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MS02-01 रामचरितमानस में सद्गुगुरु चरणरज के प्रकार और महिमा ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज

रामचरितमानस सार सटीक  /  01

प्रभु प्रेमियों ! भारतीय साहित्य में वेद, उपनिषद, उत्तर गीता, भागवत गीता, रामायण आदि सदग्रंथों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सदग्रंथों में से ध्यान योग से संबंधित बातों को रामायण से संग्रहित करके सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज ने 'रामचरितमानस सार सटीक' नामक पुस्तक की रचना की है। जिसका टीका और व्याख्या भी किया गया है । उन्हीं प्रसंगोों में से आज के प्रसंग में जानेंगे- गुरु महाराज के चरण रज की महिमा और चरण रज के प्रकार तथा चरण रज प्राप्ति के उपाय के बारे में

सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज उद्गार व्यक्त करते हुए।
गुरुदेव और साहित्य

गुरु चरण रज की महिमा

 गुरु महाराज के चरणों में जो रज होता है, वह तीन तरह का होता है। जिसे साधारण लोग, साधक तथा महापुरुष प्राप्त कर सकते हैं। इन रजों को धारण करने के क्या फल हैं, यह भी बताया गया है।  वह रज कैसे प्राप्त होगा? किन को प्राप्त होगा? किस अवस्था में प्राप्त होगा ? इन सारी बातों की पूरी जानकारी दी गई है। जिसेे निम्नलिखित प्रकार से वर्णन कििया गया है-

रामचरितमानस-सार सटीक

 प्रथम सोपान , बालकाण्ड 

सोरठा - बंदउँ गुरु पद-कंज, कृपा - सिन्धु नर-रूप हरि । महामोह तमपुंज, जासु बचन रबि कर निकर ॥१ ॥ 

अर्थ- कृपा के समुद्र , मनुष्य के रूप में ईश्वर , जिनका वचन महामोह - रूप अन्धकार - राशि को ( नाश करने के लिए ) सूर्य की किरणों का समूह है , ऐसे गुरु के चरण - कमल को मैं प्रणाम करता हूँ । 

[ गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज के गुरु का नाम ' तुलसीचरित ' में रामदास लिखा है । गोस्वामीजी के शिष्य महानुभाव महात्मा रघुवर दासजी ने ' तुलसी चरित ' नामी एक बृहत् ग्रन्थ गोस्वामीजी के जीवन - चरित्र के वर्णन में लिखा है । इस ग्रन्थ का विशेष वर्णन , रामचरितमानस की उस प्रति के आदि में किया गया है , जो काशी नागरी प्रचारिणी सभा के पाँच सभासदों द्वारा संगृहीत तथा उक्त सभा के सभापति द्वारा टीकाकृत और इण्डियन प्रेस प्रयाग से १९२२ ई ० में प्रकाशित हुई है । ]

चौपाई - बंदउँ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥१ ॥ 

अर्थ - मैं गुरु महाराज के चरण - कमल की रज को प्रणाम करता हूँ , जो अच्छी रुचि और प्रेम को उत्पन्न करनेवाली , सुगन्धित और सार - सहित है । 

