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LS25 ध्यानाभ्यास कैसे करें 01 || वैदिक ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं और आधुनिक महंतों की साधना पद्धति

 ध्यानाभ्यास कैसे करें / 01

     प्रभु प्रेमियों  !  लालदास साहित्य सीरीज के 25 वीं पुस्तक 'ध्यानाभ्यास कैसे करें ? के इस लेख में  साधना पद्धति की महिमा, संतमत किसे कहते हैं?  संत कौन है? क्या आत्मज्ञ ऋषि संतों के श्रेणी में है? संतमत का उपदेश और उद्देश्य किसलिए है? साधना क्या है? आध्यात्मिक साधना का प्रतीक क्या है? आध्यात्मिक गुरु और इष्ट की जानकारी, संतमत सत्संग की साधना पद्धति और मानस जप इत्यादि बातें.

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वैदिक ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं और आधुनिक महंतों की साधना पद्धति


वैदिक ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं और आधुनिक महंतों की साधना पद्धति


१. संतमत की साधना पद्धति :

     मन की स्थिरता , बुद्धि की समता या आत्मज्ञान प्राप्त करके जो परम शांति को प्राप्त कर गये होते हैं , वे ही संत कहलाते हैं । इस न्याय से प्राचीन काल के सभी आत्मज्ञ ऋषि भी संतों की श्रेणी में आ जाते हैं । सभी संतों के मूलभूत विचार , ज्ञान , शिक्षा या उपदेश को संतमत कहते हैं । समस्त दुःखों से छूटने और परम संतुष्टिदायक सुख प्राप्त करने की प्रवृत्ति प्रत्येक मनुष्य के हृदय में स्वाभाविक ही है । मनुष्यों की इसी प्रवृत्ति के अनुकूल उन्हें के परमेश्वर की भक्ति के द्वारा जन्म - मरण के चक्र से सदा के लिए छुड़ाकर परम शांतिदायक सुख प्राप्त करा देना संतमत का उद्देश्य है ।

     कोई कार्य सम्पन्न करने के लिए बारंबार किये जानेवाले अभ्यास को साधना कहते हैं और जिस विधि से वह अभ्यास किया जाता है , उसे पद्धति कहते हैं । इस प्रकार संतों के मतानुसार , परमेश्वर की भक्ति पूरी करके परम मोक्षरूप कार्य सिद्ध कर लेने की जो विधि है , वही संतमत की साधना - पद्धति है । यदि ' साधना ' का अर्थ उपासना लिया जाए , तो ' संतमत की साधना - पद्धति ' का अर्थ होगा - संतों के मतानुसार परमेश्वर की उपासना करने की विधि । 

    आध्यात्मिक साधना में मन की वृत्ति को एकाग्र करने , अन्तर्मुख करने अथवा परमात्मा की ओर फेरने के लिए जिसका सहारा लिया जाता है , वह प्रतीक कहलाता है । स्थूल सगुण उपासना में ये प्रतीक साधकों की रुचि और श्रद्धा के अनुसार भिन्न - भिन्न हो सकते हैं ; परन्तु सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म उपासना में ये प्रतीक सबके लिए केवल दो ही रह जाते हैं , वे हैं- अन्तर्ज्योति और अन्तर्नाद । 

     वे जो ईश्वर भक्ति की युक्ति बतलाते हैं , वे आध्यात्मिक गुरु होते हैं और जिनके नाम का जप तथा स्थूल रूप का मानस ध्यान किया जाता है , इष्ट कहलाते हैं । किसी - किसी धार्मिक सम्प्रदाय में गुरु तथा इष्ट भिन्न भिन्न होते हैं और किसी - किसी सम्प्रदाय में गुरु ही इष्ट होते हैं । संतमत सत्संग के साधकों के लिए गुरु और इष्ट- दोनों पूज्यपाद् महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज ही होते हैं । संतमत सत्संग में जो दीक्षा देने का काम करते हैं , उन्हें प्रतिनिधि - गुरु कह सकते हैं । सभी धार्मिक सम्प्रदायों के अन्तिम इष्ट परमात्मा ही होते हैं । 

