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मोक्ष दर्शन (71-77), शब्द अभ्यास करते समय कैसी-कैसी ध्वनियां सुनाई पड़ती है ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं

सत्संग योग भाग 4 (मोक्ष दर्शन) / 08

प्रभु प्रेमियों ! भारतीय साहित्य में वेद, उपनिषद, उत्तर गीता, भागवत गीता, रामायण आदि सदग्रंथों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सदग्रंथों, प्राचीन और आधुनिक संतो के विचारों को संग्रहित करकेे 'सत्संग योग' नामक पुस्तक की रचना हुई है। इसमें सभी पहुंचे हुए संत-महात्माओं के विचारों में एकता है, इसे प्रमाणित किया है और चौथे भाग में इन विचारों के आधार पर और सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की अपनी साधनात्मक अनुभूतियों से जो अनुभव ज्ञान हुआ है, उसके आधार पर मनुष्यों के सभी दुखों से छूटने के उपायों का वर्णन किया गया है। इसे मोक्ष दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। इसमें ध्यान योग से संबंधित बातों को अभिव्यक्त् करने के लिए पाराग्राफ नंंबर दिया गया हैैैै । इन्हीं पैराग्राफों में से  कुुछ पैराग्राफों  के बारे  में  जानेंगेेेे ।

इस पोस्ट के पहले वाले पोस्ट मोक्ष दर्शन (66-71) को पढ़ने के लिए    यहां दबाएं।

संत संग गुरु महाराज

शब्दअभ्यास करते समय कैसी-कैसी ध्वनियां सुनाई पड़ती है

     प्रभु प्रेमियों  ! संतमत के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इसमें शब्द अभ्यास करते समय कैसी-कैसी ध्वनियां सुनाई पड़ती है, इन ध्वनियों के संबंध में संतो के वाणियों में भिन्नता क्यों है, मृदंग , मृदल और मुरली आदि की ध्वनियां सुनाई पड़ती है, स्थूल मण्डल का एक शब्द जितना मीठा और सुरीला होगा , सूक्ष्म मण्डल का वही शब्द उससे विशेष मीठा और सुरीला होगा, सार शब्द किसे कहते है?, क्या है "सार शब्द" और "सतनाम" "पूर्ण परमात्मा",सार शब्द, सार शब्द- ईश्वर की आवाज, पूर्ण मोक्ष साधन,शब्द बिना सुरती आँधरी, सार शब्द - हिंदी में मतलब, saransh lekhan namuna in marathi, shabd abhyaas karate, samay kaisee kaisee dunaya sunaee padatee hai,   in dhvaniyon ke sambandh mein santo ke vaaniyon mein bhinnata kyon hai, mrdang , mrdal aur muralee aadi kee dhvaniyaan sunaee padatee hai, sthool mandal ka ek shabd jitana meetha aur sureela hoga , sookshm mandal ka vahee shabd usase vishesh meetha aur sureela hoga,.   इत्यादि बातों के बारे में बताया है। इन बातों को समझने के लिए पढ़े ं-


मोक्ष दर्शन (71-77) 


( ७१ ) सारशब्द अलौकिक शब्द है । परम अलौकिक से ही इसका उदय है । विश्व - ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड आदि की रचना के पूर्व ही इसका उदय हुआ है । इसलिए वर्णात्मक शब्द , जो पिण्ड के बिना हो नहीं सकता अर्थात् मनुष्य - पिण्ड ही जिसके बनने का कारण है वा यों भी कहा जा सकता है कि लौकिक वस्तु ही जिसके बनने का कारण है , उसमें सारशब्द की नकल हो सके , कदापि सम्भव नहीं है । सारशब्द को जिन सब वर्णात्मक शब्दों के द्वारा जनाया जाता है , उन शब्दों को बोलने से जैसी जैसी आवाजें सुनने में आती हैं , सारशब्द उनमें से किसी की भी तरह सुनने में लगे , यह भी कदापि सम्भव नहीं है । राधास्वामीजी के ये दोहे हैं कि 

"अल्लाहू त्रिकुटी लखा , जाय लखा हा सुन्न । शब्द अनाहू पाइया , भंवर गुफा की धुन्न । हक्क हक्क सतनाम धुन , पाई चढ़ सच खण्ड । सन्त फकर बोली युगल , पद दोउ एक अखण्ड ॥"