[ चरण - रज में चरणों की चैतन्य वृत्ति गर्मी - रूप से स्वभावत : समाई होती है । यही चैतन्य वृत्ति , चरण - रज में सार है । जो पुरुष जिन गुणोंवाले होते हैं , उनकी चैतन्य वृत्ति और गर्मी उन्हीं गुणों का रूप होती है । भक्तिवान , योगी , ज्ञानी और पवित्रात्मा गुरु की चरण - रज में उनका चैतन्य - रूपी सार भगवद्भक्ति में सुरुचि और प्रेम उत्पन्न करता है और श्रद्धालु गुरु - भक्तों को वह रज सुगन्धित भी जान पड़ती है । चरण - रज तीन तरह की होती है- ( १ ) मिट्टी - रूप , ( २ ) स्वाभाविक आभारूप और ( ३ ) ब्रह्म - ज्योतिरूप । मिट्टीरूप चरण - रज को सर्वसाधारण जानते ही हैं । यह रज स्थूल शरीर के ऊपर लगाने की वस्तु है । प्रत्येक मनुष्य के शरीर के चारों ओर शरीर से निकली हुई नैसर्गिक आभा ( वा ज्योति का मण्डल ) शरीर को घेरे हुए रहती है । यह बात अब आधुनिक विज्ञान से भी छिपी हुई नहीं है । आभायुक्त गुरु - मूर्ति के मानस ध्यान का अभ्यास करने से आभायुक्त गुरु - मूर्ति का दर्शन अभ्यासी श्रद्धालु भक्तों को अन्तर में मिलता है । चौपाई संख्या ५ के अर्थ के नीचे कोष्ठ में वर्णित दृष्टि - योग के द्वारा ' गुरु - चरण नख विन्दु ' से ब्रह्म - ज्योति का प्रकाश होता है । इसलिए इसको भी ' गुरु पद पदुम परागा ' वा ' पद - रज ' कहते हैं । यह रज सूक्ष्म और कारण शरीरों पर लगती है । ]

अमिय मूरि मय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥२ ॥ 
अर्थ- यह रज अमृत - मिश्रित जड़ी का सुन्दर चूर्ण है और सब भव - रोग - परिवार ( जन्म - मरणादि ) को नाश करनेवाली है । 
[  चरण - रज में सार अमृत - रूप है । वह जन्म - मरणादि रोगों को धीरे - धीरे दूर करके सेवन करनेवाले को अमर करता है । ] 

सुकृत संभु तन बिमल बिभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥३ ॥ 
यह रज पुण्यवान शिव - शरीर पर लगी हुई शुद्ध भस्म के तुल्य है , जो सुन्दर है और शुभ तथा आनन्द को उत्पन्न करनेवाली है । जन - मन मंजु मुकुर - मल हरनी । किए तिलक गुन - गन बस करनी ॥४ ॥ यह रज भक्त के सुन्दर मन - रूपी दर्पण की मैल को हरनेवाली है और तिलक करने से यह गुण समूह को वश में कर देती है । 
[ गुरु - चरण - रज - सार के प्रभाव से भक्तों को चौपाई में वर्णित लाभ होते हैं । आभारूप रज ( जिसका वर्णन चौपाई संख्या १ के अर्थ के नीचे कोष्ठ में हुआ है ) मन - रूपी दर्पण की मैल को हरती है और मिट्टी - रूप रज का ललाट पर तिलक लगता है । 

श्री गुरु - पद - नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हिय होती ॥५ ॥ 
श्री गुरु महाराज के चरण - नख में मणियों की ज्योति है , जिसको स्मरण करने से हृदय में दिव्य दृष्टि हो जाती है । 

