Ad

Ad2

मोक्ष दर्शन (104-106) प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने का साधन ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं

सत्संग योग भाग 4 (मोक्ष दर्शन) / 13

प्रभु प्रेमियों ! भारतीय साहित्य में वेद, उपनिषद, उत्तर गीता, भागवत गीता, रामायण आदि सदग्रंथों का बड़ा महत्व है। इन्हीं सदग्रंथों, प्राचीन और आधु निक संतो के विचारों को संग्रहित करकेे 'सत्संग योग' नामक पुस्तक की रचना हुई है। इसमें सभी पहुंचे हुए संत-महात्माओं के विचारों में एकता है, इसे प्रमाणित किया है और चौथे भाग में इन विचारों के आधार पर और सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की अपनी साधनात्मक अनुभूतियों से जो अनुभव ज्ञान हुआ है, उसके आधार पर मनुष्यों के सभी दुखों से छूटने के उपायों का वर्णन किया गया है। इसे मोक्ष दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। इसमें ध्यान योग से संबंधित बातों को अभिव्यक्त् करने के लिए पाराग्राफ नंंबर दिया गया हैैैै । इन्हीं पैराग्राफों में से  कुुछ पैराग्राफों  के बारे  में  जानेंगेेेे ।

इस पोस्ट के पहले वाले पोस्ट मोक्ष दर्शन (94-104) को पढ़ने के लिए    यहां दबाएं। 

गुरु भगवान

प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने का साधन

     प्रभु प्रेमियों  ! संतमत के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज इसमें जीव के ऊपर जो आवरण है, उसे हटाना जरूरी है तभी परम प्रभु की प्राप्ति होती है। इसके लिए सत्संग से ईश्वर के स्वरूप की जानकारी प्राप्त करके उसे कैसे पाना है इसके ऊपर मनन करते हुए अपनी दिनचर्या बनानी चाहिए। जीव और ईश्वर में क्या अंतर है, ईश्वर के असली नाम को लोग क्या-क्या कहते हैं? jeev ke oopar jo aavaran hai, use paar karana jarooree hai tabhee param prabhu kee praapti hotee hai. isake lie satsang se eeshvar ke svaroop kee jaanakaaree praapt karake use kaise paana hai isake oopar manan karate hue apanee dinacharya banaanee chaahie. jeev aur eeshvar mein kya antar hai, eeshvar ke asalee naam ko log kya-kya kahate hain?  आदि बातों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि-


मोक्ष दर्शन (104-106) 

( १०४ ) सब आवरणों को पार किये बिना न परम प्रभु मिलेंगे और न परम मुक्ति मिलेगी । इसलिए दोनों फलों को प्राप्त करने का एक ही साधन है । ईश्वर - भक्ति का साधन कहो वा मुक्ति का साधन कहो ; दोनों एक ही बात है । जिमि थल बिनु जल रहि ना सकाई । कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥ तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई । रहि न सका हरि भगति बिहाई ॥ ( तुलसीकृत रामायण ) 