 राधास्वामी - मत में त्रिकुटी का शब्द ‘ ओं , ' सुन्न का ' ररं ' भँवर गुफा का ‘ सोह ' और सतलोक अर्थात् सच - खण्ड का ‘ सतनाम ' मानते हैं ; और उपर्युक्त दोहों में राधास्वामीजी बताते हैं कि फकर अर्थात् मुसलमान फकीर त्रिकुटी का शब्द ' अल्लाहू , ' सुन्न का ' हा ' , भँवर गुफा का ' अनाहू ' और सतलोक का ' हक्क ' ' हक्क ' मानते हैं । उपर्युक्त दोहों के अर्थ को समझने पर यह अवश्य जानने में आता है कि सारशब्द की तो बात ही क्या , उसके नीचे के शब्दों की भी ठीक - ठीक नकल मनुष्य की भाषा में हो नहीं सकती । एक सतलोक वा सचखण्ड के शब्द को ' सतनाम ' कहता है और दूसरा उसी को ' हक्क - हक्क ' कहता है , और पहला व्यक्ति दूसरे के कहे को ठीक मानता है , तो उसको यह अवसर नहीं है कि तीसरा जो उसी को ' ओं ' वा राम कहता है , उससे वह कहे कि ' ओं ' और ' राम ' नीचे दर्जे के शब्द हैं , सतलोक के नहीं । अतएव किसी एक वर्णात्मक शब्द को यह कहना कि यही खास शब्द सारशब्द की ठीक - ठीक नकल है , अत्यन्त अयुक्त है और विश्वास करने योग्य नहीं है । 

( ७२ ) बीन , वेणु ( मुरली ) , नफीरी , मृदंग , मर्दल , नगाड़ा , मजीरा , सिंगी , सितार , सारंगी , बादल की गरज और सिंह का गर्जन इत्यादि स्थूल लौकिक शब्दों में से कई - कई शब्दों का , अन्तर के एक - एक स्थान में वर्णन किसी - किसी संतवाणी में पाया जाता है । ये सबमें एक ही तरह वर्णन किये हुए नहीं पाये जाते हैं । जैसे एक संत की वाणी में मुरली का शब्द नीचे के स्थान में वर्णन है , तो दूसरे संत की वाणी में यही शब्द ऊँचे के स्थान में वर्णन किया हुआ मिलता है ; जैसे भंवर गुफा में सोहं राजे , मुरली अधिक बजाया है । ( कबीर - शब्दावली , भाग २ )  ' गगन द्वार दीसै एक तारा । अनहद नाद सुनै झनकारा ॥ ' के नीचे की आठ चौपाइयों के बाद और - ' जैसे मन्दिर दीपक बारा । ऐसे जोति होत उजियारा ॥ ' के ऊपर की तीन चौपाइयों के ऊपर में अर्थात् दीपक - ज्योति के स्थान के प्रथम ही और तारा , बिजली और उससे अधिक - अधिक प्रकाश के और आगे पाँच तत्त्व के रंग के स्थान पर ही यानी आज्ञा - चक्र के प्रकाश - भाग के ऊपर की सीमा में ही वा सहस्रदलकमल की निचली सीमा के पास के स्थान पर ही ' स्याही सुरख सफेदी होई । जरद जाति जंगाली सोई ॥ तल्ली ताल तरंग बखानी । मोहन मुरली बजै सुहानी ॥ ' ( घटरामायण ) ऐसे वर्णन को पढ़कर किसी संतवाणी को भूल वा गलत कहना ठीक नहीं है और इसीलिए यह भी कहना ठीक नहीं है कि सब सन्तों का ' एक मत ' नहीं है तथा और अधिक यह कहना अत्यन्त अनिष्टकर है कि जब सन्तों की वाणियों में इन शब्दों की निसबत इस तरह बे - मेल है , तो सार - शब्द के अतिरिक्त इन मायावी शब्दों का अभ्यास करना ही नहीं चाहिये । वृक्ष के सब विस्तार की स्थिति उसके अंकुर में और अंकुर की स्थिति उसके बीज में अवश्य ही है , इसी तरह स्थूल जगत् के सारे प्रसार की स्थिति सूक्ष्म जगत् में और सूक्ष्म जगत् के सब प्रसार की स्थिति कारण में मानना ही पड़ता है । स्थूल मण्डल की ध्वनियों की स्थिति सूक्ष्म में और सूक्ष्म की कारण में है ; ऐसा विश्वास करना युक्तियुक्त है । अतएव मुरली - ध्वनि वा कोई ध्वनि नीचे के स्थानों में भी और वे ही ध्वनियाँ ऊपर के स्थानों में भी जानी जायँ , असम्भव नहीं है । एक ने एक स्थान के मुरली - नाद का वर्णन किया , तो दूसरे ने उसी स्थान के किसी दूसरे नाद का वर्णन किया , इसमें कुछ भी हर्ज नहीं । शब्द - अभ्यास करके ही दोनों पहुँचे उसी एक स्थान पर , ऐसा मानना कोई हर्ज नहीं । इस तरह समझ लेने पर न किसी सन्त की शब्द - वर्णन - विषयक वाणी गलत कही जा सकती है और न यह कहा जा सकता है कि दोनों का मत पृथक् - पृथक् है और तीसरी बात यह है कि केवल सार - शब्द का ही ध्यान करना और उसके नीचे के मायावी शब्दों का नहीं , बिल्कुल असम्भव है ; क्योंकि यह बात न युक्तियुक्त है और न किसी सन्तवाणी है । नीचे के मायावी शब्दों के अभ्यास - बिना सारशब्द का ग्रहण कदापि नहीं होगा ; इसपर संख्या ६६ में लिखा जा चुका है । 