[ गुरु - चरण - नख का स्मरण वाक्यों को बारम्बार ( मुख से ) रटने से नहीं होता है । गुरु का चरण - नख , रूप है । अन्तर में मनोमय रूप बनाकर उस पर मन को टिकाए रखने से रूप का स्मरण होता है । इसको मानस - ध्यान कहते हैं । मनोमय नख पर यदि दृष्टि - योग ठीक - ठीक बनता है , तो नख में मणियों की ज्योति प्रत्यक्ष झलकती है । इसलिए मानस - ध्यान और दृष्टि - योग के साधन से चौपाई में वर्णित सुमिरण होता है । ] ' सुमिरन सुरत लगाइ कर , मुखतें कछू न बोल । बाहर का पट देइ कर , अन्तर का पट खोल ॥ ' ( कबीर साहब ) यह ( दृष्टि - योग ) साधन अत्यन्त सुगम है । आँखें खोलकर वा बन्द करके डीम और पुतलियों को जोर से उलटाये रखकर भौओं के बीच में वा नाक की नीचेवाली नोक पर टक लगाने में वा बाहर में किसी एक निशाने पर देखने में जो कष्ट और रोग होते हैं , वे इस साधन में नहीं होते । कोई - कोई आँखों को बन्द करके डीम और पुतलियों में कुछ जोर लगाये बिना भौंओं के बीच में केवल ख्याल से देखते रहते हैं , मानो वे भौंओं के बीच के देश का केवल मानस - ध्यान भर करते हैं । यह दृष्टि - योग नहीं है , केवल मानस - ध्यान है । दृष्टि - योग से रेचक , पूरक और कुम्भक प्राणायाम की क्रिया आप - से - आप ही होती जाती है । दृष्टि - योग - साधन से चैतन्य वृत्ति का सिमटाव ( संकोच ) जैसे - जैसे होता जाता है , श्वास - प्रश्वास ( प्राण की स्वाभाविक क्रिया ) वैसे - वैसे आप - से - आप धीमा पड़ता जाता है । दृष्टि - योग - साधक को अनजाने ही प्राणायाम का साधन होता जाता है और जानकर केवल प्राणायाम की क्रिया
करने में जो कष्ट और विघ्न होते हैं , उनसे अभ्यासी बिल्कुल बच जाता है । इसलिए यह कह सकते हैं कि प्राणायाम का साधन दृष्टि - योग के द्वारा अत्यन्त सुगमता से हो जाता है । यह दृष्टि - योग साधन ऐसा उत्कृष्ट है कि श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में केवल एक इसी साधन से भगवान में विराजनेवाली शान्ति की प्राप्ति होनी लिखी है । दोनों नेत्रों से होकर निकलनेवाली चैतन्य धारों को एक विन्दु पर जोड़ने को दृष्टि - योग कहते हैं । इस साधन में डीम और पुतलियों पर किसी प्रकार बल लगाना अनावश्यक है । बल्कि बल लगाने से आँखों में कष्ट होगा , विशेष कष्ट रोग का रूप धारण करेगा और आँखें बिगड़ जाएँगी । श्रीमद्भगवद्गीता में नासाग्र पर दृष्टि रखने की आज्ञा है , पर नाक के ऊपर वा नीचेवाले भाग की ओर डीम और पुतलियों को झुकाकर देखने से दृष्टि - योग ठीक - ठीक होने के बदले आँखों में कष्ट और रोग होते हैं । जबतक दृष्टि की धारें एक विन्दु पर नहीं आएँगी , दृष्टि - योग होगा नहीं । उपर्युक्त रीति से देखने पर नाक के ऊपर का वा नीचे का जो भाग दीख पड़ता है , वह भाग एक विन्दु नहीं है । विन्दु तो वह है , जिसका स्थान है , पर परिमाण ( लम्बाई , चौड़ाई , मोटाई आदि ) नहीं है । बाल की नोक से एक छोटे - से - छोटा चिह्न करने पर भी उसका कुछ - न - कुछ परिमाण हो जाता है । इसलिए अन्दाज से विन्दु नहीं बन सकता है । जिसमें केवल लम्बाई हो , पर चौड़ाई न हो , वह रेखा कहलाती है । यह भी अंदाज से नहीं बन सकती है ; क्योंकि अत्यन्त पतली नोक से भी एक लम्बा चिह्न अंकित करने पर उस ( चिह्न ) में कुछ - न - कुछ चौड़ाई होगी । दो रेखाओं का मिलन एक विन्दु पर होता है । एक विन्दु पर दृष्टि - धारों को रखने की यह एक ही तरकीब है । अब आगे इस भेद को लिखकर खोलने की गुरु - आज्ञा नहीं है । यह भेद सच्चे भेदी गुरु से जाना जाता है और श्रीमद्भगवद्गीता के नासाग्र का ठीक - ठीक पता लग जाता है । ' धरनी निर्मल नासिका , निरखो नैन के कोर । सहजे चन्दा ऊगिहै , भवन होय उजियोर ॥ ' ( प्रान्त - बिहार , छपरा जिलान्तर्गत माँझीवाले महात्मा धरनीदास जी )  चेतन - वृत्ति का सिमटाव धीरे - धीरे एक बड़े परिमाण से दूसरे छोटे परिमाण तक सुगमता से होना सम्भव है । * यह ( सिमटाव ) पहले मानस - ध्यान के द्वारा ख्याल के साथ - साथ चेतन - वृत्ति का होता है । और जब चेतन - वृत्ति और ख्याल के सिमटाव की मात्रा मानस - ध्यान के द्वारा बढ़ते - बढ़ते ' गुरु - पद नख ' तक पहुँच जाती है , तब गुरु से पाए हुए भेद द्वारा मनोमय नख पर दृष्टि - योग के साधन की शक्ति अभ्यासी को होती है । उपर्युक्त क्रम से मानस - ध्यान में सफलता प्राप्त किए बिना दृष्टि - योग में सफलता प्राप्त करने की इच्छा ' भूमि परा चह छुअन अकासा ' की तरह असम्भव है । पढ़न्त और सुनन्त विद्या से जो समझ की शक्ति बढ़ती है , उसको वा जाग्रत अवस्था में बाहरी संसार को देखने की दृष्टि को वा ख्याल की दृष्टि को ( जिसमें मानस ध्यान होता है ) और स्वप्न - अवस्था में देखने की दृष्टि को दिव्य दृष्टि नहीं कहते हैं । इनसे भिन्न , इन सब दृष्टियों और सुषुप्ति ( गहरी नींद ) की बेहोशी से आगे बढ़कर साधना - द्वारा जो दिव्य - दृष्टि ( तुरीय अवस्थावाली ) प्राप्त होती है , उसे दिव्य दृष्टि कहते हैं । उपर्युक्त प्रकार से दृष्टियोग करने से यह खुल जाती है और ब्रह्मज्योति दरसती है । इस दृष्टि के खुले बिना सबसे नीचेवाले मण्डल की भी ब्रह्मज्योति का देखना असम्भव है । ]

