ध्यानाभ्यास कैसे करें / 01क
जप के कई प्रकारों में वाचिक, उपांशु और मानस जप की साधना-सिद्धी--
मानस जप :
जो जितना अधिक पवित्र होता है , उसका नाम भी उतना ही अधिक पवित्र होता है ; क्योंकि उसका नाम उच्चारित करने से उसके सद्गुणों की स्मृति हो आती है , जिससे हृदय पवित्र हो जाता है । संसार में अत्यन्त पवित्र संत सद्गुरु ही होते हैं , इसलिए उनका नाम भी अत्यन्त पवित्र होता है । जो हमारी भलाई करता है , उसकी ओर स्वभावतः हमारा मानसिक झुकाव होता है , उससे हमारा प्रेम हो जाता है और उसका नाम अनायास हमारे मन में, ओष्ठों पर बारम्बार आता रहता है । इसी प्रकार उसका रूप भी सहज रूप से हमारे ख्याल में आता रहता है ।
संत सद्गुरु हमारे सबसे बड़े उपकारी होते हैं , इसीलिए उन्हीं के नाम मंत्र के रूप में ग्रहण करना चाहिए और उन्हीं के स्थूल रूप का ध्यान भी किया जाना चाहिए । यदि ऐसा संभव नहीं हो , तो अपने सम्प्रदाय के नियमों के अनुसार चलना चाहिए अर्थात् अपना सम्प्रदाय जिस मंत्र का जप करने के लिए कहे , उसका जप करे और जिस स्थूल रूप का ध्यान करने के लिए कहे , उसका ध्यान करे । हमें यह भी याद रखना चाहिए कि हम जिन व्यक्ति का ध्यान करेंगे , उनके गुण हममें आ जाएँगे ।
जपते हुए महर्षि मेंहीं |
जपने का मंत्र छोटे - से - छोटा , सुनने में मधुर लगनेवाला , उच्चारण सुकर और गेयता से भी भरपूर होना चाहिए अर्थात् वह मंत्र ऐसा हो कि उसे गाते हुए भी हम जप सकें । गाते हुए मंत्र का जप करने से श्रम कम लगता है और मन को आनंद भी आता है । कम अक्षरोंवाला मंत्र होने से उसके जय से मन का मन का शीघ्र सिमटाव हो जाता है । अधिक अक्षरों या शब्दोंवाले मंत्र का जप करने पर मन बिखरा हुआ रहता है ; मन की एकाग्रता शीघ्र नहीं होती है । मंत्र का शब्द संबोधनात्मक भी होना चाहिए , क्योंकि मंत्र के द्वारा हम अपने मानस मंदिर में अपने इष्ट का आवाहन करते हैं । ' हे राम ' एक आदर्श मंत्र का उदाहरण है , इसका नियमित जप महात्मा गाँधीजी भी किया करते थे ।
गुरु जन को उनका नाम लेकर पुकारना अपमानजनक होता है ; परन्तु संबंध - सूचक शब्द के द्वारा उन्हें पुकारना अपमानजनक नहीं होता , इससे उनके प्रति सम्मान ही प्रकट होता है ; जैसे-- हे सद्गुरु ! हे पिताजी ! हे भाईजी !
