महर्षि मँहीँ की बोध-कथाएँ / 05
मेरे पूज्य गुरुदेव ने मुझे आज्ञा दी थी कि जहाँ रहो , सत्संग करो । सत्संग की विशेषता पर अपने देश में घटित प्राचीन काल की एक कथा है--
गोपीचन्द वैरागी हो गये थे । गुरु ने कहा , " अपनी माता से भिक्षा ले आओ । ” वे माता से भिक्षा लेने गये । माताजी बोलीं , “ भिक्षा क्या दूँ ! थोड़ा - सा उपदेश लेकर जाओ । वह यह है कि बहुत मजबूत किले ( गढ़ ) के अंदर रहो । बहुत स्वादिष्ट भोजन करो और मुलायम शय्या पर सोओ । यही भिक्षा है जाओ । " गोपीचन्द बोले , “ आपकी ये बातें मेरे लिए पूर्णतः विरुद्ध है।
वैरागी गोपीचन्द और माता मदालसा |
माताजी बोलीं , " पुत्र ! तुमने समझा नहीं । मजबूत गढ़ सत्संग है । इससे भिन्न दूसरा कोई मजबूत गढ़ नहीं है । जिस गढ़ में रहकर काम - क्रोध आदि विकार सताते हैं , जिनसे मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता ; पशु एवं निशाचर की तरह हो जाता है , वह गढ़ किस काम का ! संतों का संग ही ऐसा गढ़ है , जिसमें रहकर विकारों का आक्रमण रोका जाता है और दमन करते - करते उनका नाश भी किया जाता है । "
फिर सुस्वादु भोजन तथा मुलायम शय्या के लिए माता बोलीं , " कैसा भी स्वादिष्ट भोजन क्यों न हो , भूख नहीं रहने से वह स्वादिष्ट नहीं लगेगा । इसलिए खूब भूख लगने पर खाओ और जब तुमको खूब नींद आये , तब तुम कठोर वा कोमल जिस किसी भी बिछौने पर सोओगे , वही तुम्हें मुलायम मालूम पड़ेगा । "
यह शिक्षा सबके लिए धारण करने के योग्य है । गुरु महाराज कहते थे , " जहाँ रहो , सत्संग करो । स्वयं सीखो और जहाँ तक हो सके , दूसरों को भी सिखाओ , जिससे उनको भी लाभ हो । " ( सत्संग - सुधा , भाग २ , पृष्ठ १२ )
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LS08 महर्षि मँहीँ की बोध-कथाएँ || 138 प्रिय, मधुर, मनोहर, सत्य और लोक-परलोक उपकारी कथा-संकलन के बारे में विशेष जानकारी के लिए 👉 यहाँ दवाएँ.
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