महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष / ल
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष
लखना - विख्यात
लखना ( स ० क्रि ० ) = देखने की क्रिया , देखना ।
लय ( सं ० , पुं ) = विलय , घुल-मिल जाना , एकमेक हो जाना ।
(लय = विलय , मिलना , लीन होना, नाश । P07 )
ललाम ( सं ० , पुं ० ) = रत्न ।
ललित ( सं ० , वि ० ) = सुन्दर ।
लसना ( अ ० क्रि ० ) = शोभा पाना ।
(लहत = लाभ करता है, प्राप्त करता है। P10 )
(लहर = तरंग, मनोविकार । P11 )
(लाग लगीजै = लाग लगा लीजिये , संबंध स्थापित कर लीजिये ।P145 )
लाभ ( सं ० , पुं ० ) = प्राप्ति , आमदनी ।
लाभदायक ( सं ० , वि ० ) = लाभ देनेवाला ।
लिखित ( सं ० , वि ० ) = लिखा हुआ ।
(लेख = संस्कार , धर्मशास्त्र , विचार । श्रीचंदवाणी 1क )
(लेखे = देखता है, विचारता है, समझता है, मानता है, गिनता है। P10 )
लोप ( सं ० , पुं ० ) = गायब , नाश ।
लोभ ( सं ० , पुं ० ) = दूसरे की वस्तु को अनुचित रूप से ले लेने के लिए मन में उठा हुआ एक भाव । (लोभ = लालच , किसी दूसरे की अच्छी या उपयोगी वस्तु को देखकर उसे अपनाने या वैसी ही वस्तु कहीं से या किसी तरह प्राप्त करने की प्रबल इच्छा का होना । P09 )
लौकिक वस्तु ( सं ० , स्त्री ० ) = आँखों से दिखलायी पड़नेवाले लोक ( संसार ) की वस्तु ।
(लंगोटी - कौपीन , कछनी । श्रीचंदवाणी 1क )
वंचित ( सं ० , वि ० ) = ठगा हुआ , अलग , दूर ।
{व ( फा ० ) = और । P09 ) P07 }
(वच = वचन , वाणी , वाक्य । P01 )
(वग्नुं = रमणीय अनाहत नाद को। MS01-3 )
वचन- अगोचर ( सं ० , वि ० ) = जिसके विषय में वचन ( वाणी ) से कुछ भी कहा नहीं जा सके ।
(वर = वरदान । P13 )
वर्णन ( सं ० , पुं ० ) = कहने की क्रिया , कथन , कहना ।
वर्णनानुसार ( सं ० , वि ० ) = वर्णन के अनुसार ।
वर्णात्मक शब्द ( सं ० पुं ० ) = वर्णों ( अक्षरों ) से बना हुआ शब्द ; जैसे गाय , पुस्तक , राम , वृक्ष आदि ।
वर्णित ( सं ० , वि ० ) = वर्णन किया हुआ , कहा हुआ ।
(वसन = कपड़ा , वस्त्र , मकान , महल , निवास । P13 )
(व्यापक = फैला हुआ । P06 )
(व्यापक = फैला हुआ , समस्त प्रकृतिमंडलों में फैला हुआ । P13 )
(व्यापक = सर्वव्यापक , सबमें फैला हुआ, समस्त प्रकृति - मंडलों में फैला हुआ, परमात्म - अंश । P07 )
(व्याप्य = जिसमें कुछ फैलकर रह रहे हो , समस्त प्रकृति - मंडल जिनमें परमात्म - अंश व्यापक है । P07 )
(व्याप्य पर = प्रकृति - मंडलों के बाहर , सर्वव्यापकता के परे ।P07 )
(वाचा = वचन , वचन से । P09 )
(वाणम् = भोक्ता आत्मा को। MS01-3 )
विकार ( सं ० , पुं ० ) = किसी पदार्थ का बिगड़ा हुआ रूप , मन में उत्पन्न होनेवाला हानिकारक भाव ; जैसे काम , क्रोध , लोभ , मद , मोह या ईर्ष्या ; क्षेत्र ( शरीर ) का विकार ; जैसे इच्छा , द्वेष , सुख या दुःख । ( गीता , अ ०१३ )
विकास ( सं ० , पुं ० ) = आगे बढ़ने की क्रिया , प्रगति , उन्नति , फैलाव ।
विकृत ( सं ० , वि ० ) = विकार युक्त , जिसका रूप बिगड़ गया हो या बदल गया हो ।
विकृति ( सं ० , स्त्री ० ) = विकृत होने की क्रिया या भाव , रूप के बिगड़ या बदल जाने का भाव , महाकारण - मंडल का वह भाग जो त्रय गुणों का उत्कर्ष - अपकर्ष हो जाने पर विकृत ( विकार युक्त , परिवर्त्तित ) हो गया हो ।
विख्यात ( सं ० , वि ० ) = विशेष प्रसिद्ध , विशेष प्रचलित , जिसका नाम - यश अधिक फैला हुआ हो , जो अधिक चर्चा में हो जिसे बहुत अधिक लोग जानते पहचानते हो.
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