शब्दकोष 43 || विशेष से शब्द-द्वार तक के शब्दों के शब्दार्थ, व्याकरणिक परिचय और प्रयोग इत्यादि का वर्णन
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष / व
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष
बिशेष - शब्द-द्वार
विशेष ( सं ० वि ० ) = अधिक ।
विशेषता ( सं ० , स्त्री ० ) = विशेष होने का भाव , गुण , खासियत ।
विश्व ( सं ० , वि ० ) = बड़ा । ( पुं ० ) संसार , ब्रह्माण्ड ।
विश्व ब्रह्माण्ड ( सं ० , पुं ० ) = महाकारण मंडल के नीचे की विविधतामयी सृष्टि या रचना ।
{विश्वेश ( विश्व + ईश ) = एक विश्व का स्वामी , एक विश्व ( ब्रह्माण्ड ) में व्याप्त परमात्म - अंश । P01 }
विषय ( सं ० , पुं ० ) = वह पदार्थ जिसे किसी ज्ञानेन्द्रिय से ग्रहण किया जाता है ; जैसे रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द ।
(विषय = रूप , रस , गंध , शब्द और स्पर्श । P01 )
विषयक ( सं ० , वि ० ) = विषय से संबंध रखनेवाला ।
विस्तारपूर्वक ( सं ० , क्रि ० वि ० ) = विस्तार के साथ ।
विस्तृतत्व विहीन ( सं ० , वि ० ) = विस्तार - विहीन ; लंबाई - चौड़ाई , मोटाई - ऊँचाई , गहराई , माप - तौल और संख्या से रहित । ( पुं ० ) परमात्मा ।
वृष्टि ( सं ० स्त्री ० ) = वर्षा |
(बृहत् = महान्। MS01-2 )
वे ( अँ ० ) = मार्ग , रास्ता ।
वेग ( सं ० , पुं ० ) = तेजी , शीघ्रता । (वेग - काम - क्रोध आदि विकारों का आवेग , आवेश , उत्तेजना । P09 )
(वेगि = वेग से, वेगपूर्वक, शीघ्रता से, जल्दी । P11 )
वेणु ( सं ० पुं ० ) = बाँस , बाँस का बना एक बाजा , बाँसुरी , मुरली ।
(वैर = पुरानी शत्रुता , दुश्मनी , द्वेष । P09 )
(व्यंजन = जो वर्ण स्वर की सहायता से उच्चरित हो ; जैसे - क् च् त् प य र ल ह आदि । P05 )
व्यक्त ( सं ० वि ० ) = प्रकट , प्रकट किया हुआ , इन्द्रिय के ज्ञान में आनेवाला , इन्द्रिय के ग्रहण में आनेयोग्य ।
(व्यक्त = इन्द्रियों के ग्रहण में आनेवाला पदार्थ । P05 )
व्यक्ति ( सं ० पुं ० ) = पदार्थ , प्रकट पदार्थ , दिखायी पड़नेवाला पदार्थ , कोई प्राणी , कोई मनुष्य ।
व्यभिचार ( सं ० , पुं ० = पुरुष का परस्त्री से और स्त्री का परपुरुष से गलत संबंध स्थापित करना ।
(व्यभिचार = परस्त्री के साथ पुरुष का और परपुरुष के साथ स्त्री का सहवास करना । P06 )
व्यर्थ ( सं ० वि ० ) = निष्फल , फल रहित , बेकार , अर्थ - रहित , बिना मतलब का प्रयोजन रहित ।
व्यापक ( सं ० वि ० ) = घुसकर या फैलकर किसी पदार्थ में रहनेवाला ।
(व्यापक = जो किसी में फैला हुआ हो ; यहाँ अर्थ है - समस्त प्रकृतिमंडलों में फैला हुआ परमात्म - अंश । P01 )
(व्यापक = जो किसी में फैला हुआ हो । P05 )
व्याप्त ( सं ० , वि ० ) = फैला हुआ , घुसा हुआ ।
व्याप्य ( सं ० , वि ० ) = जिसमें घुसकर या फैलकर कुछ रह सके । ( पुं ० ) समस्त प्रकृति मंडल जिसमें परमात्मा व्यापक है ।
{व्याप्य = जिसमें कुछ फैलकर रह सके ; यहाँ अर्थ है - समस्त प्रकृतिमंडल जिसमें परमात्मा अंश - रूप से फैला हुआ है । ( किसी लोहे के गोले को गर्म करने पर गर्मी उसमें सर्वत्र व्याप्त हो जाती है । यहाँ गोला व्याप्य और गर्मी व्यापक कही जायगी । ) P01 }
(वृषगणा = उत्तम धर्म-मेघ समाधि के साधक । MS01-3 )
श
(शंकर ( शम् + कर ) = कल्याण करनेवाला । P05 , P03 )
{शंकररूप = कल्याणकारी रूप । ( रामचरितमानस , बालकांड के आदि में भी गुरु की वंदना करते हुए उन्हें शंकररूप बताया गया है ; यथा- " वन्दे बोधमयं नित्यं गुरु शंकररूपिणम् । " ) P03 }
शंभु ( सं ० , पुं ० ) = भगवान् शिव ।
शक्तियुक्त ( सं ० , वि ० ) = शक्ति सहित , शक्तिमान् , लायक , समर्थ , शक्तिवाला ।
(शक्ति - युक्त = शक्ति - सहित , शक्तिवाला , शक्तिमान् । P06 )
शब्द- अभ्यास ( सं ० , पुं ० ) = सुरत - शब्दयोग का अभ्यास ।
शब्द - द्वार ( सं ० , पुं ० ) = वह द्वार जहाँ पहुँचने पर ब्रह्माण्ड की ध्वनियां सुनाई पड़ने लग जाती है, दशम द्वार ।
(शब्दब्रह्म = शब्दरूपी ब्रह्म , आदिनाद जिसे कुछ लोग ब्रह्म का ही स्वरूप मानते हैं । P05 )
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