तिस्वरूप । वाणम् = भोक्ता आत्मा को। प्रवदन्ति = उपदेश करते हैं कि। वृषगणा = उत्तम धर्म-मेघ समाधि के साधक । तृपलाः = सत्त्व, रज और तम; तीनों को पार करके जानेवाले या काम-क्रोधादि पर प्रहार करनेवाले या उनको वश में करनेवाले । हंसासः = नीर-क्षीर के विवेक करनेवाले या सत्यासत्य के विवेक करनेवाले परमहंस । दुर्मर्षम् = न सहन करने योग्य असह्य तेज से युक्त। साकम् = एक साथ वा एकरस से सबमें । पवमानं = व्यापक । वग्नुं = रमणीय अनाहत नाद को। मच्छा = लक्ष्य करके । अमात् = अव्यक्त से। अस्तं = शरण-योग्य सोम को। सखायः = वे समान आख्यानवाले आत्मस्वरूप से युक्त होकर। प्र अयासुः = प्राप्त होवे।( अन्य शब्दों की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ + मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें )
सारांश-इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान् इस देह में वसनेवाले कान्तिस्वरूप आत्मा को उपदेश करते हैं कि हे जीवात्माओ ! जो उत्तम और अचल समाधि के साधक त्रिगुणादिकों को पार करके दूध में मिले हुए जल को हंस के पृथक् पृथक् करने की सामर्थ्य की तरह सत्यासत्य निर्णय करने में समर्थ परमहंस योगी हों, वह अत्यन्त तेज से युक्त, जो सब देहों में एक समान ईश्वर का व्यापक और रमणीय अनाहत नाद है, उसको प्रत्यक्ष करने का लक्ष्य करके, अपने अन्तर में अप्रकट रूप से स्थित सोमरस को योगाभ्यास-द्वारा प्राप्त करते हैं। आप सब भी उनका अनुकरण करें।
"पूरे और सच्चे सद्गुरु को गुरु धारण करने का फल तो अपार है ही ; परन्तु ऐसे गुरु का मिलना अति दुर्लभ है । ज्ञानवान , शुद्धाचारी तथा सुरत - शब्द के अभ्यासी पुरुष को गुरु धारण करने से शिष्य उस गुरु के संग से धीरे - धीरे गुरु के गुणों को लाभ करे , यह सम्भव है ; क्योंकि संग से रंग लगता है और शिष्य के लिए वैसे गुरु की शुभकामना भी शिष्य को कुछ - न - कुछ लाभ अवश्य पहुँचाएगी ; क्योंकि एक का मनोबल दूसरे पर कुछ प्रभाव डाले , यह भी संभव ही है । ज्ञात होता है कि उपर्युक्त संख्या २ की साखी और पारा ७७ में लिखित साखी , जो यह निर्णय कर देती है कि कैसे का शिष्य बनो और कैसे के हाथों में अपने को सौंपो , इसका रहस्य ऊपर कथित शिष्य के पक्ष में दोनों ही बातें लाभदायक हैं । जो केवल सुरत - शब्द का अभ्यास करे ; किन्तु ज्ञान और शुद्धाचरण की परवाह नहीं करे , ऐसे को गुरु धारण करना किसी तरह भला नहीं है । यदि कोई इस बात की परवाह नहीं करके किसी दुराचारी जानकार को ही गुरु धारण कर ले , तो ऊपर कथित गुरु से प्राप्त होने योग्य लाभों से वह वंचित रहेगा और केवल अपने से अपनी सँभाल करना उसके लिए अत्यन्त भीषण काम होगा । इस भीषण काम को कोई विशेष थिर बुद्धिवाला विद्वान कर भी ले , पर सर्वसाधारण के हेतु असम्भव - सा है । ये बातें प्रत्यक्ष हैं कि एक की गरमी दूसरे में समाती है तथा कोई अपने शरीर - बल से दूसरे के शरीर - बल को सहायता देकर और अपने बुद्धि - बल से दूसरे के बुद्धि - बल को सहायता देकर बढ़ा देते हैं , तब यदि कोई अपना पवित्रतापूर्ण तेज दूसरे के अन्दर देकर उसको पवित्र करे और अपने बढ़े हुए ध्यान - बल से किसी दूसरे के ध्यान - बल को जगावे और बढ़ावे , तो इसमें संशय करने का स्थान नहीं है ।"
एक बार कौसाम्बी में विनयधर और धर्म कथिक भिक्षुओं में विनय के एक छोटे से नियम को लेकर झगड़ा होने लगा। बुद्ध ने बहुत कोशिश की कि किसी प्रकार दोनों पक्षों में सुलह कराई जाए पर वे सुलह नहीं करा पाए। अतः उन्होंने उन्हें कुछ और अधिक कहना उचित नहीं समझा। वर्षाकाल बिताने के लिए पारिलेयक वन में रक्खित गुफा में चले गए। वहाँ हस्तीराज पारिलेयक ने उनकी खूब सेवा की।
लड़ाई करते लोग
बुद्ध के वन प्रस्थान के बाद नगरवासियों को पता चला कि बुद्ध वन क्यों गए। अतः उन्होंने भिक्षुओं को दान देना बंद कर दिया। अब भिक्षुओं को अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होंने आपस में सुलह किया। फिर भी उपासकगण उनके प्रति उसी श्रद्धा से पेश नहीं आ रहे थे जैसा वे पहले पेश आते थे। उपासकगण की सोच थी कि इन भिक्षुओं को अपनी गलती स्वीकार कर शास्ता से माफी मांगनी चाहिए। लेकिन बुद्ध तो वन में थे और यह वर्षाकाल का समय था । भिक्षुओं की बड़ी दुर्दशा हुई। वर्षाकाल बड़ा ही कष्टमय बीता।
