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LS29 क2 रामायण का महत्व || रामायण का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक महत्व Importance of Ramayana

रामायण का महत्व

     प्रभु प्रेमियों ! 'श्रीरामचरितमानस ज्ञान-प्रसंग' पुस्तक के प्रस्तावना प्रसंग के इस दूसरे पोस्ट में हमलोग जानेंगे-  रामायण का महत्व,  रामायण का सांस्कृतिक महत्व, रामायण का साहित्यिक महत्व, रामायण का आध्यात्मिक महत्व, रामायण पाठ का महत्व, रामायण से हमें क्या सीख मिलती है? रामायण का मुख्य संदेश क्या है? रामायण का सांस्कृतिक महत्व क्या है? रामायण का वास्तविक अर्थ क्या है? इत्यादि बातें। रामायण के महत्व को बताने वाले चित्र देखें--

इस लेख के पहले भाग को पढ़ने के लिए  👉 यहां दवाएँ।  


रामायण महत्व बरसाने वाले भारतीय टीकाकार
रामायण के महत्व


रामायण का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक महत्व

     प्रभु प्रेमियों ! पिछले लेख में हमलोगों ने पढा-- रामायण किसने लिखा? रामायण किसने लिखा और कब लिखा? रामायण किस युग में हुआ? रामायण किस भाषा में है? रामायण किस भाषा में रचित है? रामायण किसकी रचना है? रामायण किस किस ने लिखी? रामायण किसके द्वारा लिखी गई? रामायण किसने बनाई थी? रामायण किसे कहते हैं? रामायण किस किसने लिखी है?  रामायण किस सन में बनी?। इत्यादि बातें। 

रामायण टीका ग्रंथ
रामायण टीका ग्रन्थ
   अब इस लेख में हमलोग जानेंगे--  1. रामायण के लेखन कला की विशेषता,   2. रामायण के काव्य भी कुछ कहते हैं । 3.  श्रीरामचरितमानस के अर्थ    4. श्रीरामचरितमानस के चार घाट   5.  रामचरितसर की सात सीढ़ियां   6.  मोह का क्या अर्थ है?  7.  भगवान श्रीराम ने किनका मोह दूर किया है?   8.  भगवान श्रीराम कैसे थे ?   9.  भगवान श्रीराम के चरित्र से हमें क्या शिक्षा मिलती है?  10. भगवान श्रीराम से लोगों को क्या आशा है?   11.  भगवान श्रीराम की भक्ति कैसे प्राप्त होती है?   12.   रामचरितमानस हमें क्या सिखाती है?  13.  रामायण के राज्य और राजा कैसे थे?   14.  भगवान् श्रीराम का सुख-दुख में सामान भाव  15.  रामायण के पात्रों का स्वभाव  16.  भारत के मूलनिवासी आर्यों का स्वभाव  17.  रामचरितमानस में स्त्रियों का सत्कार । 

आइए प्रकरण का दूसरा भाग पढ़ते हैं--


रामायण लेखन की अद्भुत शैली  

गुरु शिष्य परंपरा
गुरु-शिष्य परंपरा
     गो० तुलसीदासजी की रामायण की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अन्य रामायणों की अपेक्षा श्रीराम कथा बड़े मर्यादित ढंग से लिखी है और उनकी वर्णन-शैली में भी बड़ी विचित्रता है । बहुत-सी बातें 'मानस' में घुमा-फिराकर कई बार कही गयी हैं; परंतु गोस्वामीजी की लेखन - कला ही ऐसी है कि पाठकों को इसका पता ही नहीं चल पाता और इस कारण वे ग्रंथ-पाठ करते हुए कभी ऊबते भी नहीं। गोस्वामीजी ने बहुत सोच-समझकर शब्दों की योजना की है; उनका एक-एक शब्द संकेत से बहुत कुछ कह जाता है; जो भाव सामान्य कवि के कई वाक्य मिलकर भी अभिव्यक्त नहीं कर पाते, वह गोस्वामीजी का एक ही शब्द पूर्णतः अभिव्यंजित करने की क्षमता रखता है।


