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MS01-04 सत्संग किसे कहते हैं ।। सत्संग के बारे में 'सत्संग योग चारों भाग' में वर्णित विस्तार सहित चर्चा

सत्संग योग भाग 1 / 04 सत्संग किसे कहते हैं? 

प्रभु प्रेमियों ! सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज 'सत्संग योग' की भूमिका में लिखते हैं-  "सत्पुरुषों - सज्जन पुरुषों - साधु - सन्तों के संग का नाम ' सत्संग ' है । इनके संग में इनकी वाणियों की ही मुख्यता होती है । ‘ सत्संग - योग ' के तीन भागों में इन्हीं वाणियों का समागम है ।"  यहां हमलोग इन्हीं संकलित वाणियों में से सत्संग संबंधी कुछ वाणियों का चर्चा करेंगेेेे,  जिससे सत्संग के संपूर्ण अंगों का बोध होगाा ? इन बातों को समझने के पहले आइए गुरुुुुु महाराज का दर्शन करें।

सत्संग ध्यान से संबंधित 'सत्संग योग' के पहले भाग में उद्धृत उपनिषद मंत्रों से संबंधित वाणियों को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं।

भक्तों के साथ सत्संग करते गुरुदेव महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज
भक्तों के साथ सत्संग करते गुरुदेव

सत्संग के बारे में 'सत्संग योग चारों भाग' में वर्णन

प्रभु प्रेमियों ! हम लोग सत्संग के बारे में जानना चाहते हैं। समझना चाहते हैं, कि सत्संग क्या है? सत्संग किसे कहते हैं? सत्संग का क्या स्वरूप है? सत्संग के क्या फायदे हैं? सत्संग करने से क्या नुकसान है? आदि बातों को तो  निम्नलिखित बातों को ध्यान से पढ़ें-

सत्संग योग के चतुर्थ भाग में पाराग्राफ चार में लिखा है कि

( ४ ) शान्ति प्राप्त करने का प्रेरण मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है । प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी प्रेरण से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया । इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरु नानक साहब आदि सन्तों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्व - साधारण के उपकारार्थ वर्णन किया ; इन विचारों को ही सन्तमत कहते हैं ; परन्तु सन्तमत की मूल भित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं । क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन - नादानुसन्धान अर्थात् सुरत - शब्द - योग का गौरव सन्तमत को है , वे तो अति प्राचीन काल के इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं । सत्संग - योग के प्रथम , द्वितीय और तृतीय ; इन तीनों भागों को पढ़ लेने पर इस उक्ति में संशय रह जाय , सम्भव नहीं है । भिन्न - भिन्न काल तथा देशों में सन्तों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न - भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा सन्तमत के भिन्न - भिन्न नामकरण होने के कारण संतों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है ; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पन्थाई भावों को हटाकर विचारा जाय और सन्तों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाय , तो यही सिद्ध होगा कि सब सन्तों का एक ही मत है । सब सन्तों का अन्तिम पद वही है , जो पारा - संख्या ११ में वर्णित है और उस पद तक पहुँचने के लिए पारा संख्या ५९ तथा ६१ में वर्णित सब विधियाँ उनकी वाणियों में पायी जाती हैं । सन्तों के उपास्य देवों में जो पृथक्त्व है , उसको पारा - संख्या ८६ में वर्णित विचारानुसार समझ लेने पर यह पृथक्त्व भी मिट जाता है । पारा - संख्या ११ में वर्णित पद का ज्ञान तथा उसकी प्राप्ति के लिए नादानुसन्धान ( सुरत - शब्द - योग ) की पूर्ण विधि जिस मत में नहीं है , वह सन्तमत कहकर मानने योग्य नहीं है । क्योंकि सन्तमत के विशेष तथा निज चिह्न ये ही दोनों हैं । नादानुसन्धान को नाम - भजन भी कहा जाता है ( पारा - संख्या ३५ में पढ़िये ) । किसी सन्त की वाणी में जब नाम को अकथ वा अगोचर वा निर्गुण कहा जाता है , तब उस नाम को ध्वन्यात्मक सारशब्द ही मानना पड़ता है ; यथा अदृष्ट अगोचर नाम अपारा । अति रस मीठा नाम पियारा ॥ ( गुरु नानक ) बंदउँ राम नाम रघुवर को । हेतु कृसानु - भानु - हिमकर को ॥ विधि हरिहर मय वेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ॥ नाम रूप दुइ ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥ ( गोस्वामी तुलसीदास ) सन्तो सुमिरहु निर्गुन अजर नाम । ( दरिया साहब , बिहारी ) जाके लगी अनहद तान हो , निर्वाण निर्गुण नाम की । ( जगजीवन साहब )

संत कबीर साहब की बानी को ध्यान से सुनते हुए सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज


सत्संग योग भाग 2 में संतकबीर साहब की वाणी में आया है-

।। सत्संग को अंग ॥ 

संगति सों सुख ऊपजै , कुसंगति सों दुख जोय । कहै कबीर तहँ जाइये , साधु संग जहँ होय ॥१ ॥ कबीर संगति साध की , हरै और की व्याधि । संगति बुरी असाध की , आठो पहर उपाधि ॥२ ॥ कबीर संगति साध की , जौ की भूसी खाय । खीर खाँड़ भोजन मिलै , साकट संग न जाय ॥३ ॥ कबीर संगति साघ की , ज्यों गंधी का बास । जो कुछ गंधी दे नहीं , तो भी बास सुबास ।।४ ।। मथुरा भावै द्वारिका , भावै जा जगन्नाथ । साध संगति हरि भजन बिनु , कछू न आवै हाथ ।।५ ।। राम बुलावा भेजिया , दिया कबीरा रोय । जो सुख साधू संग में , सो बैकुण्ठ न होय ॥६ ॥ 

