ध्यानाभ्यास कैसे करें / 01ग
सिद्धिदायक मंत्र जप-विधि. Siddhidayak Mantra Chanting Method--
मानस जप :
जप के समय मन को पूरी तरह मंत्र में ही लगाकर रखना चाहिए ; नयनाकाश के अंधकार की ओर ख्याल नहीं करना चाहिए , वह अधंकार तो अत्यन्त गौण रूप से दिखाई पड़ेगा ही । ' धरि गगन डोर अपोर परखै , पकरि पट पिउ पिड करै ।'- ' घटरामायण ' की इस पंक्ति के उत्तरांश में संत तुलसी साहब का आदेश है कि प्रथम पट अर्थात् अंधकार मंडल में एकाग्र होकर वर्णात्मक नाम का जप करो । यहाँ ' पकरि पट ' का अर्थ ' प्रथम पट ( अंधकार मंडल ) को गौर से देखते हुए ' नहीं लेना चाहिए । जब हम आँखें खोलकर एकाग्रतापूर्वक मानस जप करते हैं , तो आस - पास की सब चीजें गौण रूप से दिखलायी पड़ती हैं , परन्तु जब हम किसी चीज पर दृष्टि गड़ाकर मानस जप करते हैं , तो मन दृष्टि के साथ उस चीज की ओर विशेष रूप से खिंच जाता है और वह जप में पूरी तरह एकाग्र नहीं हो पाता है.
दोनों भौंहों के बीच ख्याल रखते हुए मानस जप करनेवाला साधक मानस जप और मानस ध्यान दोनों एक ही साथ करता है , जिससे उसका मन पूरी तरह किसी भी ओर एकाग्र नहीं हो पाएगा । दोनों भौंहों के बीच के ख्याल रखना दोनों भौंहों के बीच के भाग का मानस ध्यान करना है .
सामान्यन्तः इष्ट के वर्णात्मक नाम का जप करना सुमिरन कहलाता है ; परन्तु विशेष अर्थ में सभी साधना - पद्धतियों और उनके सभी सहायक अंग सुमिरन के अन्दर आ जाते हैं ; देखें- ' जप तप संयम साधना , सब सुमिरन के माहिं । ' ( संत कबीर साहब )
‘ साँझ भये गुरु सुमिरो भाई , सुरत अधर ठहराई । ' इस पंक्ति में सद्गुरु महर्षि में ही परमहंसजी महाराज कहते हैं कि सुरत को अधर ( आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु , आन्तरिक ब्रह्माण्ड ) में ठहराकर सुमिरन करो । यहाँ सुमिरन करने का अर्थ है - विन्दु - ध्यान और नाद - ध्यान करना , न कि मानस जप और मानस ध्यान करना । मानस जप और मानस ध्यान में से कोई भी साधना साधक की सुरत को अधर में प्रविष्ट नहीं करा पाती । ऐसी शक्ति केवल विन्दु - ध्यान और नाद - ध्यान को ही प्राप्त है । मानस ध्यानाभ्यास साधक की सुरत को स्थूल मंडल के शिखर पर नहीं , शिखर के आस - पास तक ही पहुँचा पाता है ।
मानस जप में मन नहीं लगे , तो उपांशु जप करना चाहिए और उपांशु जप में भी मन नहीं लगे , तो मौखिक जप करना चाहिए ; परन्तु उपांशु जप और मौखिक जप एकांत में करना चाहिए , लोगों के सामने नहीं । जब मन बहुत अशांत हो , तब मौखिक जप से विशेष लाभ पहुँचता है । दिल्ली से एक मुसलमान आया हुआ था , वह बड़ा व्यग्र और अशांत था , गुरुदेव ने उसे ' अल्लाह ! अल्लाह ! ' का मौखिक जप करने का आदेश दिया था ।
संतमत के सत्संगी विशेषकर मानस जप ही किया करते हैं । कुप्पाघाट आश्रम के सत्संग - मंदिर में गुरुदेव कभी - कभार साप्ताहिक सत्संग के अवसर पर रविवार को अपराह्न - काल स्तुति - विनती के बाद उपस्थित सभी सत्संग - प्रेमियों से क्रमश : कुछ देर तक मौखिक जप , कुछ देर तक उपांशु जप और कुछ देर तक मानस जप कराया करते थे और स्वयं भी किया करते थे ; परन्तु ऐसा करने को उन्होंने अनिवार्य नियम नहीं बनाया था ।
जो साधक साधना में शीघ्र उन्नति चाहते हैं , उन्हें चाहिए कि वे काम करते हुए भी मन को जप में लगाये रखें । जिस प्रकार किसी को चौड़ा नाला पार करना होता है , तो वह दूर से दौड़ता हुआ आकर और छलाँग लगाकर उस चौड़े नाले को पार कर जाता है , उसी प्रकार त्रय काल की संध्याओं में मानस ध्यान में डूबने की इच्छा रखनेवाले साधकों को चाहिए कि वे पहले से ही मानस जप करते रहें । सुमिरन - ध्यान सुरत का खेल है , सदैव गुरु - मंत्र का जप करनेवाला तथा इष्ट की ओर ख्याल लगाये रखनेवाला साधक ही साधना में शीघ्र उन्नति कर पाता है और साधना का लाभ भी उठा पाता है । यह स्वाभाविक है कि जिस कार्य में हम विशेष सच्चाई , तत्परता और संयम के साथ अधिक - से - अधिक समय लगाएँगे , उसमें हम आगे बढ़ जाएँगे ।
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लेखक |
