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MS02-52 कागभुशुंडि जी का वास स्थान और भजन-साधन ।। कागभुसुंडि गरुड़ संवाद ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं

रामचरितमानस सार सटीक / 52

प्रभु प्रेमियों ! भारतीय साहित्य में वेद, उपनिषद, उत्तर गीता, भागवत गीता, रामायण आदि सदग्रंथों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सदग्रंथों में से ध्यान योग से संबंधित बातों को रामायण से संग्रहित करके सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज ने 'रामचरितमानस सार सटीक' नामक पुस्तक की रचना की है। जिसका टीका और व्याख्या भी किया गया है । 

     उन्हीं प्रसंगोों  में से आज के प्रसंग में जानेंगे-कागभुसुंडि गरुड़ संवाद के क्रम में भुशुंडि जी द्वारा अपने निवास स्थान और उसकी महिमा का वर्णन । काग भूसुंडी जी के निवास स्थान के बारे में चर्चा है कि वहां माया का प्रभाव नहीं है । वह स्थान कहां है?   इसके साथ ही आप निम्न बातों पर भी कुछ-न-कुछ जानकारी प्राप्त कर सकते हैं; जैसे कि महर्षि मेंही कृत रामचरितमानस सार सटीक, रामायण मे कागभुसुंडि गरुर संबाद वर्णन, कौन है काकभुशुंडी जानिये उनका रहस्य, Kakbhushundi ki Katha, Uttarakhand Hills Religious Point of View, RamcharitManas उत्तरकाण्ड, कागभुसुंडि गरुड़ संवाद, कागभुसुंडि गरुड़ संवाद रामचरितमानस, काकभुशुण्डि lake, काकभुशुण्डि रामायण pdf download, भुसुंडी रामायण,कागभुसुंडि रामायण इन हिंदी, कागभुसुंडि की कथा, काकभुशुण्डि ताल, इन बातों को जानने केे पहले आइए सन्त-महात्माओंं का दर्शन करेंं-

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सुमेरु पर्वत के ब्याख्याता
सुमेरु पर्वत के व्याख्याता

भुशुंडि जी का निवास स्थान 

कागभुसुंडि जी महाराज और गरुड़ का जो संबाद हुआ है? वह स्थान दुनिया में कहां है और इसमें रहस्यमई बात क्या है? जहां माया का प्रवेश नहीं होता है । इस प्रसंग को पूरी अच्छी तरह पढ़ें- 

रामचरितमानस सार सटीक पृष्ठ 248 से 255 तक

     हे नाथ ! ऐसी भक्ति काग ने कैसे पाई ? कृपा कर मुझे बुझाकर कहिए । और हे नाथ ! इन प्रश्नों के भी उत्तर कहिए ( १ ) कागभुशुण्डिजी के ऐसे भक्त ने काग - देह कैसे पाई ? ( २ ) आपने यह कथा कागभुशुण्डि से कैसे सुनी ? ( ३ ) गरुड़ ने सब मुनियों को छोड़ किस कारण काग से कथा सुनी ? ( ४ ) काग और गरुड़ ; दानों हरि - भक्तों का संवाद कैसे हुआ ? ( ५ ) रामचरित कथा को काग ने कहाँ पाया ? पार्वतीजी के प्रश्नों को सुनकर शिवजी सुख पाकर कहने लगे-

     हे पार्वती ! जब तुमने अपना सती नाम वाला पहला शरीर क्रोध करके दक्ष के यज्ञ में छोड़ दिया , तब मैं तुम्हारे वियोग से दुःखी होकर पहाड़ों और जंगलों में फिरने लगा । 

गिरि सुमेरु उत्तर दिसि दूरी । नील सैल एक सुन्दर भूरी ॥६९७ ॥ 

     सुमेरु पर्वत से दूर उत्तर दिशा में एक बड़ा ही सुन्दर नील पर्वत है । 

तासु कनक मय सिखर सुहाये । चारि चारु मोरे मन भाये ॥६९८ ॥ 

     उसकी स्वर्णमयी सुहावनी चार चोटियाँ हैं , वे मेरे मन को अच्छी लगीं । 

तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला । बट पीपर पाकड़ी रसाला ॥६९९ ॥