रामायण के सभी काव्य अभिप्राऐययुक्त है

     'मानस' में कहीं-कहीं जो काव्य-दोष दिखलायी पड़ता है, वह भी अभिप्रायपूर्ण है, इसके द्वारा कवि ने कोई संकेत दिया है; कोई भाव प्रकट किया है। ऐसी बात नहीं कि कवि काव्य-दोष दूर करने में समर्थ नहीं थे; कविता-कामिनी तो उनके लिए भौंहों के इशारे पर नाचनेवाली नटिन के समान थी ।


श्रीरामचरितमानस के अर्थ

     'श्रीरामचरितमानस' के दो अर्थ हैं; एक अर्थ है - वह रामचरित, जो कभी शिवजी के मानस ( मन ) में गुप्त था। दूसरा अर्थ है - श्रीराम के चरित्रों का सरोवर ( मान सरोवर - मानस सरोवर)। दूसरे अर्थ में रामचरित की तुलना सरोवर से की गयी है। जिस प्रकार किसी सरोवर के चार घाट होते हैं और घाट से जल तक उतरने के लिए कई सीढ़ियाँ होती हैं, उसी प्रकार रामचरितसर के चार घाट हैं और सात सीढियाँ


श्रीरामचरितमानस के चार घाट

     गोस्वामी तुलसी दासजी ने अयोध्या में बैठकर 'श्रीरामचरितमानस' की रचना की, उसमें उनके अपने मन और पाठकों के बीच जो संवाद हैं, वह पहला घाट है। प्रयाग में याज्ञवल्क्यजी और भरद्वाजजी के बीच जो संवाद हुआ, वह दूसरा घाट है । कैलास पर्वत पर वट वृक्ष के नीचे जो उमा-शंभु- संवाद हुआ, वह तीसरा घाट है और सुमेरु पर्वत से उत्तर दिशा में स्थित नील गिरि पर भुशुंडिजी और गरुड़जी के बीच जो वार्तालाप हुआ, वह चौथा घाट है। यदि आप 'मानस' पढ़ेंगे, तो आपको पता चलेगा कि ये घाट अलग-अलग नहीं हैं; बल्कि पहले में दूसरा, दूसरे में तीसरा और तीसरे में चौथा समाया हुआ है।


रामचरितसर की सात सीढ़ियां

     रामचरितसर की सात सीढ़ियाँ या सोपान ये हैं - बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुन्दरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड—

सप्त प्रबंध सुभग सोपाना । ग्यान नयन निरखत मन माना ॥ ( बालकांड) एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना । रघुपति भगति केर पंथाना ॥ " (उत्तरकांड ) 

     इन सातो सीढ़ियों से उतरकर पाठक श्रीराम कीर्तिरूपी निर्मल जल में अवगाहन करके अपने आपको पवित्र कर सकते हैं।


मोह का क्या अर्थ है? 

     'रामचरितमानस' मोह-निवारक ग्रंथ है। यहाँ 'मोह' का अर्थ है- मिथ्या धारणा, भ्रम, शंका, संदेह, संशय, अज्ञानता, श्रद्धा या विश्वास का अभाव, अविवेक आदि। कुछ लोगों की यह धारणा हो सकती है कि श्रीराम साधारण मानव हैं, वे अलौकिक शक्तिसम्पन्न, आनंदस्वरूप और सर्वज्ञ नहीं हैं, वे भगवान् विष्णु या निर्गुण ब्रह्म के अवतार नहीं हैं। श्रीराम-विषयक इसी मोह को दूर करने के लिए मानसकार ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी है और जनमानस में व्याप्त इसी मोह को दूर कर देना ही मानस - रचना का उद्देश्य ज्ञात होता है।


भगवान श्रीराम ने किनका मोह दूर किया है? 

