धम्मपद यमकवग्गो 02 मट्ठकुण्डली की कथा
प्रभु प्रेमियों ! धम्मपद पाली साहित्य का एक अमूल्य ग्रन्थरत्न है । बौद्ध- संसार में इसका उसी प्रकार प्रचार है जिस प्रकार कि हिन्दू संसार में गीता का । इस पोस्ट में धम्मपद यमकवग्गो के 02 री कहानी मट्ठकुण्डली की कथा से जानगें कि अति कंजूस होना खतरनाक है। देवता भी पहुंचे हुए संत-महात्माओं को दान करने के लिए प्रेरित करते हैं। पहुंचे हुए संत-महात्माओं के दर्शन और दान से बहुत लाभ होता है। हम अपना भाव या विचार संतो के प्रति जैसा रखते हैं उसी के अनुसार हमें फल मिलता है। इत्यादि बातें । इन बातों को जानने के पहले भगवान बुद्ध के दर्शन करें-
यमकवग्गो की पहली कहानी पढ़ने के लिए 👉 यहाँ दवाएँ।
![]() |
| भगवान बुद्ध के दर्शन का महत्व |
देवता भी भगवान बुद्ध को दान करने की प्रेरणा देतें हैं।
डा. त्रिपिटकाचार्य भिक्षु धर्मरक्षित ( एम. ए. , डी. लिट्. ) द्वारा सम्पादित कथा निम्नलिखित है--
मन ही प्रधान है(मट्ठकुण्डली स्थविर की कथा )
श्रावस्ती में अदिन्नपूर्वक नामक एक महाकृपण ब्राह्मण को मट्ठकुण्डली नाम का इकलौता पुत्र था। सोलह वर्ष की अवस्था में मट्ठकुण्डली बीमार पड़ा। अदिन्नपूर्वक ने धन बरबाद होने के डर उसकी समुचित दवा न करायी।
![]() |
| भगवान् बुद्ध |
"ब्राह्मण! न एक सौ, न दो सौ मेरे ऊपर मन को प्रसन्न करके स्वर्ग में उत्पन्न हुए व्यक्तियों की गणना नहीं है। मनुष्यों के पाप-पुण्य कर्मों को करने में मन अगुआ और प्रधान है। प्रसन्न मन से किया हुआ पुण्य-कर्म देवलोक अथवा मनुष्य लोक में उत्पन्न होने वाले व्यक्तियों को, पीछे-पीछे लगी रहने वाली छाया के समान नहीं छोड़ता है।” भगवान् ने यह कहकर उपदेश देते हुए यह गाथा कही-
मनसा चे पसन्नेन भासति वा करोति वा ।
ततो नं सुखमन्वेति छाया' व अनपायिनी ॥2॥
मन सभी प्रवृत्तियों का अगुआ है, मन उसका प्रधान है, वे मन से ही उत्पन्न होती है। यदि कोई प्रसन्न (स्वच्छ) मन से वचन बोलता है या काम करता है, तो सुख उसका अनुसरण उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार कि कभी साथ नहीं छोड़ने वाली छाया।∆
हृषिकेश शरण ( एल. एल. बी. ) द्वारा सम्पादित कथा--
मन ही सर्वेसर्वा है
स्थान: जेतवन, श्रावस्ती
मकुण्डली ब्राह्मण अनिपुब्बक का पुत्र था । पिता बहुत ही कृपण था और कभी भी दान-पुण्य नहीं करत था । यहाँ तक कि जब उसे अपने पुत्र के लिए आभूषण बनाने की आवश्यकता पड़ी तो उसने उन आभूषणों को भी स्वयं ही बनाया ताकि स्वर्णकार को आभूषण बनाने की मजदूरी न देनी पड़े। जब उसका पुत्र बीमार पड़ा तब पैसे बचाने के लिए उसने चिकित्सक को भी इलाज के लिए नहीं बुलाया। लड़के की तबियत बिगड़ती गई। अंत में पिता को लगा कि अब उसका ठीक होना संभव नहीं है। फिर भी चिकित्सक को बुलाने के बजाय, अदिनपुब्बक ने अपने पुत्र को घर के बाहर खाट पर लिटा दिया ताकि लोग घर के अंदर न आ सकें और उसके धन-दौलत को न देख सकें।
उस दिन प्रातः बुद्ध ने अपनी अन्तर्दृष्टि से सर्वेक्षण किया और अपने सर्वेक्षण में मट्टकुण्डली को पाया उन्होंने देखा कि मट्ठकुण्डली के आध्यात्मिक कल्याण का समय आ गया था । अतः उनके चरण मट्ठकुण्डली के आवास की ओर चल पड़े। घर-घर भिक्षाटन करते हुए शास्ता अदिनपुब्बक के घर के सामने पहुँच गए।