     उन चोटियों पर बड़ , पीपल , पाकड़ और आम का एक - एक विशाल वृक्ष है ।

सैलोपरि सर सुन्दर सोहा । मनि सोपान देखि मन मोहा ॥७०० ॥ 

     पहाड़ के ऊपर सुन्दर तालाब शोभित है , उसकी मणि की सीढ़ियाँ हैं , उसे देखकर मन मोहित हो जाता है ।

 दोहा - सीतल अमल मधुर जल , जलज बिपुल बहु रंग । कूजत कलरव हंस गन , गुंजत मंजुल भंग ॥१०५ ॥ 

     उस ( तालाब ) का जल शीतल , स्वच्छ और मीठा है , उसमें बहुत रंग के असंख्य कमल हैं । वहाँ हंसों के समुदाय मीठी बोली बोलते और सुन्दर भौरे गुंजार करते हैं । 

तेहि गिरि रुचिर बसइ खग सोई । तासु नास कल्पान्त न होई ॥७०१ ॥ 

     उस सुन्दर पर्वत पर वही पक्षी ( कागभुशुण्डि ) रहता है , उसका नाश कल्प के अन्त में भी नहीं होता है । 

माया कृत गुन दोष अनेका । मोह मनोज आदि अबिबेका ॥७०२ ॥ 

रहे ब्यापि समस्त जग माहीं । तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं ॥७०३ ॥ 

     माया - रचित मोह , काम और अज्ञान आदि अनेक दोष - गुण अर्थात् दोष - युक्त लक्षण सम्पूर्ण संसार में व्याप्त हो रहे हैं , परन्तु उस पर्वत के समीप कभी नहीं जाते हैं । 

तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा । सो सुनु उमा सहित अनुरागा ॥७०४ ॥ 

     हे पार्वती ! वहाँ बस करके कागभुशुण्डि हरि को जिस प्रकार भजता है , वह प्रेम से सुनो ।

 पीपर तरु तर ध्यान सो धरई । जाप यज्ञ पाकरि तर करई ॥७०५ ॥ 

     वह पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान धरता है और पाकड़ वृक्ष के नीचे जप - यज्ञ ( जप - रूपी यज्ञ ) करता है । [ जाप यज्ञ - एक चित्त से नाम - भजन करने को जप - यज्ञ कहते हैं । गीता - रहस्य , गीता - अनुवाद और टिप्पणी अध्याय १०, श्लोक २५ अर्थ और टिप्पणी पढ़कर देखिए । यहाँ पर यज्ञ को अग्नि , घृत , तिल और यव आदि सामग्री से युक्त यज्ञ समझना नितान्त भूल है । क्योंकि पक्षी के लिए इन द्रव्यों का संग्रह करना असम्भव है । यदि कहा जाय कि बहुत - से नर राजा उनके भक्त थे , जो उन द्रव्यों को जुटा देते थे , तो ऐसा वर्णन नहीं है । बल्कि यह वर्णन है कि कागभुशुण्डि के पास केवल पक्षीगण ही कथा सुनने आते थे । महादेवजी भी हंस पक्षी का शरीर धरकर ही उनके पास कथा सुनने को गए थे । यदि मनुष्यगण उनके भक्त होते और कथा सुनने को उनके पास जाते होते तो गो ० तुलसीदासजी इसका वर्णन कर देते । ] 