* टिप्पणी - भजन - साधन में वृत्ति के इस क्रम से सिमटाव की विधि की श्रीमद्भागवत के स्कन्ध ११ , अध्याय १४ में भगवान श्रीकृष्ण की भी आज्ञा है ; इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाकृष्य तन्मनः । बुद्धया सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ॥४२ ॥ अर्थ - बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींचकर उस मन को बुद्धि - रूपी सारथी की सहायता से सर्वांगयुक्त मुझमें ही लगा दे ॥४२ ॥ 
तत्सर्वव्यापक चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् । नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ॥४३ ॥ अर्थ - सब ओर से फैले हुए चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और अन्य अंगों का चिन्तन न करता हुआ केवल मेरे मुस्कानयुक्त मुख का ही ध्यान करे ॥४३ ॥ तत्र लब्ध पदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् । तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥४४ ॥ अर्थ - मुखारविन्द में चित्त के स्थिर हो जाने पर उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे , तदनन्तर उसको भी त्याग कर मेरे शुद्ध स्वरूप में आरूढ़ हो और कुछ भी चिन्तन न करे ॥४४ ॥ और भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त श्री सूरदासजी महाराज का कथन है नैन नासिका अग्र है , तहाँ ब्रह्म को वास । अविनासी विनसै नहीं , हो सहज ज्योति परकास ॥ ( कल्याण , वेदान्त - अंक , वि ० सं ० १ ९९ ३ , पृ ० ५८५ से उद्धृत )


दलन मोह तम सो सु - प्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥६ ॥ 
वह अच्छा प्रकाश ( जो गुरु - पद - नख के स्मरण से दिव्य दृष्टि खुलने पर दरसता है ) अज्ञान - अन्धकार को नाश करनेवाला है । जिसके हृदय में यह आ जावे , वह बड़ा भाग्यवान है । 

[ केवल पढ़न्त और सुनन्त विद्या - द्वारा ज्ञान प्राप्त करने से अज्ञान - अन्धकार पूर्ण रूप से दूर नहीं होता है । जब अन्तर में दिव्य दृष्टि खुलती और ब्रह्मज्योति दरसती है , तभी तम - मोह दूर होता है । ] 

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥७ ॥ 
( श्री गुरु - पद - नख के सुमिरण से ) हृदय के दोनों निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार - रूपी रात के सब दोष - दुःख मिट जाते हैं । 

[ अन्तर में ब्रह्म - ज्योति देखनेवाली तुरीयावस्था की दृष्टि और विवेक की दृष्टि ( बुद्धि में सारासार की शक्ति यानी विद्या ) , हृदय के दो निर्मल नेत्र हैं । ]