जप सभी यज्ञों में श्रेष्ठ बतलाया गया है - ' यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि । ' ( गीता , अ ०१० , श्लोक २५ ) जप की साधना बहुत प्राचीन साधना है । यजुर्वेद के निम्नलिखित मंत्र में मानस जप के साथ - साथ मानस ध्यान और दृष्टियोग का भी उल्लेख हुआ है--
ओ३म् युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियम् । अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत् ॥
जबतक हम जाग्रत् और स्वप्न अवस्था में रहते हैं , तबतक हमारे मन में कुछ - न - कुछ भाव - विचार उपजते ही रहते हैं , जो हमारे मानसिक सुख-दुख के कारण हुआ करते हैं । गहरी नींद में हम सभी भाव - विचारों से मुक्त हो जाते हैं , सुख - दुःख के इसीलिए गहरी नींद हमारे लिए सुखदायिनी होती है । जाग्रत् अवस्था में मानस जप के अतिरिक्त सुखद - दुःखद भाव - विचारों से छुटकारा पाने का दूसरा कोई उपाय ही नहीं है । इसमें मन सतत चलनेवाले चिन्तन - प्रवाहों को छोड़कर पाने का दूसरा केवल मंत्र के शब्द में ही सिमट जाता है । जप की साधना ऋषियों की बहुत बड़ी खोज है । इससे इस दुःखमय संसार में लोगों को बड़ी राहत मिलती है । इससे मन की एकाग्रता प्राप्त होती है , शारीरिक शक्ति तथा स्फूर्ति बढ़ती है , ज्ञान - विवेक बढ़ जाता है और आनंद भी प्राप्त होता है ।
जप की साधना लोग लौकिक कामनाओं की पूर्त्ति , विपत्ति - कष्ट के निवारण , स्वास्थ्य लाभ और अनुचित कामों की सिद्धि के लिए भी करते हैं । ' मंत्र ' शब्द का अर्थ ही होता है जो मनन किये जाने पर विपत्ति या संकट से रक्षा करे- ' मननात् त्रायते यस्मात् तस्मात् मंत्र : परिकीर्त्तितः । '
जो गुरु के द्वारा बतलाये गये मंत्र और उसकी महत्ता पर विश्वास करता है तथा प्रेमपूर्वक उसका जप करता है , उसी को मंत्र की सिद्धि होती है , अन्यों को नहीं । एक व्यक्ति मंत्र जप के लाभ और महत्त्व में विश्वास नहीं करता था । गुरुदेव ने उससे कहा कि आप जप की साधना किये बिना कैसे कह सकते हैं कि जप से कुछ भी लाभ नहीं होता है ।
संतमत सत्संग के एक सत्संगी के युवक पुत्र ने कृष्ण - मंत्र सिद्ध कर लिया था । उससे कोई कुछ प्रश्न करता था , तो वह अपनी बाँह पर राख लगा लेता था , तब लोगों को उसमें भगवान् कृष्ण दिखलायी पड़ने लग जाते थे और प्रश्न का उत्तर भी लिखित रूप में आ जाता था । एक दिन गुरुदेव के कमरे में और उनकी ही उपस्थिति में किसी ने उस युवक से पूछा कि बतलाइए तो , गुरुदेव की आयु कितनी है ? उस दिन उसने अपनी बाँह पर राख तो लगायी ; परन्तु न तो भगवान् ही दिखलायी पड़े और न प्रश्न का उत्तर ही लिखित रूप में आया ।
मानस ध्यान :
मानस जप के द्वारा जब मन कुछ सिमटाव में आ जाए , तब इष्ट के देखे हुए स्थूल रूप का मानस ध्यान करना चाहिए । मानस ध्यान के अभ्यास मुख और नेत्र बन्द करके इष्ट के स्थूल रूप का बारम्बार स्मरण या ख्याल करते हुए उसे मानस पटल पर ज्यों - का - त्यों उगा लेने का प्रयत्न किया जाता है । ज्यों - का - त्यों उगा हुआ रूप मनोमय होता है ।
मानस ध्यान की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है- ' इष्ट के प्रत्यक्ष या चित्र में देखे गये स्थूल रूप का बारंबार चिंतन करके उसका ज्यों - का - त्यों मनोमय रूप उगा लेना मानस ध्यान कहलाता है । ' संतमत की एक सत्संगी महिला का जब मानस ध्यान पूर्ण हो गया , तो उन्हें सर्वत्र गुरुदेव का ही हँसता हुआ मुखमंडल दिखलायी पड़ने लगा , चाहे उनकी आँखें बंद होतीं या खुलीं । जिनसे हमारा अत्यधिक प्रेम होता है उनके मुखमंडल को सदैव देखते रहने की हमारी इच्छा होती है , अत : हमारे ख्याल में उनके मुखमंडल का आना स्वाभाविक ही है । जो हमारा विशेष प्रेमपात्र होता है , उसका रूप हमारे मानस पटल पर अंकित हो जाता है ।
मानस ध्यानाभ्यास के आरम्भिक चरण में इष्ट के स्थूल शरीर के नख से लेकर शीश तक के सभी अंग - प्रत्यंगों का बारम्बार स्मरण किया जाता है , दूसरे चरण में केवल मुख - मंडल का ही । ऐसा करने पर मन फैलाव.... क्रमशः
इस पोस्ट के बाद 'मानस ध्यान ' का बर्णन हुआ है, उसे पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं.
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