महर्षि मँहीँ-पदावली' की छंद-योजना /17
kaamineemoha hansagati chandraayanachhand chhand kee varnan
१२. कामिनीमोहन :
न उद्भिद् स्वरूपी , न उष्पज स्वरूपी । न अंडज स्वरूपी , न पिंडज स्वरूपी ॥ नहीं विश्वरूपी , न विष्णू स्वरूपी । न शंकर स्वरूपी , न ब्रह्मा स्वरूपी ॥ सभी के परे जो , परम तत्त्वरूपी । सोई आत्मा है , सोई आत्मा है ॥ ( पदा ० , ४२ वाँ पद्य )
ऊपर के सभी चरणों में २०-२० मात्राएँ हैं ; १०-१० मात्राओं पर यति और अंतिम चरण को छोड़कर सभी चरण चार पंचकलों से बने हुए हैं ।
पदावली के २० वें , ३८ वें और ४२ वें पद्य में कामिनीमोहन छंद का व्यवहार हुआ है ।
किसी - किसी कामिनीमोहन छंद के चरण में चार रगण ( SIS ) होते हैं , तब वह स्रग्विनी , शृंगारिणी , लक्ष्मीधरा और लक्ष्मीधर भी कहलाता है ।
१३. हंसगति :
इसके प्रत्येक चरण में २० मात्राएँ होती हैं ; ११ - ९ मात्राओं पर यति और चरणान्त में दो गुरु ( 55 ) , दो लघुः ( 11 ) या लघु - गुरु ( 15 ) ! ११ मात्राओंवाले चरणांश के अंत में गुरु - लघु ( 51 ) होते हैं । उदाहरण--
हो दयाल दातार , महा सुखदाई । अघ नाशन सुखदेन , कृपा अधिकाई ॥ जुग जुगान ते अहूँ , पड़े दूखन में । सुधि बुधि गइ सब भूलि , माया भूखन में ॥ ( पदा ० , २८ वाँ पद्य )
( ' अहूँ ' में गुरु - लघु नहीं , लघु - गुरु हैं । )
सुख पावन मन ठानि , दौड़ि जहँ दुख अगिन प्रबल होइ , जरत तहाँ ही पाऊँ ॥ जाऊँ । ( पदा ० , २८ वाँ पद्य )
( ' ही ' ह्रस्व की तरह उच्चरित किया जाएगा । )
पदावली के २८ वें पद्य में हंसगति के कुछ चरण आये हैं ।
१४. चान्द्रायण छंद :
इस छंद के प्रत्येक चरण में २१ मात्राएँ होती हैं और ११-१० मात्राओं पर यति । चरण के ११ मात्राओंवाले अंश के अंत में जगण ( 151 ) और चरण के अंत में रगण ( 515 ) होना चाहिए । १० मात्राओंवाला चरणांश एक त्रिकल , एक द्विकल और एक पंचकल से बना होना चाहिए । ११ मात्रिक चरणांश दोहे के दूसरे या चौथे चरण के समान होता है ; उदाहरण--
करि बाहर पट बंद , अंतर पट खोलहू । या विधि अंतर अंत में सुरत समोवहू ॥ ( पदा ० , १०८ वाँ पद्य )
' अंतर ' का उच्चारण ' अंतर ' की तरह या शीघ्रता में करना होगा और ' में ' का भी ह्रस्व की तरह उच्चारण करके १ मात्रा घटानी पड़ेगी । )
नयन कँवल तम माँझ से पंथहि धारिये । सुनि धुनि जोति निहारि , के पंथ सिधारिये ॥ ( पदा ० , ५२ वाँ पद्य )
( यहाँ ' से ' और ' के ' का उच्चारण ह्रस्व की तरह करना चाहिए । )
पाँच नौबत बिरतन्त , कहौं सुनि लीजिए । भेदी भक्त विचारि , सुरत रत कीजिए | ( पदा ० , ४५ वाँ पद्य )
( ' नौबत ' का ' नौ ' ह्रस्व की तरह उच्चारित करने पर १ मात्रा घट जाएगी । )