संतमत - सत्संग के साधक गुरुमंत्र का ही जप किया करते हैं । यह गुरुमंत्र सबसे छोटा और संबोधनात्मक है । ' गुरुमंत्र ' का शब्दगत अर्थ है - संत सद्गुरु के द्वारा बतलाया गया मंत्र अथवा ' गुरु ' शब्द ही जो मंत्र हो । गुरुमंत्र कोई नया मंत्र नहीं है , यह अत्यन्त प्राचीन काल से व्यवहृत होता आ रहा है । ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए कि गुरुमंत्र का प्रचार कलियुग में कबीर साहब , गुरु नानक देव आदि संतों ने किया है । यथार्थ बात तो यह है कि गुरुमंत्र का जप प्राचीन काल में भी साधक किया करते थे और आज भी किया करते हैं ।
' गुरु - गीता ' में भगवान् शिव ने पार्वतीजी से गुरुमंत्र की महत्ता बतलाते हुए कहा है कि हे देवि ! दो अक्षरोंवाला यह गुरुमंत्र महामंत्र है अर्थात् सभी मंत्रों का राजा हैं , श्रद्धा विश्वास और प्रेम के साथ इसका जप करने से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है- ' मंत्रराजमिदं देवि गुरुरित्यक्षर द्वयम् । ' भगवान् शिव का यह कथन असत्य नहीं हो सकता । जब तीनों लोकों में गुरु की बड़ी प्रतिष्ठा है , तब गुरुमंत्र सभी मंत्रों से बढ़ - चढ़कर क्यों नहीं होगा ! ईश्वर - कोटि के देवता , सामान्य देवता , मानव या दानव ही क्यों न हों , सभी गुरु का सम्मान करते हैं ; गुरु का सम्मान किये बिना किसी का भी कल्याण नहीं हो सकता । गुरुमंत्र का अनादर करने का साहस कोई भी साधक नहीं कर सकता । चाहे कोई आस्तिक हो या नास्तिक , सभी गुरु को आदरणीय और पूजनीय मानते हैं ।
वाणी या केवल मन से के द्वारा बतलाये गये मंत्र की बारम्बार लगातार आवृत्ति करना जप कहलाता है । जप करनेवाले को जापक या जापी भी कहते हैं ।
जप स्थूल सगुण अरूप - उपासना है ; क्योंकि जप का वर्णात्मक शब्द स्थूल शरीर से उत्पन्न होने के कारण स्थूल , त्रिगुणमय होने से सगुण और अदृश्य (निराकार) होने से अरूप होता है. ( शब्द कान का विषय है, आँख का नहीं । आँखों से जो लिपि या लिखावट देखते हैं , वह तो मौखिक और अदृश्य अक्षर या शब्द का संकेत मात्र है । ) जप स्थूल सगुण रूप - उपासना ( मानस ध्यानाभ्यास ) करने की क्षमता प्रदान करता है , इसीलिए यह स्थूल रूप - उपासना के अन्तर्गत सगुण लिया जाता है ।
बाबा लालदास जी महाराज |
जप मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं - वाचिक , उपांशु और मानसा । संतमत सत्संग में जप के ये ही तीन प्रकार बतलाये जाते हैं , वैसे जप के दूसरे भी कई प्रकार हैं । वाचिक जप में मंत्र का उच्चारण ऊंचे स्वर में किया जाता है , जिससे उच्चारित मंत्र के शब्दों को जापक और जापक के आस - पास के लोग भी सुन पाते हैं । ' वाचिक जप ' का अर्थ है - वचन ( वाणी ) के द्वारा किया गया जप । इसी प्रकार ' मौखिक जप ' का शाब्दिक अर्थ है - मुख के द्वारा किया गया जप । चूँकि वाचिक जप मुख के उच्चारण - अवयवों के द्वारा होता है , इसीलिए इसे ' मौखिक जप ' भी कहते हैं ।
उपांशु जप बहुत मंद स्वर में किया जाता है , जिससे जप के शब्दों को जापक के ही कान सुन पाते हैं , जापक के आस - पास के दूसरे लोगों के कान नहीं । दूसरे लोग इतना ही देख पाते हैं कि जापक कुछ बुदबुदा रहा है । उपांशु जप के समय मुँह से निकलनेवाली आवाज की तुलना कानाफूसी की आवाज से की जा सकती है । उपांशु जप वाचिक जप या मौखिक जप का ही एक प्रकार है , इसे वाचिक उपजप भी कहते हैं । ‘ उपाशु ' शब्द ' उप ' और ‘ अंशु ' की संधि से बना है । ' उप ' का अर्थ है - निकट , थोड़ा , छोटा , प्रयत्न और ' अशु ' का अर्थ है - किरण , भाग , छोटा कण , गति । उपाशु जप में जापक को वाचिक जप की अपेक्षा कम मौखिक प्रयत्न या श्रम करना पड़ता है ।