आम छाँह कर मानस पूजा । तजि हरि भजन काज नहिँ दूजा ॥७०६ ॥ 

     आम की छाया में मानसी पूजा करता है , उसको भगवान का भजन छोड़कर दूसरा काम नहीं है । 

बटतर कह हरिकथा प्रसंगा । आवहिँ सुनहिं अनेक बिहंगा ॥७०७ ॥ 

     जब वह बड़ के नीचे हरि - कथा कहता है , उस समय अनेकों पक्षी आते और सुनते हैं । [ कागभुशुण्डिजी से सम्बन्ध रखनेवाली वार्ता , जो चौ ० सं ०६ ९ ७ से ७०७ तक वर्णित है , बड़ी ही रहस्यमयी जान पड़ती है । पहले तो चार कनकमय शिखरोंवाले नील पर्वत के इस भूमण्डल पर होने का पता भूमण्डल की भूगोल - पुस्तक में नहीं है । दूसरी बात यह ( जो चौ ० सं ० ७०२-७०३ में है ) कि माया - कृत अज्ञान , काम और अविवेकादि दोष - लक्षण उस नील पर्वत के ऊपर तो क्या , उसके पास तक नहीं फटकने पाते हैं , असम्भव - सी है । क्योंकि समस्त बाहरी संसार में ऐसा कोई भी स्थान देखा नहीं गया है , जहाँ प्राणी को अज्ञान , काम और अविवेकादि दोष - लक्षण न हों । तीसरी बात यह कि ऊपर कहे दो कारणों से जब यह नीलगिरि ही रहस्यमय जान पड़ता है , तब उस पर के मणिमय सोपानवाला सरोवर , उस पर के विहंग ; उन विहंगों के कलरव , उनकी चारों कनकमयी चोटियों पर के चार वृक्ष , वह सुमेरु , जिसके उत्तर में यह नीलगिरि है , उसकी उत्तर दिशा ; ये सभी अवश्य ही रहस्यमय होंगे । चौथी बात यह कि कागभुशुण्डि एक शिखर पर पीपल वृक्ष के नीचे ध्यान करते हैं , दूसरे शिखर पर आम के नीचे मानस - पूजा करते हैं । इससे प्रकट होता है कि मानस - पूजा और ध्यान पृथक् - पृथक् दो साधन हैं । यथार्थ यह है कि - मेरुदण्ड के अन्तर में सीधी खड़ी रेखा - रूप धार है , उसे ही सुमेरु गिरि कहा गया है । इससे अवलम्बित इसके नीचे से ऊपर तक पिण्ड में गुदा - स्थान से कण्ठ तक पाँच चक्र हैं ; जिनके नाम - मूलाधार , स्वाधिष्ठान , मणिपूरक , अनाहत ( हृदय ) और विशुद्ध ( कण्ठ ) हैं । ऊपर ( सूक्ष्मता ) की ओर को उत्तर दिशा कहा गया है । वर्णित समेरु गिरि से उत्तर अर्थात् ऊपर तम - रूप नीलगिरि है । भक्ति - योग - अभ्यासी अपने अन्तर में इस ( तम - रूप नीलगिरि ) को प्रथम ही पाता है । आज्ञाचक्र नाम का छठा चक्र इसी में विराजित है । बाहरी विषयों से मुड़ी हुई चैतन्य वृत्ति ( सुरत ) वाला इस पहाड़ पर ठहरा रहता है । उसको अज्ञान , काम और अविवेक आदि दोष - लक्षण नहीं छूते हैं । इसीलिए वर्णन किया गया है कि इस पहाड़ के पास ये दोष - लक्षण नहीं जाते हैं । वेद , शास्त्र , पुराण और सत्संग से प्राप्त अति बृहत् वार्ता विशाल वट वृक्ष हैं । सुबुद्धि प्रकाश - रूप है । कथित नील पर्वत की कनकमय ( चमकीली , प्रकाशमयी ) एक चोटी यही है । रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द आदि बाहरी विषयों से अपनी सुरत वा चैतन्य वृत्तियों को मोड़कर , सुबुद्धि पर स्थिर होकर ( अर्थात् एक कनकमय शिखर पर बैठकर ) कथित विशाल वट वृक्ष के नीचे वा उसके आश्रित रहकर कागभुशुण्डिजी कथा कहते थे । उच्च ज्ञान - वर्द्धक परम आस्तिक बुद्धि ही प्रकाश है । नीलगिरि के जिस भाग पर ठहरकर कागभुशुण्डिजी जप - यज्ञ करते हैं , वह भाग परम आस्तिक बुद्धि - रूप होने के कारण ऊँचा ( शिखर ) और प्रकाशमय वा चमकीला वा कनकमय है । नीलगिरि का यही दूसरा शिखर हुआ ।