     इस मोह को मिटाने के लिए 'मानस' में मुख्यतः चार वक्ता प्रयास - रत दीखते हैं; जैसे गो० तुलसीदासजी पाठकों का, याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी का, भगवान् शिव पार्वतीजी का और भुशुंडिजी गरुड़जी का । स्वयं श्रीराम ने अपना ऐश्वर्य दिखाकर सतीजी, कौशल्याजी, परशुरामजी, इन्द्रपुत्र जयन्त, सुग्रीव, विभीषण और भुशुंडिजी के मोह का निवारण किया है। अयोध्याकांड में लक्ष्मणजी को भी गुह निषाद के इसी मोह का निवारण करना पड़ा है। रावण का मोह दूर करने का प्रयास हनुमान्जी, अंगदजी, विभीषण, पुलस्य मुनि, मारीच, कालनेमि, माल्यवन्त, कुंभकर्ण, प्रहस्त और दूत शुक ने भी किया है।


भगवान श्रीराम कैसे थे ? 

 

श्री राम जी के सहज स्वभाव
श्रीराम जी के सहज स्वभाव
  मानसकार कहना चाहते हैं कि श्रीराम के प्रति मानव - बुद्धि रखना उचित नहीं, यह तो उनके प्रति अपनी श्रद्धा का अभाव प्रकट करना है। वे मानव-शरीर धारण किये हुए रहने पर भी अपरंपार शक्तिसम्पन्न, आनंदघन और सर्वज्ञ थे, वे साधारण जीव की तरह अल्प शक्तिवाले, दीन-हीन और अल्पज्ञ नहीं थे। वे तो अपना ऐश्वर्य छिपाने के लिए साधारण मानव का सा आचरण करते दिखलायी पड़ते थे। उनका यह आचरण रंगमंच के किसी नट या अभिनेता के अभिनय की तरह दिखावा मात्र था; उनमें अल्पज्ञता, अल्प शक्तिमत्ता और दीनता-हीनता का आरोप करना अपनी श्रद्धाहीनता का परिचय देना है।

     (कबीर साहब आदि संत अवतार में विश्वास नहीं करते; उनका कथन है कि अनंत परमात्मा का अवतार नहीं हो सकता। श्रीराम भगवान् विष्णु के अवतार थे। सगुण रूप के दर्शन से भक्त को वह लाभ नहीं होता, जो लाभ निर्गुण स्वरूप का साक्षात्कार होने पर होता है। )

भगवान श्रीराम के चरित्र से हमें क्या शिक्षा मिलती है? 

     श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं, उनके चरित्र में वैदिक संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। उनकी कथाओं का पाठ या श्रवण, मनन  और उनका गुणानुवाद करने से जीवनी शक्ति प्राप्त होती है। उनका चरित्र हमें त्यागशीलता, सहिष्णुता, विनम्रता, परोपकारिता, दयालुता, समता और विपत्ति में धैर्य धारण करने की शिक्षा देता है।


भगवान श्रीराम से लोगों को क्या आशा है? 

     श्रीराम ही एक ऐसे महापुरुष हैं, जिनका भारत में पहले भी बड़ा सम्मान था, आज भी है और आगे भी रहेगा। वे भारतीय जनता के हृदय में रच-बस गये हैं। भारतीय जनता उन्हें ईश्वर के रूप में पूजती है, उनका चिंतन ( ध्यान ) करती है, उनपर पूरा आशा भरोसा रखती है; खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते, गिरते-पिछड़ते और संकट की घड़ी में भी उनका नाम लेना नहीं भूलती; अपनी सारी कामनाओं की पूर्ति के लिए भी वे उनकी ओर आशा लगाये रहती है


भगवान श्रीराम की भक्ति कैसे प्राप्त होती है? 