सुफी संतों ने जप को जिक्र , वाचिक जप को जिक्र जली ( व्यक्त जप ) और उपाश् जप या मानस जप को जिक्र खफी ( अव्यक्त जप ) कहा है ।
लेखक |
वाचिक जप और उपांशु जप में जिह्वा , ओष्ठ आदि मुख के सभी उच्चारण - अवयवों का उपयोग होता है । दूसरे शब्दों में ऐसा भी कह सकते हैं कि वाचिक जप और उपांशु जप में वैखरी वाणी का उपयोग होता है । म्मनस जप में मुख के उच्चारण - अवयवों का कुछ भी उपयोग नहीं होता । इसमें ओष्ठ बंद रहते हैं और मुख के भीतर जिभ्या भी स्थिर रहती है ; ओष्ठ या जिभ्या में थोड़ा भी कंपन नहीं होता है ; मन - ही - मन मंत्र की आवृत्ति की जाती है । इसीलिए मानस जप के शब्दों को अपने कान भी नहीं सुन पाते ; इसके शब्द मनोमय होते हैं । जिस प्रकार हम चुपचाप कहीं बैठे रहते हैं , तो मन - ही - मन कुछ - न - कुछ सोचते रहते हैं , उसी प्रकार मानस जप में मन - ही - मन मंत्र की आवृत्ति की जाती है । ' मानस जप ' का शाब्दिक अर्थ ही होता है केवल मन से संबंध रखनेवाला जप । मानस जप सब जपों का राजा कहा जाता है ; क्योंकि इसमें मन अपेक्षाकृत अधिक सिमटता है ।
वाचिक जप और उपांशु जप के समय असावधान रहने के कारण ऐसा भी हो सकता है कि मुँह से स्वतः मंत्र के शब्द उच्चरित होते रहें और मन अन्य बातों के चिन्तन में लगा रहे ; परन्तु मानस जप के समय ऐसा नहीं हो सकता । मानस जप के समय एक ही साथ जप और अन्य बातों का चिन्तन नहीं हो सकता । जपमाला पर , श्वास - प्रश्वास पर या अंगुलि पर किये जानेवाले जप में मन पूरी तरह एकाग्र नहीं हो पाता ; क्योंकि वह जपमाला , श्वास - प्रश्वास या अंगुलि की ओर भी बँट जाता है ।
संतमत - सत्संग की साधना में माला - जप , साँस - जप या अंगुलि - जप की विधि का कोई स्थान नहीं है । सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज ने इन सब विधियों से न स्वयं कभी जप किया और न कभी शिष्यों को ही ऐसा करने का आदेश दिया । ' साँस - साँस में नाम सुमिरि ले -इस संतवाणी का अर्थ यह लेना चाहिए कि जिस प्रकार निरंतर साँस चलती रहती है , उसी प्रकार निरंतर जप करते रहना चाहिए ।
मानस जप पूरी एकाग्रता के साथ किया जाता है । जप के समय आनेवाले तरह - तरह के चिन्तनों या गुनावनों को हटाकर बारम्बार जप के शब्दों में मन को संलग्न करना पड़ता है । जब मन जप के शब्दों को छोड़कर अन्य गुनावनों में नहीं लगे , तब समझना चाहिए कि जप अच्छी तरह हो रहा है । पहले मन को हठपूर्वक जप के शब्दों में लगाना पड़ता है ; परन्तु जब जप का पूरा अभ्यास हो जाता है , तब बिना प्रयास के ही स्वतः मानस जप निरन्तर होता रहता है । यह जप की सिद्धि का लक्षण है । ऐसा होना असंभव नहीं माना जाना चाहिए । जैसे किसी माता को अपने खोये हुए बच्चे की चिन्ता सतत सताती रहती है , वैसे ही जप सिद्ध हो जाने पर वह सदैव बिना प्रयास के ही अनवरत रूप से होता रह सकता है ।
सगुण - उपासना से अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और...... क्रमशः
इस पोस्ट के बाद ' मानस जप कैसे हो ' का बर्णन हुआ है, उसे पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं.
ध्यानाभ्यास कैसे करें |
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