     गुरु - भेद विशाल पाकरि ( पाकर ) वृक्ष - रूप है । इसी की छाया में वा इसके आश्रित होकर कागभुशुण्डिजी जप - यज्ञ करते हैं । सर्वेश्वर के सगुण रूप के प्रति अत्यन्त प्रेम ही अति उच्च प्रकाशमय वा चमकीला वा कनकमय स्थान है । नीलगिरि के जिस भाग पर टिककर कागभुशुण्डिजी मानस - पूजा करते हैं , वह यही कनकमय शिखर है । यह नीलगिरि का तीसरा शिखर हुआ । एक और अत्यन्त दृढ़ आशा - रूप विशाल आम का वृक्ष इस शिखर पर लगा है । इसी की छाया में वा इनके आश्रित रहकर कागभुशुण्डि मानस - पूजा करते हैं । नील पर्वत के वर्णित शिखरों में ऊँचा और सर्वश्रेष्ठ चौथा शिखर चर सीमा से , मुक्त दृष्टि ( दिव्य दृष्टि ) से दर्शित प्रत्यक्ष ज्योति - स्वरूप वा प्रत्यक्ष चमकीला वा कनकमय है । सद्गुरु की कृपा विशाल पीपल वृक्ष है । वर्णित कनकमय चौथे शिखर पर यह वृक्ष विराजित है । इसी की छाया में वा इसके आश्रित होकर कागभुशुण्डि ध्यान करते हैं । 

     अब मानस - पूजा और ध्यान के विषय में समझना रह गया है । मनोमय देव की रचना करके अर्थात् मन से मन तत्त्व की ही इष्टदेव की मूर्ति बनाकर और पूजा की सब सामग्रियाँ मनोमय ही रचकर मनोनय इष्ट का पूजन करना मानस - पूजा कहलाती है । चौ ० सं ०५ के नीचे कोष्ठ में वर्णित मानस पूजा और मानस ध्यान एक ही बात है । मन से एक ही ध्येय वस्तु के चिन्तन करते रहने को ध्यान कहते हैं । बहुत लोग मानस पूजा ही को ध्यान कहते हैं । इसके अतिरिक्त इससे निराले किसी साधन को ध्यान नहीं समझते हैं । परन्तु रामचरितमानस की चौ ० सं ० ७०५ और ७०६ में जैसा वर्णन है , उससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ध्यान और मानस पूजा , दो भिन्न - भिन्न साधन हैं । यदि मानस पूजा को मानस ध्यान कहा जाय , तो कुछ अनुचित न होगा । परन्तु मानस ध्यान वा मानस पूजा में मनोमय देव के अनेक अंग - प्रत्यंगों की तथा पूजा की अनेक सामग्रियों की रचना और चिन्तन में लगा रहकर केवल एक ही ध्येय तत्त्व पर ठहराकर केवल उसी का चिन्तन नहीं किया जा सकता । इसीलिए मानस पूजा के साधन से जब कि केवल एक ही ध्येय तत्त्व का चिन्तन नहीं हो सकता , तब इसको

ध्यान नहीं कहा जा सकता है और न वह साधन ध्यान का साधन हो सकता है , जिससे मानस पूजा होती है । अतएव ध्यान का साधन मानस पूजा के साधन से नितान्त भिन्न ही होना चाहिए । मनुस्मृति अ ० १२ , श्लोक १२२ में जो परमात्मा के शुद्ध स्वर्ण समान कान्तिमान , अणु से भी अणु स्वरूप के ध्यान करने की आज्ञा है , ' प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि । रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम् ॥ ' यथार्थ में परमात्मा के इसी रूप का चिन्तन - ध्यान करना है । इसके साधन का वर्णन चौ ० सं ० २ ९ २ से २ ९ ४ तक में है । इसलिए इन चौपाइयों , उनके अर्थों और तत्सम्बन्धी कोष्ठों के वर्णनों को पढ़कर समझिए । अब एक विषय समझने को बच रहा है कि चौ ० सं ७०० में वर्णित सरोवर उसके मणिमय सोपान , उसमें भौंरों का गुंजार और हंसों का कलरव क्या है ? यथार्थ यह है कि सहस्रदल कमल सरोवर है । प्रणव - विन्दु मणिमय सोपान है । सहस्रदल कमल में विराजित ज्योति उस सरोवर का शीतल , पवित्र और मीठा जल है । लाल , हरा , पीला , नीला और सफेद रंग के पाँच मण्डल - विद्युत- मण्डल , दीप - शिखावत् ज्योति - मण्डल , नक्षत्र - मण्डल और चन्द्र- ज्योति - मण्डल आदि अनेक ज्योति - मण्डल उस तालाब के विपुल बहुरंग जलज हैं । मीठी - मीठी अनहद ध्वनियाँ हंसों के कलरव और भौंरों की गूंज हैं । ]