मकुण्डली बरामदे में लेटा हुआ था । तथागत की दिव्य आभा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । भीतर से उसका हृदय शास्ता के दर्शन के लिए बेचैन हो रहा था पर उसका शरीर जवाब दे रहा था। उसकी काया खाट पर थी पर वह बुद्ध के साथ जुड़ चुका था।
अंतिम समय आ गया । मट्ठकुण्डली ने आँखें मूँद लीं। मरते समय उसका हृदय बुद्ध के प्रति श्रद्धा से भर हुआ था। इतना काफी था। उसका जन्म तावतिंस दिव्य लोक में हुआ ।
![]() |
| देवता का देखना |
तावतिंस दिव्य लोक से मट्ठकुण्डली ने देखा कि उसका पिता उसकी मृत्यु पर विह्वल होकर रो रहा है अत: वह अपने पुराने रूप में पिता के सामने प्रकट हुआ। उसने अपने पिता को अपने पुनर्जन्म के बारे में बताया तथ आग्रह किया कि वह बुद्ध को भोजन के लिए आमंत्रित करे। बुद्ध भोजन के लिए आमंत्रित हुए। भोजन के बाद अदिनपुब्बक के परिवार वालों ने बुद्ध से प्रश्न किया, "क्या कोई व्यक्ति बिना दान दिए, उपवास किए, कर्मकांड किए, मात्र बुद्ध में पूर्ण समर्पण से तावतिंस दिव्य लोक में जन्म ले सकता है?" प्रत्युत्तर में बुद्ध ने मट्टकुण्डली क उपासकों के सम्मुख प्रकट होने के लिए कहा। आदेश पाकर मट्ठकुण्डली दिव्य आभूषणों के साथ आम जनता के सामने प्रकट हुआ तथा स्पष्ट किया कि उसका जन्म तावतिंस दिव्य लोक में हुआ है। उसे देखकर सबों को विश्वास करना पड़ा कि बुद्ध के प्रति पूर्ण समर्पण मात्र से मट्ठकुण्डली को इतना अधिक लाभ हुआ था ।
गाथा:
मनसा चे पसन्नेन, भासति वा करोति वा ।
ततो नं सुखमन्वेति छाया व अनपायिनी । 2 ।।
अर्थः
मन सभी धर्मों का प्रधान है। पुण्य और पाप सभी धर्म मन से ही उत्पन्न होते हैं । यदि कोई प्रसन्न मन से कुछ कहता है या कुछ करता है तो उसका फल सुख होता है। सुख उसका पीछा उसी प्रकार नहीं छोड़ता जिस प्रकार मनुष्य की छाया उसका कभी साथ नहीं छोवड़ती।
टिप्पणी: मनुष्य के जीवन में जो कुछ भी घटित होता है वह विचारों का ही परिणाम है। अगर विचार पवित्र हों त वाणी और कर्म भी पवित्र होंगे। पवित्र विचार, वाणी और कर्म से जीवन में सुख प्राप्त होगा ।
धम्मपद यमकवग्गो की तीसरी कहानी के बारे में जानने के लिए 👉 यहां दबाएं ।
प्रभु प्रेमियों ! धम्मपद की इस कहानी के द्वारा आपलोगो ने जाना कि अति कंजूस होना खतरनाक है। देवता भी पहुंचे हुए संत-महात्माओं को दान करने के लिए प्रेरित करते हैं। पहुंचे हुए संत-महात्माओं के दर्शन और दान से बहुत लाभ होता है, भगवान बुद्ध वचन धम्मपद, इत्यादि बातें. अगर आपको इस तरह के कथा कहानी पसंद है तो आप इस सत्संग ध्यान ब्यबसाइट का सदस्य बने। जिससे कि आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहे इस बात की जानकारी आप अपने इष्ट मित्रों को भी दें जिससे उनको भी लाभ मिले . निम्न वीडियो में इस कहानी का पाठ करके हिंदी में सुनाया गया है -
![]() |
| धम्मपद |
प्रभु प्रेमियों ! अगर आप धम्मपद पुस्तक के सभी गाथाओं और कहानियों के बारे में विशेष रूप से जानना चाहते हैं या इस पुस्तक को ऑनलाइन मंगाना चाहते हैं तो 👉 यहां दबाएं.
सत्संग ध्यान स्टोर के बिक्री से हुई आमदनी से मोक्ष पर्यंत ध्यानाभ्यास कार्यक्रम का संचालन होता है। अत: इस स्टोर से सत्संग ध्यान संबंधित हर तरह की सामग्री के लिए 👉 यहां दबाएं।
Reviewed by सत्संग ध्यान
on
8/12/2023
Rating:




कोई टिप्पणी नहीं:
सत्संग ध्यान से संबंधित प्रश्न ही पूछा जाए।