शब्दकोष 32 || पुनः से प्रत्याहार तक के शब्दों के शब्दार्थ, व्याकरणिक परिचय और प्रयोग इत्यादि का वर्णन
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष / प
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष
पुनः - प्रत्याहार
(पुटी = जिसमें कोई चीज रखी जा सके , खोखली जगह । P01 )
पुन : ( सं ० , क्रि ० वि ० ) = फिर , दुबारा , पीछे , बाद ।
पुनरुदय ( सं ० , पुं ० ) = फिर से जन्म या उत्पत्ति ।
पुरट ( सं ० , पुं ० ) = सोना ।
(पुराइय = पूरा कीजिये । P11 )
(पुरातन = प्राचीन , पुराना । P06 )
(पुसतीन = पुस्तीन , रोएँदार पशुओं की खाल से बना कोट । श्रीचंदवाणी 1क )
पुरुषोत्तम ( सं ० , वि ० ) जो पुरुषों में उत्तम हो , क्षर पुरुष ( जड़ प्रकृति - मंडल ) और अक्षर पुरुष ( चेतन प्रकृति - मंडल ) - दोनों पुरुषों से जो उत्तम हो ( पुं ० ) परमात्मा ।
( पुहप = पुष्प , फूल । नानक वाणी 03 )
पूरक ( सं ० वि ० ) पूरा करनेवाला । ( पँ ० ) प्राणायाम की एक क्रिया जिसमें नाक से बाहर की वायु भीतर खींची जाती है ।
पूर्ण ( सं ० , वि ० ) = पूरा , समूचा , सच्चा , भरा हुआ ।
(पूर्णकाम = जिसकी सभी इच्छाएं पूरी हो गई हों ; यहाँ अर्थ है - जो सभी इच्छाओं को पूरा कर दे , पूरण काम । P05 )
(पूर्ण धनी = पूरा धनवान्, सर्वसमर्थ, सर्वशक्तिसम्पन्न, सब प्रकार से अपने आपमें पूर्ण । P12 )
पूर्ण ब्रह्म ( सं ० , पुं ० ) = समस्त प्रकृति - मंडलों में व्यापक परमात्मा " का अंश ।
(पूर्ण भरोसा - पूर्ण रूप से आश्रित होना , पूरा आसरा , पूरी आशा , पूरा विश्वास ; जो परिस्थिति हमारे समक्ष आयी हुई है , वह परमात्मा की भेजी हुई है , उससे हमें कुछ लाभ ही होगा - ऐसा विश्वास रखना । P06 )
पूर्ण समाधि ( सं ० , स्त्री ० ) = वह वास्तविक समाधि जिसमें जीव परमात्मा से एकता प्राप्त कर लेता है , योग की वह अवस्था जिसमें जीव और परमात्मा के बीच कोई अन्तर नहीं रह जाता ।
पूर्णता ( सं ० , स्त्री ० = पूरा होने का भाव ।
पूर्व ( सं ० , क्रि ० वि ० ) = पहले ।
{पेखे = देखे, देखता है। ('पेखना' का अर्थ है देखना यह संस्कृत 'प्रेक्षण' का तद्भव रूप है।) P10 }
पृथक्त्व ( सं ० , पुं ० ) = पृथक्ता , अलगाव , अलग होने का भाव ।
पृथक् ( सं ० , वि ० ) = अलग , भिन्न ।
पृष्ठ ( सं ० , पुं ० ) = पीठ , पन्ने की किसी तरफ का भाग ।
पेखना ( हिं ० , पुं ० ) = तमाशा , खेल ।
पैगाम ( फा ० , पुं ० ) = संदेश , खबर , सूचना ।
प्युपिल ( अँ ० , पुं ० ) = शिष्य , छात्र , विद्यार्थी ।
(प्र अयासुः = प्राप्त होवे। MS01-3 )
प्रकाण्ड ( सं ० , वि ० ) = बहुत बड़ा ।
प्रकृति ( सं ० , स्त्री ० ) = स्वभाव , परमेश्वर की वह शक्ति ( माया ) जिससे वह विश्व - ब्रह्माण्ड या संसार की रचना करता है , वह तत्त्व जिससे दूसरा कोई पदार्थ बने , जड़ प्रकृति , चेतन प्रकृति ।
प्रकृति के सारे व्याप्य ( पुं ० ) = स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य - प्रकृति के ये सारे मंडल जिनमें परमात्मा अंश - रूप से व्यापक है ।
(प्रकृति द्वय = दोनों प्रकृतियाँ - जड़ प्रकृति और चेतन प्रकृति । P07)
प्रकृति - मंडल ( सं ० , पुं ० ) = जड़ प्रकृति और चेतन प्रकृति के मंडल फैलाव ) जैसे स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य ।
(प्रचंड = बहुत अधिक , तीत्र , प्रखर , तेज , उग्र , तीक्ष्ण । P04 )
{प्रतीक = चिह , वह जिससे किसी की पहचान हो जाए । ( आदिनाद परमात्मा की पहचान करा देता है , इसीलिए वह परमात्मा का प्रतीक कहा जाता है । ) P05 }
(प्रथमम् = पहले। MS01-1)
प्रत्याहार ( सं ० , पुं ० ) = उलटी दिशा में लौटाकर लाना , योग के आठ अंगों में से एक जिसमें साधना समय इधर - उधर भागनेवाले मन को लौटा - लौटाकर ध्येय तत्त्व पर स्थिर किया जाता है ।
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