वर्षाकाल के बाद भन्ते आनन्द उन भिक्षुओं के साथ वन में गए और बुद्ध से विहार लौटने का आग्रह किया । उन्होंने अनाथपिंडिक एवं अन्य उपासकों की प्रार्थना भी सुनाई और बौद्ध विहार वापस चलने की विनती की ।
मृत्यु शय्या पर पड़ा व्यक्ति
बुद्ध तो महा कारूणिक हैं। उन्होंने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और बौद्ध विहार लौट आए। सभी भिक्षु उनके चरणों पर गिर पड़े और अपनी गलती के लिए क्षमा माँगने लगे। बुद्ध ने उन्हें उनकी गलती का एहसास कराया और समझाया कि उन्हें सदैव याद रखना चाहिए कि सबों की मृत्यु एक न एक दिन अवश्य होगी। अतः आपस में कलह करने का कोई औचित्य नहीं है।
गाथाः
परे च न विजानन्ति, मयमेत्थ यमामसे।
ये च तत्थ विजानन्ति ततो सम्मन्ति मेधगा ।।16 ।।
अर्थ:
मूर्ख लोग नहीं समझते कि उन्हें एक-न-एक दिन संसार से जाना ही
होगा। जो इस बात को समझते हैं उनके कलह शांत हो जाते हैं।
हमारे घर में ( सन्त ) संज्जन आए और उन्होंने हमको सत्य ( परमात्मा ) से मेल मिलाप कराया । उन्होंने यह मेल - मिलाप सुगमता से ही कगया । वह सत्य परमात्मा - हरि मन को बहुत अच्छे लगे और पंच नादों के मिलने में मुख प्राप्त हुआ । वही वस्तु प्राप्त होती है , जिसमे मन लगाया जाता है । प्रतिदिन वह मिलाप होता रहता है . इसमें मन मान गया है अर्थात् राजी हो गया है , और घर - मन्दिर सब सुहावने हो गए हैं । अनहद ध्वनि के पांचों शब्द बजते हैं । हमारे घर में मन्त सज्जन आए हैं॥१।। हे मित्र प्यारे ! आओ , उच्च स्वर से मंगल गाओ । सोहिलड़ा राग में सत्य मंगल का गान करो , जिससे चारो युगों में प्रभु को पाओगे । शब्द - साधना से अपना काम बनाकर निज घर में आते हैं , जो स्थान सुहावना लगता है । ज्ञान का महारस आँख का अंजन ( सुरमा ) है , जिसमे त्रिभुवन का रूप देखने में आता है । मित्रो ! मिलो , रस - मंगल गाओ , हमारे घर में सज्जन आए हैं।।२ ।। मेरा मन और शरीर अमृत से भींगे हुए हैं , अन्दर में प्रेम का रल है और परम तत्त्व का विचार भी मेरे अन्दर में रत्न पदार्थ है । हे प्रत्येक को देनेहारे ! सब जीवों और वेशों का तृ सफल दाता है ।। हे अन्तर्यामी ज्ञाता ! तूने अपने आपको सारी सृष्टि का कारण बनाया है । सुनो मित्रो ! मन को मोहित करनेवालों ने मोह लिया है , तन - मन अमृत से भीगा हुआ है ।३ ।। हे संसार के आत्मा राम ! आपका खेल सत्य है । आपका खेल सत्य है , आप अगम अपार हैं , आपके बिना कौन बुझा - समझा सकता है ? सिद्ध - साधक और चतुर कितने हैं ? अर्थात् बहुत हैं । आपकी कृपा के बिना कौन ऐसे कहलाते हैं । अर्थात् आप ही की कृपा से सिद्ध - साधक और चतुर कहलाते हैं ।। भयंकर काल मस्त हो गया है , मैंने अपने मन को गुरु के पास में रखा है । गुरु नानक कहते हैं , मैंने अवगुणों को शब्द में जला दिया है और सद्गुण को धारण करके प्रभु को पाया है ॥४ ॥ इति ॥
प्रभु प्रेमियों ! इसी प्रकार अन्य संतों की भी वाणियों में भी ईश्वर प्राप्ति के बारे उपरोक्त बातें वर्णित है । यहाँ लेख विस्तार न हो इसलिए इतना ही दिया गया है।
सत्संग - योग भाग १ में प्रकाशित उपरोक्त मंत्र
वेद-मंत्र 2
वेद-मंत्र 3
सत्संग - योग भाग १ में प्रकाशित उपरोक्त मंत्र का अंग्रेजी अनुवाद-
अंग्रेजी भाषा में वेद मंत्र 2
अंग्रेजी भाषा में वेद मंत्र 3
चौथा मंत्र है-
मंत्र- ओ३म् स योजत उरुगायस्य जूतिं वृथा क्रीडन्तं मिमिते न गावः। परीणसं कृणुते तिग्म श्रृंगों दिवा हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः॥ - सा० उ० अ० ८, मं० ३
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प्रभु प्रेमियों ! आप लोगों ने उपरोक्त वेद-मंत्रों के माध्यम से जाना कि वेदों में सत्संग, ध्यान, सद्गुरु और ईश्वरप्राप्ति के रास्ते पर चलने के बारे में क्या कहा गया है । इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई प्रश्न है। तो आप हमें कमेंट करें । हम गुरु महाराज के शब्दों में ही उत्तर देने का प्रयास करेंगे आप इस ब्लॉक का सदस्य बने। जिससे आने वाले पोस्टों की सूचना आपको नि:शुल्क सबसे पहले मिलती रहे ।
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MS01-3 वेद-मंत्र 3 || सच्चे सद्गुरु को गुरु धारण करने का फल The result of accepting a true Sadguru as your Guru
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
7/28/2024
Rating: 5
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