महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष / उ+ऋ
उक्ति - ऋषि शब्द तक के शब्द और उसके अर्थ
उक्ति - ऋषि
उ+ऋ
उक्ति ( सं ० , स्त्री ० ) कही गयी कोई बात ।
(उक्ति = कथन , उपदेश । P04 )
उच्च ( सं ० , वि ० ) = ऊँचा ।
उच्चतर ( सं ० , वि ० ) = किसी की तुलना में ऊँचा ।
उच्चरन्त् ( सं ० , क्रियापद ) = उच्चारण करते हुए , कहते हुए ।
(उज्ज्वल = उजला , प्रकाशमय । P139 )
उत्कर्ष ( सं ० , पुं ० ) = वृद्धि , बढ़ती , उन्नति ।
उत्कृष्ट ( सं ० वि ० ) = ऊँचे स्तर का ।
उत्तम ( सं ० वि ० ) = अच्छा ।
उत्तम उत्तम ( सं ०, वि० ) = अच्छा - अच्छा , अच्छे - से - अच्छा ।
उत्तरोत्तर ( सं ० , वि ० ) - एक कें बाद दूसरा । ( क्रि ० वि ० ) एक से एक बढ़कर , अधिक-से-अधिक , क्रमशः लगातार ।
उत्थित ( सं ० , वि ० ) = उठा हुआ , उत्पन्न , निकला हुआ ।
उत्पत्तिहीन ( सं ० वि ० ) = उत्पत्ति रहित , अजन्मा , जिसकी उत्पत्ति ।
उदय ( सं ० , पुं ० ) = उत्पत्ति , किसी या जन्म नहीं हुआ हो । पदार्थ का ऊपर उठना , उन्नति , निकलना , प्रकट होना ।
उद्गम स्थान ( सं ० , प ० ) = उत्पत्ति स्थान , वह स्थान जहाँ से किसी की उत्पत्ति हुई हो ।
(उदार = दानी , खुले दिलवाला । P04 )
उन्मुनी रहनी ( हिं ० , स्त्री ० ) = वह अवस्था जिसमें मन संकल्प - विकल्प छोड़कर रहता है ।
उपकारार्थ ( सं ० , पुं ० ) = उपकार ।
{उपकारार्थ ( उपकार + अर्थ )= भलाई के लिए । P08 }
उपकारी ( सं ० , वि ० ) = उपकार करनेवाला , भलाई करनेवाला ।
उपदेश ( सं ० , पुं ० ) = आदेश , आज्ञा , शिक्षा , सिखावन , सिखाने या सीखनेयोग्य बात ।
उपनिषद् ( सं ० , स्त्री ० ) = ऋषियों के द्वारा संस्कृत में रचा हुआ ग्रन्थ जिसमें ब्रह्म , जीव , माया , ब्रह्म - प्राप्ति का उपाय आदि बातों का उल्लेख है , वेदान्त , वेद का अन्तिम भाग अर्थात् ज्ञानकाण्ड । (उपनिषद् - वेद का अन्तिम भाग ( ज्ञानकांड ) , जिसमें ब्रह्म , जीव , जगत् , प्रकृति , ब्रह्म - प्राप्ति के साधन आदि दार्शनिक बातों की सूक्ष्म विवेचना है । P08 )
उपयोगिता ( सं ० , स्त्री ० ) = उपयोगी होने का भाव , किसी काम में आने के योग्य होने का भाव ।
उपर्युक्त ( सं ० , वि ० ) = ऊपर कहा हुआ ।
उपाधी ( उपाधि + ई ) = त्रिगुणात्मिका माया में आबद्ध , जड़ावरणों में बँधा हुआ । ( उपाधि - विशेषण , गुण - त्रयगुण , आवरण , माया ) P13 )
उपासक ( सं ० वि ० ) = उपासना करनेवाला ।
उपासना ( सं ० , स्त्री ० ) = निकट बैठना , योगाभ्यास या ध्यानाभ्यास जिसके द्वारा इष्ट की निकटता प्राप्त होती है , ईश्वर साक्षात्कार का उपाय , साधना , भक्ति , पूजा-पाठ आदि ।
उपास्य ( सं ० , वि ० पुँ ० ) = उपासना करने के योग्य , जिसकी उपासना की जाए । ( पँ ० ) इष्ट ।
(उमगि = उमंग युक्त होकर , आनन्दित होकर । P145 )
उर ( सं ० , पुं ० ) = हृदय ।
(उज्ज्वल = उजला, स्वच्छ, निर्मल । P10 )
उल्लिखित ( सं ० , वि ० ) = उल्लेख = किया हुआ , ऊपर लिखा हुआ , ऊपर वर्णन किया हुआ ।
ऊर्ध्वगति ( सं ० , स्त्री ० ) = ऊपर की ओर चलना या उठना ।
ऋ
ऋषि ( सं ० , वि ० ) = वैदिक मंत्रों के दृष्टा , जीवन और जगत् के सत्य नियमों की खोज करनेवाला । ( पुं ० ) वे आत्मज्ञ महापुरुष जिनके वचन वेद आदि ग्रंथों में संकलित हैं ।
(ऋषि - प्राचीन काल के वे आत्मज्ञ महापुरुष जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों को संस्कृत भाषा में अभिव्यक्त किया , जो वेद - उपनिषद् आदि ग्रंथों में संकलित हैं । P08 )
(ऋषि = वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा जो आत्मज्ञ महापुरुष थे । P05 )
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