शब्दकोष 31 || परा प्रकृति से पुतली तक के शब्दों के शब्दार्थ, व्याकरणिक परिचय और प्रयोग इत्यादि का वर्णन
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष / प
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष
परा प्रकृति- पुतली
परा प्रकृति ( सं ० , स्त्री ० ) = श्रेष्ठ प्रकृति , चेतन प्रकृति जो ज्ञानमयी होने के कारण जड़ प्रकृति से श्रेष्ठ है ।
परा प्रकृति मंडल ( सं ० , पुं ० ) = चेतन प्रकृति का मंडल |
पराकाष्ठा ( सं ० , स्त्री ० ) = चरम सीमा , अन्तिम सीमा ।
परिचालित ( सं ० , वि ० ) = अच्छी तरह चलाया जाता हुआ ।
(परिचालित होता रहता है = चलाया जाता रहता है । P06 )
परिमित ( सं ० , वि ० )= सीमित , सीमा - युक्त ।
परिहरना ( स ० क्रि ० ) = छोड़ना , त्याग करना ।
परे ( सं ० पर , क्रि ० वि ० ) = बाहर , ऊपर , रहित , आगे , बाद , दूर , अलग । ( परे = बाहर , ऊपर । P07 )
परोक्ष ( सं ० वि ० ) = अप्रत्यक्ष , जो प्रत्यक्ष नहीं हो , जो आँखों के सामने नहीं हो , जिसका अनुभव नहीं हुआ हो ।
परोक्ष ज्ञान ( सं ० , पुं ० ) = बौद्धिक ज्ञान , पढ़ा हुआ या सुना हुआ ज्ञान , जो ज्ञान अनुभव में नहीं आया हो ।
(पवमानं = व्यापक । MS01-3 )
पवित्रतापूर्ण ( सं ० , वि ० ) = पवित्रता से भरा हुआ ।
पसार ( सं ० प्रसार , पुं ० ) = विस्तार , फैलाव ।
पसीना ( हिं ० , पुं ० ) = गर्मी के कारण या शारीरिक श्रम करने पर शरीर के रोमकूपों से निकलने वाली जल की बूँदें ।
पसीने की कमाई ( स्त्री ० ) = स्वयं परिश्रम करने पर प्राप्त संपत्ति ।
पहचान ( स्त्री ० ) = पहचानने की क्रिया , किसी लक्षण के आधार पर किसी को जानना या उससे परिचित होना ।
पाँच तत्त्वों के रंग ( पुं ० ) = पीला ( पृथ्वी का ) , लाल ( जल का ) , काला ( अग्नि का ) , हरा ( हवा का ) , उजला ( आकाश का ) ।
(पाखंड = ढोंग , आडम्बर, दिखावे का आचरण । P07 )
(पाणि = हाथ । P03 )
(पाप निषेधन = पाप कर्मों से विरत करनेवाला , पाप कर्म करने से रोकनेवाला , पाप कर्म करने की मनाही करनेवाला , पापों के संस्कारों को मिटानेवाला । P30 )
(पापमूलं = पाप की जड़, इच्छा, काम, क्रोध, लोभ । P14 )
पार ( सं ० , पुं ० ) = किसी पदार्थ का दूसरा किनारा , बाहर , दूसरी ओर , ऊपर , रहित , विहीन ।
(पार = पर , परे , बाहर , ऊपर , विहीन , श्रेष्ठ , भित्र । P01 )
(पार = नदी आदि का दूसरा किनारा । P11 )
(पार = बाहर , विहीन । P13 )
पाराग्राफ ( अं ० , पुं ० ) = अनुच्छेद , गद्य का वह अंश जिसमें अपने आपमें कोई पूरी बात लिखी गयी हो ।
(पाश = बंधन, फंदा । P14 )
पास ( सं ० पार्श्व , क्रि ० वि ० ) = निकट , समीप , नजदीक , जो दूर नहीं हो ।
{पाहिं = प्रति, पास, निकट; देखें - "हरि कुमति भर्महिं सुमति सत्य को, पाहि मोहि दीजै अभू । ” (१६वाँ पद्य) "सन्तत रहुँ मन नीच के पाहीं ।" ( १८वाँ पद्य) P11 }
पिंड ( सं ० , पुं ० ) = प्राणी का शरीर , शरीर में आँखों से नीचे का भाग ।
(पिंड = शरीर , शरीर का दोनों आँखों से नीचे का भाग । P30 )
(पिंड = स्थूल शरीर, स्थूल शरीर का दोनों आँखों के नीचे का भाग। P10 )
पिण्डस्थ ( सं ० , वि ० ) = पिंड ( शरीर ) में स्थित ।
पुतली ( हिं ० , स्त्री ० ) = आँख का गोला ।
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