शब्दकोष 29 || निर्मल चैतन्य से परधाम तक के शब्दों के शब्दार्थ, व्याकरणिक परिचय और प्रयोग इत्यादि का वर्णन
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महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष
निर्मल चैतन्य - परधाम
निर्मल चैतन्य ( सं ० , पुं ० ) = कैवल्य मंडल , निर्मल चेतन मंडल।
निर्मायिक शब्द ( सं ० , पुं ० ) = माया - रहित शब्द , त्रयगुण - रहित शब्द , निर्गुण शब्द , आदिनाद ।
निर्मूल ( सं ० , वि ० ) = जड़ विहीन , पूरी तरह नष्ट ।
निर्मोह ( सं ० , वि ० ) = मोह - रहित , अज्ञानता - रहित , ममता या आसक्ति से रहित ।
निर्वाह ( सं ० , पुं ० ) = गुजर - बसर ।
(निवारण = हटाना , रोकना , दूर करना । P07 )
निश्चय ( सं ० , पुं ० ) = अवश्य ( क्रि ० वि ० ) निश्चित रूप से ।
(निश्चय = संकल्प , धारणा , विचार , विश्वास । P06 )
निश्चलता ( सं ० , स्त्री ० ) = निश्चल होने का भाव , नहीं चलने का भाव ।
{निश्चलता ( निः + चलता )= मन की अचलता , मन का चलायमान न होना । ( मन की पूरी स्थिरता वा निश्चलता विषयों की आसक्ति का त्याग करने पर होती है और आसक्ति का त्याग शब्द - साधना की पूर्णता होने पर होता है । ) P08 }
निश्चित ( सं ० , वि ० ) = निश्चय किया हुआ , निर्णय किया हुआ , बिल्कुल ठीक , दृढ़ , पक्का , साबित किया हुआ , सत्य ।
(निष्कपट = कपट - रहित , छल - रहित , दुराव - छिपाव - रहित , सच्चा । P06 )
(निष्कपट ( निः + कपट ) = कपट - रहित , छल - रहित, सच्चा , सरल । P07 )
निषेधात्मक उक्ति ( सं ० , स्त्री ० ) = नकारात्मक कथन , वह कथन जिसमें कुछ न होने का भाव हो ।
(निशि - दिन = रात - दिन ।P09 )
निसबत ( अ ० , स्त्री ० ) = विषय में , बारे में , संबंध , तुलना ।
(नीच = मलिन , अपवित्र , बुरा , ओछा । P02 )
नूर ( अ ० , पुं ० ) = प्रकाश ।
नेति ( सं ० , पुं ० ) = यह नहीं , अन्त नहीं ।
नेह ( सं ० स्नेह , पँ ० ) = प्रेम , छोटे से किया जानेवाला प्रेम ।
(नेहू - नेह , स्नेह , प्रेम , राग । P09 )
नोक ( फा ० , स्त्री ० )= किसी पदार्थ का बहुत पतला सिरा ।
न्यून ( सं ० , वि ० ) = थोड़ा , छोटा ।
पंचगंगाघाट ( पुं ० ) = काशी का एक स्थान जहाँ कई नदियों का मिलाप है ।
पंजा ( फा ० , पुं ० ) = पाँचो अंगुलियों सहित हथेली का अगला भाग , संकेत , इशारा , भेद , आज्ञा ।
(पद = स्थान , आधार । ( परमात्मा में स्थान और स्थानीय का भेद नहीं होता । P06 )
(पट = आवरण । P07 )
पंथाई भाव ( पुं ० ) = अपने ही पंथ , मत या संम्प्रदाय को बड़ा मानने का भाव । ( पंथाई भाव - दूसरे के पंथ को ओछा और अपने पंथ को श्रेष्ठ मानते हुए अपने ही पंथ की बातों पर अविचारपूर्वक डटे रहने का भाव , साम्प्रदायिक भाव । P08 )
( प्रेम = हृदय का वह भाव जिसके कारण प्रिय व्यक्ति को बार बार स्मरण करते हैं ; बार - बार उसे देखने की इच्छा होती है ; सदा उसकी निकटता चाहते हैं और स्वयं कष्ट उठाकर भी उसे सुखी देखना चाहते हैं । P09 )
( प्रेम-भक्ति - वह सेवा भाव जिसमें प्रेम निहित हो , प्रेमपूर्ण सेवा भाव । P09 )
पक्ष ( सं ० , पुं ० ) = पंख , तरफ , ओर ।
पटाकाश ( सं ० , पुं ० ) = कपड़े से बने घर के भीतर का आकाश ।
पद ( सं ० , पुं ० ) = स्थान , आधार , पाँव , पद्य , कविता , वह कार्य - भार जो किसी व्यक्ति को सौंपा गया हो |
(पद = चरण । P03 , P02 )
पद्य ( सं ० , पुं ० ) = कविता ।
परधाम ( सं ० , पुं ० ) = श्रेष्ठ धाम , श्रेष्ठ स्थान , परमात्मा । ( वि ० ) जो सब धामों ( पदों , स्थानों ) में श्रेष्ठ हो ( परमात्मा ) |
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