     मानसकार का कहना है कि किसी की महिमा जानने से उसके प्रति विश्वास जमता है, विश्वास जमने से उसके प्रति प्रेम जगता है और प्रेम जगने से उसकी भक्ति (सेवा) करने की भावना हृदय में उत्पन्न होती है । भक्ति से ही अंत में परम मोक्ष की प्राप्ति होती है। श्रीराम के प्रति हृदय में भक्ति भाव जगाने के लिए हमें प्रतिदिन उनकी कथाओं का पाठ या श्रवण करना चाहिए और उनके प्रति अटूट श्रद्धा भी रखनी चाहिए।

     श्रीराम ऐतिहासिक पुरुष थे या नहीं; मानस के पात्र और घटनाएँ वास्तविक हैं या काल्पनिक - इन सब बातों के पचड़े में न पड़कर हमें श्रीराम के प्रति निष्ठा बनाये रखनी चाहिए और 'मानस' के उपदेशों को जीवन में उतारकर अपना परम कल्याण कर लेना चाहिए ।


रामचरितमानस हमें क्या सिखाती है? 

     हमारे सारे दुःखों की जननी है— हमारी सांसारिक आसक्ति । सांसारिक आसक्तियों में सबसे बड़ी आसक्ति है. - राज्य की आसक्ति । 'गीता' की तरह 'मानस' भी हमें त्याग और समत्व - लाभ की शिक्षा देता है। हमें सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान, हर्ष-विषाद, अनुकूलता-प्रति- कूलता आदि सभी द्वंद्वों में अपने मन की स्थिति को एकसमान बनाये रखने का अभ्यास करना चाहिए, तभी हमें संसार में चैन मिल सकता है। समत्व प्राप्त भगवान् श्रीराम के चरित्र से हमें ऐसी ही शिक्षा मिलती है।

 

श्री राम वनवास
श्री राम वनवास
   राज्य की आसक्ति के कारण संसार में बड़े-बड़े अनर्थ हुए हैं; बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ हुई हैं। शाहजहाँ गद्दी के बड़े लोभी थे और उनका पुत्र औरंगजेब भी । जब औरंगजेब ने देखा कि उसके पिता बूढ़े हो चले हैं, फिर भी वे गद्दी का लोभ नहीं छोड़ पा रहे हैं, तब उसने पिता को कैद में डाल दिया और स्वयं गद्दी पर बैठ गया। अपने भाइयों की ओर से आशंकित होने पर उसने भाइयों की भी हत्या करा दी। सम्राट् अशोक ने भी एक छत्र राज्य के लिए अपने भाइयों को मृत्यु के घाट उतार दिया था ।


रामायण के राज्य और राजा कैसे थे? 

     दूसरी ओर राजा दशरथ, श्रीराम और भरतजी की राजसिंहासन- संबंधी निर्लोभता देखने को मिलती है। राजा दशरथ ने एक दिन दर्पण में देखा कि उनके कान के पास के कुछ केश सफेद हो चले हैं; वे समझ गये कि अब उनका बुढ़ापा आ गया। वे अविलम्ब सोच बैठे कि अब राजगद्दी ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को दे देनी चाहिए। वे अपने गुरु वशिष्ठजी, मंत्री सुमंत्रजी जी आदि से सलाह करके श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी में लग गये।


भगवान् श्रीराम का सुख-दुख में सामान भाव

     इसी बीच दासी मंथरा के कुचक्र के कारण कैकेई माता की बुद्धि बिगड़ती है, वे राजा दशरथ से भरत के लिए राजगद्दी और श्रीराम के लिए चौदह वर्ष का निर्वासन माँग लेती हैं। यह समाचार सुनकर श्रीराम तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे राज्याभिषेक की भी बात सुनकर हर्षित नहीं हुए थे और अपना निर्वासन भी सुनकर दुःखित नहीं हुए। वे सीताजी और लक्ष्मणजी के साथ बिना देर किये जंगल चले गये ।


