मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य क्या है?
जीवन लक्ष्य |
रामायण से जाने मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य क्या है?
मित्र का व्यवहार कैसा होना चाहिए
श्रीराम ने विभीषण, सुग्रीव और गुह निषाद के साथ भी मित्र- धर्म का जीवन पर्यन्त अच्छी तरह निर्वाह किया। वे जानते थे कि बालि का वध करने पर उन्हें अगले अवतार ( कृष्णावतार) में क्या परिणाम भोगना पड़ेगा, फिर भी उन्होंने मित्र धर्म के निर्वाह के लिए बालि का वध किया; मित्र - सुख के लिए उन्होंने स्वयं कष्ट सहना स्वीकार किया । उनका ही वचन था —
“जे न मित्र दुख होहिं दुखारी ।
तिन्हहिं बिलोकत पातक भारी ।।
निज 'दुख गिरि सम रज करि जाना ।
मित्रक दुख रज मेरु समाना ॥
बिपति काल कर सत गुन नेहा ।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ॥” (किष्किंधाकाण्ड )
धर्मशास्त्र हिंसा की आज्ञा कब देता है?
हमारा धर्मशास्त्र हमें अपने अधिकार और धर्म की रक्षा के लिए हिंसात्मक युद्ध भी करने का आदेश देता है। यदि श्रीराम रावण के द्वारा अपहृत सीताजी को अयोध्या वापस नहीं लाते, तो उनकी घोर निंदा होती और उनका पौरुष भी कलंकित होता । सीताजी को लौटा लाने के लिए सहायकों सहितं आततायी रावण का संहार करना उनके लिए अनिवार्य कर्तव्य था ।
रामचरितमानस में ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग
'मानस' में कैवल्य परम पद प्राप्त करने के दो मार्गों का उल्लेख हुआ है, वे मार्ग हैं— ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग। 'मानस' की निष्ठा ज्ञानमार्ग में नहीं, ज्ञान- योगयुक्त भक्ति मार्ग में है।
ज्ञानमार्ग कठिन है, यह सबके लिए सरल नहीं है। इसमें बहुत-सी विघ्न-बाधाएँ आती हैं। इसमें दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि परम मुक्ति मिल ही जाएगी। यदि घुणाक्षर - न्याय से किसी को सफलता मिल भी जाए, , तो वह भक्ति-विहीन होने के कारण ईश्वर का प्यारा नहीं होता । ज्ञानमार्ग के मुख्य साधन हैं - श्रद्धा, धर्मशीलता, वैराग्य, ज्ञान- विवेक, योग और विज्ञान। जो कैवल्य परम पद ज्ञानमार्ग से मिलता है, वही भक्तिमार्ग से भी मिल पाता है; परंतु भक्तिमार्ग ज्ञानमार्ग से सरल, सुसाध्य और सब सुखों की खानि है । भक्तिमार्गी ईश्वर के अतिशय प्यारे होते हैं। श्रीराम के द्वारा शबरी को निर्दिष्ट नवधा भक्ति की विधि से वे लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं।
भगवान राम का उपदेश और भक्तिमार्ग
पंचवटी में लक्ष्मणजी को दिये गये उपदेश में श्रीराम ने ब्रह्म, जीव, माया, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि से संबंधित बातें कहीं हैं। इनमें वेदान्त - ज्ञान साररूप में आ गया है। पुरजन उपदेश में श्रीराम ने जीवन का लक्ष्य विषयों का सेवन नहीं, परम मोक्ष प्राप्त करना बतलाया है और इसके लिए उन्होंने भक्तिमार्ग का अवलंब लेने की सम्मति दी है। यदि 'मानस' से नवधा भक्ति को निकाल दिया जाए, तो 'मानस' सार - शून्य हो जाएगा; क्योंकि वह नवधा भक्ति के बिना भक्तों को लक्ष्य की प्राप्ति कराने में सहायक नहीं हो सकेगा। 'मानस' बड़ी दृढ़ता के साथ कहता है कि मानव अपना परम कल्याण ज्ञान-बल, तपोबल, जनबल, अर्थबल, सांसारिक उन्नति, यज्ञ, पद-प्रतिष्ठा, दान या व्रत के द्वारा नहीं, मात्र भक्ति से कर सकता है।
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ और मानस प्रेम
बिहार में 'मानस' के सबसे बड़े प्रेमी हुए - सद्गुरु पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज ।
भजिय राम सब काम बिहाई ॥”