शब्दार्थ - जोय - उत्पन्न होता है । व्याधि - रोग , आफत , कष्ट । उपाधि -उपद्रव , उलझन , उत्यात , अशान्ति , दुःख । खाँड़ - कच्ची शक्कर , मीठी चीज । खीर खाँड़ - पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन । साकट - जिसको धर्म में आस्था नहीं है या ईश्वर - भक्ति की ओर झुकाव नहीं है , शाक्त , असाधु , अभक्त , दुर्जन , निगुरा , नास्तिक , मांस - मछली खानेवाला । गंधी - सुगन्धित तेल और इत्र आदि बेचनेवाला । बास - सुवास , सुगंध । भावै अच्छा लगे , चाहे । बुलावा - आमंत्रण । बैकुण्ठ - वैकुण्ठ , विष्णुलोक । 

भावार्थ - अच्छी संगति में सुख उपजता है और कुसंगति में दुःख । संत कबीर साहब कहते हैं कि जहाँ साधु - संतों की संगति मिले , वहीं जाइए ॥१ ॥ साधुओं की संगति संगति करनेवालों के संकटों को हर लेती है । इसके विपरीत असाधुओं ( असज्जनों - दुष्टों - दुर्जनों ) की संगति बुरी होती है । क्योंकि उसमें आठो पहर ( हमेशा ) दुःख - ही - दुःख होता रहता है।।२ ।। जौ की भूसी खाते हुए भी मनुष्य साधुओं की संगति करे ; परन्तु जिनकी धर्म और ईश्वर - भक्ति में आस्था नहीं है , वैसे साकटों की संगति में कभी नहीं रहे , चाहे उनके संग खीर - खाँड़ का ही भोजन क्यों न मिले।।३ ।। साधुओं की संगति सुगंधित तेल और इत्र आदि बेचनेवाले गंधी के समान है । यद्यपि गंधी कुछ भी इन आदि न दे , तथापि उसकी संगति करनेवाले को कुछ - न - कुछ सुगंध मिल ही जाती है । वैसे ही यद्यपि साधु - संत मुख से कुछ भी न कहें , तथापि उनकी संगति करनेवाले को कुछ - न - कुछ लाभ हो ही जाता है।।४ । चाहे कोई मथुरा जाए या द्वारका अथवा जगन्नाथपुरी ; परंतु सत्य बात तो यह कि साधुओं की संगति और ईश्वर - भक्ति के बिना किसी के भी हाथ कुछ नहीं आता ॥५ ॥ संत कबीर साहब कहते हैं कि यदि राम की ओर से वैकुण्ठ आने का बुलावा आए , तो साधु - संग छोड़कर वहाँ जाने का विचार करते हुए उन्हें रुलाई आएगी अर्थात् वे वहाँ न जाना चाहेंगे ; क्योंकि साधुओं की संगति में जो सुख मिलता है , वह वैकुण्ठ आदि लोकों में दुर्लभ है ॥६ ॥ 

सत्संग महिमा संबंधित पाठ सुनते हुए सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज


सत्संग - योग भाग १

वेदमंत्र , भारती अनुवाद - सहित ( पं ० वैदेहीशरण दूबे लिखित ' वैदिक विहंगम - योग ' से संगृहीत ) 

मंत्र - ओ ३ म् युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियम् । अग्नेयो तिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत् ।। य ० अ ० ११ , मं ०१ 

सविता जगत् - प्रसवकर्ता ईश्वर का 
तत्त्वाय तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए 
प्रथमम पहले 
धियम् मनः मनस् वा मानस ( तथा ) 
अग्नेः अग्नि की 
ज्योतिः ज्योतियों के 
युञ्जानः योग कर ( इस ) 
निचाय्य पृथिव्याः भूमि अर्थात् योग - भूमि को अपने अन्दर अधि पर अथवा में 
आभरत् अच्छी प्रकार धारण करें । 

सारांश - वेद भगवान् उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! जगत् - प्रसवकर्ता ईश्वर का तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए पहले बुद्धियोग और मानसयोग तथा अग्नि की ज्योतियों का योग कर , योग की इस दृढ़ भूमि को अपने अन्दर अच्छी प्रकार धारण करें । 

बुद्धियोग = सत्संग । मानसयोग = मानस जप तथा मानस ध्यान । ज्योतियोग = दृष्टियोग ।

संतमत सत्संग के आदि आचार्यों के तस्वीर सतगुरु तुलसी साहब, सदगुरु बाबा देवी साहब और सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज।
गुरुदेव

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MS01-04 सत्संग किसे कहते हैं ।। सत्संग के बारे में 'सत्संग योग चारों भाग' में वर्णित विस्तार सहित चर्चा MS01-04  सत्संग किसे कहते हैं ।। सत्संग के बारे में 'सत्संग योग चारों भाग' में वर्णित विस्तार सहित चर्चा Reviewed by सत्संग ध्यान on 6/03/2020 Rating: 5

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