शब्दकोश 05 || अनुकूल से अपरम्पार तक के शब्दों के शब्दार्थ, व्याकरणिक परिचय और शब्दों के प्रयोग इत्यादि
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष / अ
महर्षि मेँहीँ+मोक्ष-दर्शन का शब्दकोष
अनुकूल - अपरम्पार
अनुचित ( सं ० , वि ० ) जो उचित नहीं हो , जो ठीक नहीं हो , गलत ।
अनुपम ( सं ० , वि ० ) = उपमा रहित , तुलना - रहित , अद्वितीय , बेजोड़ , एक - ही - एक , जिसके समान दूसरा कोई या कुछ नहीं हो ।
(अनूपं = अनुपम , उपमा - रहित , अद्वितीय , बेजोड़ । P13 )
(अनूपा = अनुपम , उपमा - रहित , तुलना - रहित , जिसके समान दूसरा कोई अथवा कुछ नहीं हो । P09)
अनुयायी ( सं ० , वि ० ) = पीछे - पीछे अन्तर्मार्गी चलनेवाला , किसी के उपदेश या विचारधारा पर चलनेवाला । ( पुं ० ) सेवक , शिष्य । ( अनुयायी= जो किसी के पथ का अनुसरण करे , अनुगामी , शिष्य ।P08 )
अनुरूप ( सं ० , वि ० ) = जो किसी के रूप के समान हो , जो किसी के जैसा हो , समान रूपवाला , एक जैसे रूपवाला ।
अनेकानेक ( सं ० , वि ० ) = अनेक अनेक , अनेक प्रकार के ।
अन्डरस्टैण्ड ( अँ ० स ० क्रि ० ) = समझना ।
अन्त ( सं ० , पुं ० ) = समाप्ति , छोर , नाश ।
अन्तःकरण ( सं ० , पुं ० ) = भीतर की इन्द्रिय ; जैसे मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार ।
अन्तर ( सं ० , पुं ० ) = अन्दर , भीतर , भिन्नता , भेद , अलगाव ।
अन्तर - पट ( सं ० , पुं ० ) - अन्दर का आवरण , हृदय का परदा , आत्मा पर पड़ा हुआ आवरण ; अंधकार , प्रकाश तथा शब्द के आवरण ।
अन्तर - यात्रा ( सं ० , स्त्री ० ) अन्दर में चलना , आध्यात्मिक साधना के द्वारा शरीर के अन्दर ही अन्दर चलना ।
अन्तर - साधन ( सं ० , पुं ० ) = शरीर के अन्दर की जानेवाली आध्यात्मिक साधना ( ध्यानाभ्यास ) |
अन्तर्मार्गी ( सं ० , वि ० ) = शरीर = के अन्दर ज्योति और नाद के मार्ग पर सुरत से चलनेवाला ।
अन्तर्मुख ( सं ० , वि ० पुं ० ) अन्दर की ओर सिमटी हुई वृत्तिवाला , जिसकी वृत्ति शरीर के अन्दर सिमट गयी हो ।
अन्तर्मुखी ( सं ० , वि ० स्त्री ० ) = अन्दर की ओर सिमटी हुई वृत्तिवाली ।
अन्तस्तल ( सं ० , पुं ० ) = भीतरी तल , भीतरी भाग ।
अन्तिम ( सं ० , वि ० ) = अन्त का , सबसे अन्त का , अन्त से संबंध रखनेवाला ।
अन्तिम पद ( सं ० , पुं ० ) = सबसे अन्त का स्थान- दर्जा या स्तर , परमात्म - पद ।
अन्य ( सं ० , वि ० ) = दूसरा ।
अन्यथा ( सं ० ) = नहीं तो । ( वि ० ) उलटा , मिथ्या , झूठा ।
{अपनपौ = अपनापा, अपनापन, आत्मस्वरूप । ("अपुनपौ आपुन ही में पायो ।"- भक्तवर स्वामी सूरदासजी । "आप अपनपौ को नहिं चीन्हा, लीन्हा मान मनी रे । " - सन्त तुलसी साहब ) P11 }
अपरम्पार ( सं ० अपरंपर , वि ० ) = वार - पार - रहित , अपार , सीमा रहित , अत्यन्त ।
{अपरम्पार ( संस्कृत अरंपर ) = जिसका वारापार ( हद , सीमा , वार - पार ) नहीं है , असीम । P06 }
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प्रभु प्रेमियों ! संतमत की बातें बड़ी गंभीर हैं । सामान्य लोग इसके विचारों को पूरी तरह समझ नहीं पाते । इस पोस्ट में अंचल, अनुकूल, अनुचित, अनुपम, अनूपा, अनुयायी, अनुरूप, अनेकानेक, अन्डरस्टैण्ड, अन्त, अन्तःकरण, अन्तर, अन्तर-यात्रा, अन्तर्मार्गी, अन्तर्मुख, अन्तर्मुखी, अन्तस्तल, इत्यादि शब्दों के शब्दार्थादि आदि से संबंधित बातों पर चर्चा की गई हैं । हमें विश्वास है कि इसके पाठ से आप संतमत को सहजता से समझ पायेंगे। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट-मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी।
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