महर्षि मँहीँ की बोध-कथाएँ / 04
४. लालच बुरी बलाय
एक आदमी को धन का बड़ा लालच था । उसको मालूम हुआ कि उसके पास जितनी जमीन है , यदि उसको बेच ले , तो बिक्री के उतने रुपयों से दूसरी जगह अधिक जमीन मिल जाएगी । यह जानकर उसने अपनी सारी जमीन बेच दी और वहाँ गया , जहाँ अधिक जमीन मिलनेवाली थी । वहाँ के जमीनवाले ने रुपये लेकर उससे कहा कि दिनभर में तुम जितनी जमीन घूमकर सायंकाल मेरे पास आ जाओगे , उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी ।
जमीन का लाली व्यक्ति |
वह लालच के मारे जमीन की ओर बढ़ा । जैसे - जैसे वह आगे बढ़ता जाता , वैसे - वैसे उसको अच्छी - से - अच्छी जमीन मिलती जाती । इसलिए वह आगे - ही - आगे बढ़ता गया । जब सूर्यास्त होने में थोड़ा समय बचा , तब उसको याद आया कि शाम तक उसे लौटकर जमीनवाले के घर पर भी पहुँचना है और दिन थोड़ा है । यह सोचकर वह उधर से लौट पड़ा ।
धीरे - धीरे चलने से शाम तक वह नहीं पहुँच पाता , इसलिए उसने दौड़ लगाना शुरू किया । दौड़ते - दौड़ते संध्या होने तक तो वह जमीनवाले के घर पहुँच गया ; परन्तु परेशानी के कारण तुरंत बेहोश होकर गिर पड़ा और भर गया ( किसी ने कहा कि यह लालची आदमी उतनी ही जमीन पाने का अधिकारी है , जितनी जमीन पर वह मरा पड़ा है । उतनी ही जमीन पर वह अन्यत्र दफना दिया गया । )
सद्गुरु महर्षि मेंहीं |
यही हालत सब लोगों की है । संसार की वस्तुओं को देखकर बड़ा लालच होता है । लेते - लेते लेने के अंत का ठिकाना नहीं । अधिक - से अधिक लेने की हवस में आदमी अपनी शांति खो बैठता है । अपने को थोड़े में संतुष्ट करो । He who grips much , holds little . अर्थात् बहुत की आकांक्षा करनेवाला थोड़ा ही प्राप्त करता है ।
अपने जीवन को खाली ( शांति से खाली ) मत बनाओ । अभी जो सुख मिलता है , वह अल्प है । विशेष सुख के लिए दूसरी ओर देखो । संतों ने कहा कि संसार की दूसरी ओर तुम्हारा अंदर है । ∆ ( शान्ति - सन्देश , जनवरी - अंक , सन् १ ९ ८ ९ ई ० )
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