      शिवजी बोले कि हे पार्वती ! मैंने हंस - देह धर कुछ समय तक कागभुशुण्डि के आश्रम में रहकर रामचरितमानस की कथा सुनी थी , जिसका वर्णन मैं तुमसे कर चुका । अब आगे की कथा सुनो कि जिस कारण गरुड्जी मुनियों को छोड़ कागभुशुण्डिजी के पास गए थे - जब रामजी ने युद्ध - लीला में अपने को मेघनाद के वाण से नाग - फाँस में बँधवाया , तब गरुड़ ने आकर उनको नाग - फाँस से मुक्त किया । इस बात से गरुड़ को मोह उत्पन्न हुआ कि एक छोटे - से निशाचर ने रामजी को बाँध लिया । इससे रामजी के भगवान का अवतार होने में मन को सन्देह होता है । क्योंकि भगवान का प्रभाव इस तरह कुछ देखने में नहीं आया । गरुड़ ने अपना मोह नारदजी से कहा । नारदजी ने उसे ब्रह्माजी के पास और उन्होंने मेरे पास भेज दिया । मैंने उसे कागभुशुण्डि के पास भेज दिया । गरुड़ ने कागभुशुण्डि के समीप जा उनसे रामजी की कथा सुनने की इच्छा की । कागभुशुण्डि ने पहले रामचरितमानस का वर्णन किया । फिर नारद - मोह , रावण का जन्म , प्रभु ( श्रीराम ) का अवतार , उनका बाल - चरित्र , विवाह , वनवास , सीता - हरण , रावण आदि निशाचरों का नाश , रामजी का अवध लौट आकर राज्य करना इत्यादि सब कथाओं को कह सुनाया । सम्पूर्ण कथा सुनने के बाद गरुड़जी बोले कि हे कागभुशुण्डिजी ! आपकी कृपा से मेरा मोह दूर हो गया और मुझे बड़ा सुख हुआ । 

जो अति आतप ब्याकुल होई । तरु छाया सुख जानइ सोई ॥७०८ ॥ 

     जो धूप से अत्यन्त व्याकुल रहता है , वृक्ष की छाया का सुख वही जानता है । 

निगमागम पुरान मत एहा । कहहिँ सिद्ध मुनि नहिँ सन्देहा ॥७०९ ॥ 

     वेद , शास्त्र और पुराणों का यह विचार है और सिद्ध मुनि भी यही कहते हैं - इसमें सन्देह नहिं कि 

सन्त बिसुद्ध मिलहिँ पर तेही । चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥७१० ॥ 

     सच्चे संत उसे ही मिलते हैं , जिसे श्रीरामजी कृपा करके देखते हैं । कागभुशुण्डि गरुड़ के इन मृदुल वचनों को सुनकर अत्यन्त प्रफुल्लित हुए ; क्योंकि 

दोहा - श्रोता सुमति सुसील सुचि , कथा रसिक हरिदास । पाइ उमा अति गोप्यमपि , सज्जन करहिं प्रकास ॥१०६ ॥ 

     हे उमा ! सज्जन लोग सुबुद्धिमान , सुशील , पवित्र , कथा के प्रेमी और हरिभक्त श्रोता को पाकर अत्यन्त छिपा रखने योग्य बातों को भी प्रकाशित कर देते हैं । .....


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