निर्मल चेतन केन्द्र , और ऊपर अहै । परा प्रकृति कर केन्द्र , सोइ अस बुधि कहै ॥ ( पदा ० , ४५ वाँ पद्य )
लेखक बाबा लालदास |
पदावली के ४५ वें , ४६ वें , ५१ वें , ५२ वें और १०८ वें पद्य में चान्द्रायण छंद के चरण हैं । संतों ने चान्द्रायण छंद में आबद्ध पद्य के ऊपर ' मंगल ' शीर्षक दिया है । ' मंगल ' का अर्थ है - कल्याण , शुभ या विवाह । सम्भव है , ' मंगल ' किसी शुभ अवसर पर गाया जाता हो ।
' अरिल ' शीर्षक ४४ वें पद्य में भी चान्द्रायण छंद का प्रयोग हुआ है ; देखें--
जा सम्मुख या सूर्य , अमित अंधार है । ऐसो सूर्य महान , चन्द हद पार है । होत नाद अति घोर , शोर को को कहै । अरे हाँ रे ‘ में हीँ ' , महा नगाड़ा बजै , घनहु गरजत रहै ॥
अरिल पद्य के इस अनुच्छेद में चान्द्रायण छंद के चार चरण आए हैं ; चौथे चरण के आरंभ में अतिरिक्त संगीतात्मकता लाने के लिए ' अरे हाँ रे मँहीँ ' शब्दावली जोड़ दी गई है ।
४४ वें पद्य में रोला छंद का भी प्रयोग हुआ है ; देखें--
संतमते की बात कहूँ साधक हित लागी । कहूँ अरिल पद जोड़ि , जानि करिहैं बड़ भागी ॥ अरे हाँ रे ' मँहीँ ' , कहुँ जो चाहूँ कहन , संतपद सिर निज टेकी ॥
इस अरिल पद्य से यदि ' अरे हाँ रे मँहीँ शब्दावली हटा दी जाए , तो रोला छंद के चार शुद्ध चरण प्राप्त हो जाएँगे ।
४४ वें पद्य के ऊपर ' अरिल ' शीर्षक देखकर यह अनुमान नहीं लगा लेना चाहिए कि इस पद्य में उस अरिल्ल छंद का प्रयोग किया गया है , जिसका प्रत्येक चरण चार चौकलों से बना होता है और चरण के अंत में यगण ( ISS ) या भगण ( 51 ) होता है ।
४४ वें पद्य के किसी - किसी अनुच्छेद में रोला छंद का और किसी - किसी अनुच्छेद में चान्द्रायण छंद का प्रयोग किया गया है । संत पलटू साहब ने अपने ' अरिल ' पदों में चान्द्रायण छंद का और संत तुलसी साहब ने रोला छंद का प्रयोग किया है , यथा
जो तुझको है चाह , सजन को देखना । करम भरम दे छोड़ि , जगत का पेखना ॥ बाँध सुरत की डोरि , शब्द में मिलेगा । अरे हाँ रे पलटू , ज्ञान ध्यान के पार , ठिकाना मिलेगा | ( संत पलटू साहब )
निरसब्दी बिन सब्द लिखन पढ़ने में नाहीं । लिखन पढ़ा में भया , सब्द में आया भाई ॥ अछर जहाँ लगि सब्द , बोल में सभी कहाया । अरे हाँ रे तुलसी , निःअच्छर है न्यार , संत ने सैन बुझाया । " ( संत तुलसी साहब )
संतों ने अपने उस पद्य को अरिल या अरियल कहा है , जिसके चौथे चरण में ' अरे हाँ ' या ' अरे हाँ रे ' के साथ कवि का नाम जुड़ा हुआ रहता है । ' अरिल ' का शाब्दिक अर्थ है - ' अरे ' शब्द से युक्त । ∆
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