महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष / अ
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष
अलख - अहंकार
अलख ( सं ०, वि ० ) = नहीं दिखायी पड़नेयोग्य , जो स्थूल या सूक्ष्म किसी भी दृष्टि से देखने में नहीं आए । ( पु० ) परमात्मा ।
(अलख = जो देखा न जा सके , अरूप ; यहाँ अर्थ है- सारशब्द , कैवल्य मंडल, सतलोक । P145 )
(अलख पुरुष = वह परम पुरुष जो स्थूल या सूक्ष्म दृष्टि से न देखा जाए , परमात्मा । श्रीचंद वाणी 01(क))
(अलल ( सं ० अलज ) = एक पक्षी का नाम । P145 )
(अलेपा = अलिप्त , जो कहीं सीमित न हो गया हो , सबमें व्याप्त रहकर सबसे ऊपर रहनेवाला । नानक वाणी 03 )
(अलोल (अ+लोल ) = अडोल, अकंप, जो चंचल नहीं हो, जो कंपायमान नहीं हो । P12 )
अलौकिक ( सं ०, वि ० ) = जो इस लोक का नहीं हो , इस लोक से संबंध नहीं रखनेवाला ।
(अलौकिक = जो इस लोक अर्थात् स्थूल जगत् का नहीं है। P10 )
अल्लाहू ( फा ० ) = त्रिकुटी का शब्द ।
अवकाश ( सं ० , पुं ० ) = खाली जगह , वह स्थान जहाँ कुछ नहीं हो ।
(अवकाश = खाली जगह । P06 )
अवलम्ब ( सं ० ) = सहारा आधार ।
अवसर ( सं ० , पुं ० ) = मौका , कोई काम करने का उचित समय या परिस्थिति ।
अविगत ( सं ०, वि ० ) = अज्ञेय , इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाननेयोग्य, सर्वव्यापक ।
अविच्छिन्न ( सं ०, वि ० ) = जो विच्छिन्न नहीं हो , जो टूटा हुआ नहीं हो , अभिन्न, अटूट , लगातार , निरन्तर , मिला हुआ , लगा हुआ ।
अविनाशी ( सं ० , वि ० ) = विनाश रहित , जिसका कभी विनाश नहीं हो ।
{अविरल भक्ति = अनपायिनी भक्ति , अटूट भक्ति , सदा एक समान बनी रहनेवाली भक्ति । ( अविरल = घना , सघन , निरन्तर , लगातार , अटूट । रामचरितमानस , अरण्यकांड में भी 'अविरल भक्ति ' का प्रयोग हुआ है । देखें - ' अविरल भक्ति माँगि बर , गीध गयउ हरिधाम ।' ) P30 }
अव्यक्त ( सं ० , वि ० ) = जो व्यक्त नहीं हो , किसी भी इन्द्रिय की पकड़ में नहीं आनेवाला , अप्रकट , गुप्त ।
(अव्यक्त ( अ + व्यक्त ) = जो व्यक्त नहीं है , जो प्रत्यक्ष नहीं है , जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आ पाए , परम अव्यक्त - परमात्मा । P05 )
(अव्यक्त = जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आए ; यहाँ अर्थ है - वह आदिनाद जो कर्ण इन्द्रिय के द्वारा सुना नहीं जाता । P05 )
(अव्यक्त = जो इन्द्रियों के ग्रहण में नहीं आए । P07)
अव्यर्थ ( सं ० , वि ० ) = व्यर्थ नहीं , बेकार नहीं , फल - सहित , अमोघ , अचूक , व्यर्थ ( निष्फल ) नहीं होनेवाला ।
अव्याहत ( सं ० , वि ० ) = बाधा रहित , निरन्तर लगातार ।
अशब्द ( सं ० , वि ० ) = शब्दविहीन , ( पु ० ) शब्दविहीनता , परमात्मा ।
अशांतिपूर्ण ( सं ० , वि ० ) = अशान्ति से भरा हुआ ।
अष्टपदी ( सं ० , वि ० ) = आठ चरणोंवाला । वह पद्य जिसके आठ चरण हों ।
असंभव ( सं ० , वि ० ) = संभव नहीं , नहीं होनेवाला ।
असत् ( सं ० , वि ० ) = असत्य , नाशवान् , विनाशशील , परिवर्त्तन शील । जड़ प्रकृति ।
(असत् = जो अविनाशी नहीं है , जो विनाशशील या परिवर्तनशील है , जड़ प्रकृति मंडल । P01 )
(असर = ( अरबी पूँ० ) = प्रभाव, गुण । P11 )
(अस्तं = शरण-योग्य सोम को। MS01-3 )
असाध्य ( सं ०, वि ० ) = अशक्य , , नहीं हो सकनेवाला , जिसकी साधना नहीं की सके , जिसे साधना के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सके . नहीं प्राप्त करने के योग्य , कठिन ।
(असीम ( अ + सीम ) = सीमा - रहित , अपार , अनन्त । P06 )
(अहं = अहम् , अहंकार जो षट् विकारों में से एक है , अभिमान , ' मैं ' और ' मेरा ' का भाव । P13)
अहंकार ( सं ० , पुं ० ) = घमंड , अभिमान , किसी विशेषता के कारण मन में जगा हुआ ऐसा भाव जिसके कारण हम अपने को बड़ा मानने लगते हैं और दूसरों को अपने से छोटा । (अहंकार = घमंड । P07)
आ
आकर्षण ( सं ० . पुं ० ) = आकर्षित करने का गुण , खिंचाव , खींचने का गुण ।
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प्रभु प्रेमियों ! संतमत की बातें बड़ी गंभीर हैं । सामान्य लोग इनके विचारों को पूरी तरह समझ नहीं पाते । इस पोस्ट में अलख, अलख पुरुष, अलल, अलोल, अलौकिक, अल्लाहू, अवकाश, अवलम्ब, अवसर, अविगत, अविच्छिन्न, अविनाशी, अविरल भक्ति, अव्यक्त, अव्यर्थ, अव्याहत, अशब्द, अशब्द, अशांतिपूर्ण, अष्टपदी, असंभव,असत्, इत्यादि शब्दों पर चर्चा की गई हैं । हमें विश्वास है कि इसके पाठ से आप संतमत को सहजता से समझ पायेंगे।इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी।
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