सूझहिं रामचरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥८ ॥ 
( हृदय में निर्मल नेत्रों के खुलते ही ) मणि - माणिक - रूप रामचरित , ( चाहे वे ) जिस खानि के गुप्त वा प्रगट हों , सूझने लगते हैं । 

[ गुप्त चरित - ब्रह्मज्योतिर्मय मणि - माणिक तुरीयावस्थावाली दिव्यदृष्टि से अन्तर की गहरी गुप्त खान में देखे जाते हैं ।पुराणों की प्रकट खान में विविध कथा - रूप रत्न - समूह हैं , जो विद्या की दृष्टि से मालूम पड़ते हैं । ] 

दोहा - जथा सु अंजन आंजि दृग , साधक सिद्ध सुजान । कौतुक देखहिं सैल बन , भूतल भूरि निधान ॥२ ॥ 
( दिव्य दृष्टि से दरसनेवाली गुरु - पद - नख से निकली हुई वह ब्रह्म - ज्योति ) अच्छे अंजन की तरह है , जिसको साधक आँखों में लगाकर ( अष्ट सिद्धि - प्राप्त ) सिद्ध ( पुरुष ) और सुबोध ( ज्ञानी ) हो जाते हैं और बहुत - सी धरतियों में के पहाड़ों और जंगलों का तमाशा देखते हैं । 

[ दृष्टि - योग - साधन में रत रहनेवाले साधक के नेत्रों में उपर्युक्त सुअंजन लगता है । दृष्टियोग - साधन करना , इस सुअंजन के लगाने का यत्न - रूप है । बहुत - सी धरतियों की खान परम विराट रूप माया है , जिसमें अनेकानेक ब्रह्माण्डों की रचनाएँ हैं । ' गूलरि तरु समान तव माया । फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया ' । ( रामचरितमानस ) ' रोम - रोम ब्रह्माण्डमय , देखत तुलसीदास । बिनु देखे कैसे कोऊ , सुनि मानै विस्वास ॥ ' ( तुलसी सतसई ) । उपर्युक्त सुअंजन प्राप्त करनेवाले को अखिल ब्रह्माण्ड दरसते हैं । ] 

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन । नयन अमिय दृग दोष बिभंजन ॥९ ॥ 
श्री गुरु महाराज के पद की धूल कोमल और सुन्दर अंजन है , जो नयनामृत और आँखों के दोषों को दूर करनेवाली है । 

[ चौ ० १ के अर्थ के नीचे कोष्ठ में गुरु - पद - रज , गुरु की चेतन वृत्ति - युक्त सार - सहित और तीन प्रकार की वर्णित हुई है । वहाँ रज की महिमा भी दरसा दी गई है । वर्णित अपनी महिमा के कारण गुरु - पद - रज का नयनामृत और दृग - दोष विभंजक होना सर्वथा सम्भव है । ] 

तेहि करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ रामचरित भव मोचन ॥१० ॥ मैं उसी अंजन को दोनों आँखों में करके ( उन्हें ) निर्मल विवेकवाली बनाकर संसार छुड़ानेवाले रामचरित का वर्णन करता हूँ । [ दृश्यों को आँखों से देखते हुए जब निर्मल सारासार विचार उपजते रहें , तब उन आँखों को निर्मल विवेकवाली कहना चाहिए । चौ ०१ में वर्णित तीनों प्रकार की रजों को लगाने से यह विवेक - विलोचन खुलेगा । ] इति।


प्रभु प्रेमियों ! गुरु महाराज के भारती पुस्तक "रामचरितमानस सार सटीक" के इस लेख का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि   गुरु महाराज के चरण रज की महिमा और चरण रज के प्रकार तथा चरण रज प्राप्ति के उपाय । इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले  पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी।

    

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MS02-01 रामचरितमानस में सद्गुगुरु चरणरज के प्रकार और महिमा ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज MS02-01  रामचरितमानस में सद्गुगुरु चरणरज के प्रकार और महिमा ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/19/2020 Rating: 5

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