सूक्तियों के लेखक बाबा लालदास जी महाराज
लेखक

     संतमत सत्संग की साधना पद्धति चार प्रकार की है ; उनके नाम क्रम - सहित इस प्रकार हैं - मानस जप , मानस ध्यान , दृष्टियोग ( शून्य - ध्यान , विन्दु - ध्यान या ज्योति - ध्यान ) और सुरत - शब्द - योग या नादानुसंधान । इनमें से प्रत्येक पहली पद्धति अभ्यास के द्वारा पूरी होने पर दूसरी पद्धति का अभ्यास करने की क्षमता प्रदान करती है । ये सभी पद्धतियाँ राजयोग ( ध्यानयोग ) से संबंध रखती हैं , न कि हठयोग से । इसलिए इनमें हठयोग की तरह कुछ भी शारीरिक क्रिया नहीं करनी पड़ती ; जो कुछ भी किया जाता है , वह मन , दृष्टि या सुरत के द्वारा । संतमत सत्संग की इन साधना - पद्धतियों की मूलभित्ति वेद - उपनिषद् के ही वाक्य हैं । अनेक अवैदिक मतों में भी ये पद्धतियाँ किसी - न - किसी रूप में अवश्य ही प्रचलित हैं । 


मानस जप : 

     जो जितना अधिक पवित्र होता है , उसका नाम भी उतना ही अधिक पवित्र होता है ; क्योंकि उसका नाम उच्चारित करने से उसके सद्गुणों की स्मृति हो आती है , जिससे हृदय पवित्र हो जाता है । संसार में अत्यन्त पवित्र संत सद्गुरु ही होते हैं , इसलिए उनका नाम भी अत्यन्त पवित्र होता है । जो हमारी भलाई करता है , उसकी ओर स्वभावतः हमारा मानसिक झुकाव होता है ,  उससे हमारा प्रेम हो जाता है और उसका नाम अनायास हमारे मन में, ओष्ठों पर बारम्बार आता रहता है ।  इसी प्रकार उसका रूप भी सहज रूप से हमारे ख्याल में आता रहता है । 

     संत सद्गुरु हमारे सबसे बड़े उपकारी होते हैं , इसीलिए उन्हीं के नाम मंत्र के रूप में ग्रहण करना चाहिए और उन्हीं के स्थूल रूप का ध्यान भी किया जाना चाहिए । यदि ऐसा संभव नहीं हो , तो अपने सम्प्रदाय के नियमों के अनुसार चलना चाहिए अर्थात् अपना सम्प्रदाय जिस मंत्र का जप करने के लिए कहे , उसका जप करे और जिस स्थूल रूप का ध्यान करने के लिए कहे , उसका ध्यान करे । हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हम जिन व्यक्ति का ध्यान करेंगे , उनके गुण हममें आ जाएँगे । 

     जपने का मंत्र छोटे - से - छोटा , सुनने में मधुर लगनेवाला , उच्चारण सुकर और गेयता से भी भरपूर होना चाहिए अर्थात् वह मंत्र ऐसा हो कि उसे गाते हुए भी हम जप सकें । गाते हुए मंत्र का जप करने से श्रम कम लगता है और मन को आनंद भी आता है । कम अक्षरोंवाला मंत्र होने से उसके जय स ग हुए क सि यह तब साम का नारि लगा भी शब्द..... क्रमशः


इस पोस्ट के बाद 'मानस जप' का बर्णन हुआ है,  उसे पढ़ने के लिए   👉 यहां दबाएं.



प्रभु प्रेमियों ! इस लेख में  साधना करने से क्या होता है? साधना का अर्थ क्या होता है? साधना कितने प्रकार के होते हैं? साधना कैसे की जाती है? संतमत सिद्धांत, संतमत के अंश, संतमत शब्द का अर्थ व्याख्या, भारत में परंपरा परिपाटी, संतमत सत्संग, भारत में पुरानी पारंपरिक स्थितियाँ,  इत्यादि बातों को  जाना. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार  का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है. जय गुरु महाराज.


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