रामायण के पात्रों का स्वभाव

     भरतजी ननिहाल में थे; वे ननिहाल से शत्रुघ्नजी के साथ अयोध्या आये और पिता दशरथजी का प्रयाण तथा श्रीराम का जंगल जाना सुनकर अत्यन्त दुःखित हुए। उन्होंने अयोध्या की राजगद्दी पर बैठना स्वीकार नहीं किया । पिता की और्ध्वदैहिक क्रिया करके वे अपने दल-बल के साथ श्रीराम को अयोध्या लौटा लाने और उन्हें राजगद्दी सौंपने के ख्याल से जंगल गये ।

श्रीराम दरबार
श्री राम दरवार
    बहुत आग्रह करने पर भी जब श्रीराम न अयोध्या लौटने के लिए तैयार हुए और न शासन सँभालने के लिए, तब भरतजी विवश होकर उनके प्रतिनिधि के रूप में अयोध्या का शासन-भार चौदह वर्षों के लिए सँभालने के लिए राजी हुए। त्याग का ऐसा आदर्श विश्व इतिहास में शायद ही कहीं मिले। श्रीराम और भरतजी ने प्राप्त राज्य संपदा को फुटबॉल की तरह लात मारकर एक-दूसरे की ओर सरकाया।


भारत के मूलनिवासी आर्यों का स्वभाव

     आर्य 'जियो और जीने दो' के उदार सिद्धांत पर दृढ़तापूर्वक अवस्थित हैं। ये भारत के मूल निवासी हैं। यह कहना गलत है कि आर्य कहीं बाहर से भारत आये हुए हैं। सही बात तो यह है कि आर्यों की कभी आक्रामक भावना रही ही नहीं; इन्होंने कभी दूसरे देशों पर चढ़ाई नहीं की। अभी हाल ही में भारत ने पूर्वी पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान मुक्त कराया और उसे अपने में न मिलाकर एक स्वतंत्र देश (बँगला से देश) बनकर रहने में सहायता की।

     श्रीराम ने भी बालि को मारकर किष्किंधा के राजसिंहासन पर सुग्रीव को और रावण को मारकर विभीषण को लंका के राजसिंहासन पर बिठाया; किष्किंधा और लंका को अपने राज्य में मिला लेने का उन्होंने तनिक भी लोभ नहीं किया।


रामचरितमानस में स्त्रियों का सत्कार

     रानी कैकेयी की स्वार्थ सिद्धि के चलते अयोध्या में कितना बड़ा अनर्थ हुआ ! श्रीराम को सीता और लक्ष्मणजी के साथ चौदह वर्षों के लिए जंगल जाना पड़ा; अयोध्या की सारी जनता शोक-सागर में डूब गयी; श्रीराम के वियोग में राजा दशरथ परलोक सिधार गये, फिर भी श्रीराम ने माता कैकेयी के प्रति पूर्ववत् सद्भाव बनाये रखा, उनसे तनिक भी द्वेष नहीं किया; कभी उनको कटु वचन कहकर डाँटा-फटकारा तक नहीं।


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     प्रभु प्रेमियों ! इस पोस्ट के इस लेख का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि  रामायण क्यों पढ़ना चाहिए? रामायण पढ़ने से क्या लाभ होता है? रामायण का हमारे जीवन में क्या महत्व है? रामायण से हमें क्या शिक्षा मिलती है? घर में रामायण पाठ करने से क्या होता है? भगवान राम से हमें क्या सीखना चाहिए? रामायण का मुख्य संदेश क्या है? इत्यादि बातें। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग के  सदस्य बने।  इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी।



LS27  रामचरितमानस ज्ञान-प्रसंग


विशिष्ट संस्करण  रामचरितमानस शास्त्री का विशिष्ट संस्करण
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LS29 क2 रामायण का महत्व || रामायण का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक महत्व Importance of Ramayana LS29 क2   रामायण का महत्व  ||  रामायण का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक महत्व  Importance of Ramayana Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/08/2023 Rating: 5

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