प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने का साधन 

( १०५ ) परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के साधन को जानने के पहले परम प्रभु के स्वरूप का तथा निज स्वरूप का परोक्ष ज्ञान श्रवण और मनन - द्वारा प्राप्त करना चाहिये । और सृष्टि - क्रम के ज्ञान के सहित यह भी जानना चाहिये कि कथित युगल स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं होने का कारण क्या है ? परम प्रभु के स्वरूप का श्रवण और मनन - ज्ञान प्राप्त कर लेने पर यह निश्चित हो जाएगा कि प्राप्त करना क्या है ? क्षेत्र - सहित क्षेत्रज्ञ उसको प्राप्त कर सकेगा वा केवल क्षेत्रज्ञ ही उसे प्राप्त करेगा तथा इसके लिए बाहर में वा अन्तर में किस ओर अभ्यास करना चाहिये ? ये सब आवश्यक बातें निश्चित हो जाएँगी , तब अनावश्यक भटकन छूट जाएगी । अपने स्वरूप के वैसे ही ज्ञान से यह थिर हो जाएगा कि मैं उसे प्राप्त करने योग्य हूँ अथवा नहीं ? सृष्टि - क्रम के विकास का तथा परम प्रभु और निज स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं होने के कारण की जानकारियों से उस आधार का पता लग सकेगा , जिसके अवलम्ब से सृष्टि वा उपर्युक्त कारण - रूप आवरण से पार जाकर परम प्रभु से मिलन तथा उसके अपरोक्ष ज्ञान का होना परम सम्भव हो जाएगा । इसके लिए उपनिषदों को वा भारती सन्तवाणी को ढूँढ़ा जाए वा इसे तर्क - बुद्धि से निश्चय किया जाए , थिर यही होगा कि परम प्रभु सर्वेश्वर का स्वरूप अव्यक्त , इन्द्रियातीत ( अगोचर ) , आदि - अन्त - रहित , अज , अविनाशी , देशकालातीत , सर्वगत तथा सर्वपर है और जैसे घटाकाश , महदाकाश का अंश है , इसी तरह निज स्वरूप भी परम प्रभु सर्वेश्वर का अंश है । तत्त्वरूप में दोनों एक ही हैं , पर परम प्रभु आवरण से आवरणित नहीं ; किन्तु निज स्वरूप अथवा सर्वेश्वर का पिण्डस्थ अंश आवरणित है । सगुण अपरा प्रकृति के महाकारण , कारण , सूक्ष्म , और स्थूल ; इन चारो आवरणों से आवरणित रहने के कारण उपर्युक्त दोनों स्वरूपों का अपरोक्ष ज्ञान नहीं हो पाता है । जब परम प्रभु सर्वेश्वर में सृष्टि की मौज होती है , तभी सृष्टि उपजती है । इसलिए सृष्टि के आदि में मौज वा कम्प का मानना अनिवार्य होता है और मौज वा कम्प का शब्दमय न होना असम्भव है । इसलिए सृष्टि के आदि में अनिवार्य रूप से शब्द मानना ही पड़ता है । सृष्टि का विकास बारीकी की ओर से मोटाई वा स्थूलता की ओर को होता हुआ चला आया है । सृष्टि के जिस प्रकार के मण्डल में हमलोग हैं , वह स्थूल कहलाता है । इससे ऊपर सूक्ष्म - मण्डल , सूक्ष्म के ऊपर कारण - मण्डल , कारण - मण्डल के ऊपर महाकारण - मण्डल अर्थात् कारण की खानि साम्यावस्थाधारिणी जड़ात्मक मूल प्रकृति और इसके भी ऊपर चैतन्य वा परा प्रकृति वा कैवल्य ( जड़ - रहित चैतन्य ) मण्डल ; इन चार प्रकार के मण्डलों का होना ध्रुव निश्चित है । अतएव स्थूल मण्डल के सहित सृष्टि के पाँच मण्डल स्पष्ट रूप से जानने में आते हैं । कैवल्य मण्डल निर्मल चैतन्य है और बचे हुए चार मण्डल चैतन्य - सहित जड़ मण्डल हैं । प्रत्येक मण्डल बनने के लिए प्रथम प्रत्येक का केन्द्र अवश्य ही स्थापित हुआ । केन्द्र से मण्डल बनने की धार ( मौज वा कम्प वा शब्द ) जारी होने पर ही मण्डल की सृष्टि हुई । धार जारी होने में सहचर शब्द अवश्य हुआ । अतएव कथित केन्द्रों के केन्द्रीय शब्द अनिवार्य रूप से मानने पड़ते हैं । शब्द में अपने उद्गम स्थान पर आकर्षण करने का स्वभाव प्रत्यक्ष ही है । इन बातों को जानने पर यह सहज ही सिद्ध हो जाता है कि सृष्टि का विकास शब्द से होता हुआ चला आया है और इसलिए सृष्टि के सब आवरणों से पार जाने का अत्यन्त युक्तियुक्त आधार वर्णित शब्दों से विशेष कुछ नहीं है । ये कथित केन्द्रीय शब्द वर्णात्मक हो नहीं सकते ; ये ध्वन्यात्मक हैं । नादानुसंधान वा सुरत - शब्द - योग इन्हीं नादों वा ध्वन्यात्मक शब्दों का होता है और उल्लिखित शब्द के आकर्षण के कारण सुरत - शब्द - योग का फल अत्यन्त ऊर्ध्वगति तक पहुँचना निश्चित और युक्तियुक्त है । ऊपर के कथित सृष्टि के पाँच मण्डल ही पाँच आवरण हैं , जो पिण्ड ( शरीर ) और ब्रह्माण्ड ( बाह्य जगत् ) ; दोनों को विशेष रूप से संबंधित करते हुए दोनों में भरे हैं । परा प्रकृति वा सुरत वा कैवल्य चैतन्य - स्वरूप परम प्रभु