– 'मानस' की इसी अर्धाली ने सद्गुरुजी को छात्र जीवन में ही जीवन के लक्ष्य का ज्ञान कराकर वैराग्य के पथ पर आरूढ़ कर दिया था। यह वचन किष्किंधाकांड में सुग्रीव का है, जिसे उन्होंने नल-नील, अंगद, हनुमान्, जाम्बवन्त आदि से उन्हें सीताजी की खोज के लिए दक्षिण दिशा में भेजते हुए कहा था। इसके पहले गुरुदेव को अँगरेजी की किसी पुस्तक में लिखे - All men must die. ( सब लोग अवश्य मरेंगे) जैसे वाक्य पढ़कर ही जीवन की नश्वरता का बोध हो चुका था ।
सन् १९०४ ई० में एन्ट्रेंस की परीक्षा देते समय गुरुदेव के मन में वैराग्य की भावना प्रबल हो गयी; फिर क्या था, इन्होंने कॉपी पर उपरिलिखित अर्धाली लिखकर परीक्षा भवन का त्याग कर दिया और वैरागी जीवन जीने के लिए संकल्पित हो गये।
'मानस' के प्रति गुरुदेव का प्रेम जीवन के आरंभिक दिनों में जगा और जीवन के अंत तक ज्यों-का-त्यों बना रहा। प्रत्येक दिन ये अपराह्णकाल में एक घंटे तक 'मानस' का पाठ कराकर सुनते रहे। लड़कपन में अपने पिताजी को नित नियमित रूप से 'मानस' का पाठ करते और रोते हुए देखकर इनके मन में जिज्ञासा हुई कि 'मानस' में कौन-सी ऐसी बात है, जिसे पढ़कर पिताजी अपने आपको रोक नहीं पाते, रो पड़ते हैं। इसी जिज्ञासा ने इन्हें 'मानस' की ओर प्रारंभ में आकर्षित किया था।
गुरुदेव ने युवावस्था में २५-२६ वर्ष तक 'मानस' का जो गंभीर अध्ययन-मनन किया, उसका लाभ इन्होंने 'रामचरितमानस - सार सटीक ' नामक ग्रंथ लिखकर संसार के लोगों को पहुँचाया।
रामकथा की महिमा
जब शिवजी ने पूरी राम कथा पार्वतीजी को सुनायी, तो वे सुनकर आनंदमग्न हो गयीं और रामकथा के प्रति अपने उद्गार उन्होंने इस प्रकार व्यक्त किये—
रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ ।
हरिगुन सुनहिं निरन्तर तेऊ ॥" (उत्तरकांड )
सद्गुरुजी के 'मानस'- प्रेम को देखकर और पार्वतीजी के उपर्युक्त श्रीरामकथा-विषयक उद्गार पढ़कर हमारी यह धारणा और भी दृढ़ हो जाती है कि हमारे सद्गुरुजी सचमुच जीवन्मुक्त और महामुनि थे। यदि किन्हीं को इनके महामुनित्व का परिचय पाना हो, तो वे 'रामचरितमानस - सार सटीक ' पढ़कर देखें।
रामचरितमानस -सार सटीक में क्या है?
'रामचरितमानस -सार सटीक' में गुरुदेव ने गद्य में 'मानस' की कथावस्तु संक्षेपतः प्रस्तुत करने के साथ-साथ उद्धत सभी ज्ञान -प्रसंगों के मूलपाठों की जो टीकाएँ और व्याख्याएँ की हैं, वे अन्य टीका- ग्रंथों में खोजने पर भी नहीं मिलतीं। इस पुस्तक में गुरुदेव सर्वत्र यह सिद्ध करते हुए दिखलायी पड़ते हैं कि श्रीराम भगवान् विष्णु के अवतार हैं। इन्हें 'मानस' में संतों की साधना-पद्धतियों की भी झलक मिली है। 'रामचरितमानस - सार सटीक' को गुरुदेव ने संतमत सत्संग की पाठ्य पुस्तकों में अनिवार्य रूप से सम्मिलित कर दिया है। अपराह्नकाल के सत्संग में इसी ग्रंथ से पाठ किया जाता है और उसपर वक्ताओं के द्वारा व्याख्यान भी दिया जाता है।
श्रीरामचरितमानस ज्ञान-प्रसंग की बात
मेरे द्वारा संपादित इस पुस्तक 'श्रीरामचरितमानस ज्ञान-प्रसंग (अर्थ सहित ) ' में 'मानस' के मुख्यतः वे ही ज्ञान प्रसंग लिये गये हैं, जिनका संतमत सत्संग में पाठ किया जाता है और उनपर व्याख्यान दिया जाता है। इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें प्रत्येक ज्ञान-प्रसंग के ऊपर एक उपयुक्त शीर्षक दिया गया है, पाठ में निहित विषय-वस्तु का संक्षेपतः निर्देश किया गया है और ज्ञान-प्रसंग का भावार्थ भी कर दिया गया है। इस पुस्तक से ज्ञान-प्रसंगों के व्याख्याताओं को मूल पाठों के रटने में और उनके अर्थ जानने में सुविधा होगी तथा उनपर व्याख्यान देने में भी उन्हें सहायता मिलेगी।
आशा है, 'मानस' के प्रेमी और वक्ता इस पुस्तक को खरीदकर इससे लाभ उठाएँगे और मेरे श्रम को सार्थक करेंगे। जय गुरु !
संतनगर, बरारी, भागलपुर - ३ ( बिहार )
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