( ७३ ) मृदंग , मृदल और मुरली आदि की मायिक ध्वनियों में से किसी को अन्तर के किसी एक ही स्थान की निज ध्वनि नहीं मानी जा सकती है । इसलिए उपनिषदों में और दो - एक के अतिरिक्त सब भारती सन्तवाणी में भी अन्तर में मिलनेवाली केवल ध्वनियों के नाम पाये जाते हैं ; परन्तु यह नहीं पाया जाता है कि अन्तर के अमुक स्थान की अमुक अमुक निज ध्वनियाँ हैं और साथ - ही - साथ शब्दातीत पद का वर्णन उन सबमें अवश्य ही है । इस प्रकार के वर्णन को पढ़कर यह कह देना कि वर्णन करनेवाले को नादानुसन्धान ( सुरत - शब्द - योग ) का पूरा पता नहीं था , अयुक्त है और नहीं मानने योग्य है । 

( ७४ ) स्थूल मण्डल का एक शब्द जितना मीठा और सुरीला होगा , सूक्ष्म मण्डल का वही शब्द उससे विशेष मीठा और सुरीला होगा ; इसी तरह कारण और महाकारण मण्डलों में ( जहाँ तक शब्द में विविधता हो सकती है ) उस शब्द की मिठास और सुरीलापन उत्तरोत्तर अधिक होंगे । कैवल्य पद में शब्द की विविधता नहीं मानी जा सकती है । उसमें केवल एक ही निरुपाधिक आदिशब्द मानना युक्तियुक्त है ; क्योंकि कैवल्य में विविधता असम्भव है । 

( ७५ ) शब्दातीत पद का मानना तथा इस पद तक पहुँचने के हेतु वर्णात्मक शब्द का जप , मानस - ध्यान , दृष्टियोग और नादानुसंधान ; इन चारो प्रकार के साधनों का मानना संतवाणियों में मिलता है । अतएव सन्तमत में वर्णित चारो युक्तियुक्त साधनों की विधि अवश्य ही माननी पड़ती है । 

( ७६ ) नादानुसंधान में पूर्णता के बिना परम प्रभु सर्वेश्वर का मिलना वा पूर्ण आत्मज्ञान होना असम्भव है । 

( ७७ ) बिना गुरु - भक्ति के सुरत - शब्द - योग द्वारा परम प्रभु सर्वेश्वर की भक्ति में पूर्ण होकर अपना परम कल्याण बना लेना असम्भव है । "कबीर पूरे गुरु बिना , पूरा शिष्य न होय । गुरु लोभी शिष लालची , दूनी दाझन होय ॥" ( कबीर साहब )

 ( ७८ ) जब कभी पूरे और सच्चे सद्गुरु मिलेंगे , तभी उनके सहारे अपना परम कल्याण बनाने का काम समाप्त होगा । इति।।


( मोक्ष-दर्शन में आये किलिष्ट शब्दों की सरलार्थ एवं अन्य शब्दों के शब्दार्थादि की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ + मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें ) 



इस पोस्ट के बाद वाले पोस्ट में मोक्ष-दर्शन के पाराग्राफ  77  से 83 तक को पढ़ने के लिए   👉  यहां दबाएं ।   


प्रभु प्रेमियों ! मोक्ष दर्शन के उपर्युक्त पैराग्राफों से हमलोगों ने जाना कि What kind of world is heard while practicing the word, why there is a difference in the vocals of saints with respect to these sounds, the sounds of mridang, mridal and mural etc. are heard, the sweeter and melodious one of the words of the gross circle will be,  The same word will be more sweet and melodious than that, इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस पोस्ट के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में उपर्युक्त वचनों का पाठ किया गया है। इसे भी अवश्य देखें, सुनें।




महर्षि मेंहीं साहित्य "मोक्ष-दर्शन" का परिचय

मोक्ष-दर्शन
  'मोक्ष-दर्शन' सत्संग-योग चारों भाग  पुस्तक का चौथा भाग ही है. इसके बारे में विशेष रूप से जानने के लिए  👉 यहां दवाएं


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