सर्वेश्वर के निज स्वरूप के अत्यन्त समीपवर्ती होने के कारण  उसके स्वरूप से मिलने वा उसका अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के सर्वथा योग्य है । निज स्वरूप इस चैतन्य तत्त्व से अवश्य ही उच्च और अधि क योग्यता का है और चैतन्य क्षेत्र का सर्वोत्कृष्ट रूप है , इसलिए यह कहा जा सकता है कि क्षेत्र के केवल इसी एक अगुण और सर्वोत्कृष्ट रूप के सहित क्षेत्रज्ञ को निज स्वरूप के सहित परम प्रभु सर्वेश्वर के स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान होगा ; परन्तु क्षेत्र के अन्य चार सगुण रूपों के सहित वा इन चारों में से किसी एक के सहित रहने पर स्वरूप का वह ज्ञान वा उसकी प्राप्ति नहीं होगी । यह निःसन्देह है कि निज को निज का तथा परम प्रभु के स्वरूप का अपरोक्ष ज्ञान होना वा निज को निज की तथा परम प्रभु की प्राप्ति होनी ध्रुव सम्भव है । ऊपर का शब्द नीचे दूर तक स्वाभाविक ही पहुँचता है । सूक्ष्म तत्त्व की धार स्थूल तत्त्व की धार से लम्बी होती है और वह अपने से स्थूल में स्वाभाविक ही समायी हुई होती है । रचना में ऊपर की ओर सूक्ष्मता और नीचे की ओर स्थूलता है । रचना में जो मण्डल जिस मण्डल से ऊपर है , वह उससे सूक्ष्म है । अतएव प्रत्येक ऊपर के मण्डल का केन्द्रीय शब्द प्रत्येक नीचे के मण्डल और उसके केन्द्रीय शब्द से क्रमानुसार सूक्ष्म है । इसलिए ऊपर के मण्डलों के केन्द्र से उत्थित शब्द , नीचे के मण्डलों के केन्द्रों पर क्रमानुसार अर्थात् पहला निचले मण्डल के केन्द्र पर से उसके ऊपर के मण्डल का केन्द्रीय शब्द और इस दूसरे निचले मण्डल के केन्द्र पर उसके ऊपर के मण्डल का केन्द्रीय शब्द , इस तरह क्रम - क्रम से अवश्य ही धरे जायँगे और अन्त में सबसे ऊपर के कैवल्य मण्डल के केन्द्र से अर्थात् स्वयं परम प्रभु सर्वेश्वर से उत्थित शब्द महाकारण - मण्डल के केन्द्र पर अवश्य ही पकड़ा जा सकेगा और उस शब्द से आकर्षित होकर चैतन्य वा सुरत परम प्रभु से जा मिलकर उनसे एकमेक हो विलीन हो जाएगी । परम प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने के साधन की यही पराकाष्ठा है । परम प्रभु से उत्थित यह आदिनाद वा शब्द , सब पिण्डों तथा सब ब्रह्माण्डों के अन्तस्तल में सदा अप्रतिहत और  अविच्छिन्न रूप से ध्वनित होता है और सृष्टि की स्थिति तक अवश्य ही ध्वनित होता रहेगा ; क्योंकि इसी के उदय के कारण से सब सृष्टि का विकास है और यदि इसकी स्थिति का लोप होगा , तो सृष्टि का भी लोप हो जाएगा । ऋषियों ने इसी अलौकिक और अनुपम आदि निर्गुण नाद को ' ॐ ' कहा है और भारती सन्तवाणी में इसी को ' निर्गुण रामनाम ' ' सत्यनाम ' , सत्यशब्द , आदिनाम और सारशब्द आदि कहा है । उपर्युक्त वर्णनानुसार शब्दधारों को धरने के लिए बाहर की ओर यत्न करना व्यर्थ है । यह तो गुरु - आश्रित होकर अन्तर - ही - अन्तर यत्न और अभ्यास करने से होगा । अपने अन्तर में ध्यानाभ्यास से अपने को वा अपनी सुरत वा अपनी चेतन - वृत्ति को विशेष - से - विशेष अन्तर्मुखी बनाना सम्भव है । प्रथम ही सूक्ष्म ध्यानाभ्यास स्वभावानुकूल नहीं होने के कारण असाध्य है । इसलिए प्रथम मानस जप द्वारा मन को कुछ समेट में ला , फिर स्थूल मूर्ति का मानस ध्यानाभ्यास कर अपने को सूक्ष्म ध्यानाभ्यास करने के योग्य बना , दृष्टि - योग से एकविन्दुता प्राप्त करने का सूक्ष्म ध्यानाभ्यास करके नादानुसंधान वा सुरत - शब्द - योग अभ्यास कर नीचे से ऊपर तक सारे आवरणों से पार हो , अन्त तक पहुँचना परम सम्भव है । ऊपर यह वर्णन हो चुका है कि पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों को विशेष रूप से सम्बन्धित करते हुए दोनों को सृष्टि से वर्णित मण्डल वा आवरण भरपूर करते हैं और इन्हीं आवरणों को पार करना , सारे आवरणों को पार करना है । कथित विशेष सम्बन्ध इनमें यह है कि पिण्ड के जिस आवरण में जो रहेगा , बाहर के ब्रह्माण्ड के उसी आवरण में वह रहेगा और पिण्ड के जिस आवरण को वा सब आवरणों को जो पार करेगा , ब्रह्माण्ड के उसी आवरण को वा सब आवरणों को वह पार का जायगा अर्थात् जो पिण्ड को पार कर गया , वह ब्रह्माण्ड को भी पार कर गया , इसमें कुछ भी संशय नहीं है । परम योग , परम ज्ञान और परमा भक्ति का गम्भीरतम रहस्य और अन्तिम फल प्राप्त करने का साधन समास रूप में कहा जा चुका । 

( १०६ ) ॐ के बारे में विशेष जानकारी के लिए भाग पहले  में श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय १ , श्लोक ७ के अर्थ के नीचे लिखित टिप्पणी में पढ़िये तथा भाग २ , पृष्ठ २६१ में स्वामी विवेकानन्दजी महाराज का वर्णन पढ़िए और ॐ को आदि सारशब्द नहीं मानना , इसे केवल त्रिकुटी का ही शब्द मानना , किस तरह अयुक्त है , सो इसी भाग , पृ ० ३१२ , पारा ७१ में पढ़िये तथा भाग ३ , पृष्ठ २९३ में स्वामी श्रीभूमानन्दजी महाराज का वर्णन पढ़िये । 


( मोक्ष-दर्शन में आये किलिष्ट शब्दों की सरलार्थ एवं अन्य शब्दों के शब्दार्थादि की जानकारी के लिए "महर्षि मेँहीँ + मोक्ष-दर्शन का शब्दकोश" देखें ) 



इस पोस्ट के बाद वाले पोस्ट में मोक्ष-दर्शन के पाराग्राफ 106  से 107 तक को पढ़ने के लिए  👉 यहां दबाएं ।


     प्रभु प्रेमियों ! मोक्ष दर्शन के उपर्युक्त पैराग्राफों से हमलोगों ने जाना कि It is necessary to transcend the covering that is above the creature, only then it attains the Supreme Lord.  For this, by getting information about the nature of God from satsang, you should make your own routine by meditating on it.  What is the difference between Jiva and God, what are people called the real name of God, इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस पोस्ट के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में उपर्युक्त वचनों का पाठ किया गया है। इसे भी अवश्य देखें, सुनें।



महर्षि मेंहीं साहित्य "मोक्ष-दर्शन" का परिचय

मोक्ष-दर्शन
  'मोक्ष-दर्शन' सत्संग-योग चारों भाग  पुस्तक का चौथा भाग ही है. इसके बारे में विशेष रूप से जानने के लिए  👉 यहां दवाएं


सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज की पुस्तकें मुफ्त में पाने के लिए शर्त के बारे में जानने के लिए   👉 यहां दबाएं।

---×---
मोक्ष दर्शन (104-106) प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने का साधन ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं मोक्ष दर्शन (104-106)  प्रभु सर्वेश्वर के अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त करने का साधन  ।। सद्गुरु महर्षि मेंहीं Reviewed by सत्संग ध्यान on 1/01/2021 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

सत्संग ध्यान से संबंधित प्रश्न ही पूछा जाए।

Ad

Blogger द्वारा संचालित.