महर्षि मँहीँ-पदावली' की छंद-योजना / 08
प्रभु प्रेमियों ! 'महर्षि मँहीँ पदावली की छंद योजना' पुस्तक के इस भाग में हम लोग जानेंगे कि छंद शास्त्र में गति का महत्व और परिचय, गति क्या है? गति आप क्या समझते हैं? कविता की जान क्या है? एक सुंदर कविता के कौन-कौन से लक्षण होते हैं? वैज्ञानिक तरीके से कविता कैसे बनाते हैं? छंद शास्त्रीय दोष से रहित पद्य रचना के क्या नियम है ं? कविता के गतिभंग-दोष क्या है? गतिभंग दोष क्यों होते हैं? गतिभंग दोष के उदाहरण, इत्यादि बातें.
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छंद शास्त्रीय गति क्या है || कविता या छंद बनाने की वैज्ञानिक विधि उदाहरण सहित |
गति :
छन्द के प्रत्येक चरण में जो एक नियमित लय या प्रवाह होता है , उसे ही गति ( रवानगी ) कहते हैं । छंद की यह गति ही उसे गद्य से भिन्न कोटि में ला रखती है । जिस छंद में जितना अधिक प्रवाह होता है , वह उतना अधिक सुंदर और उतना अधिक संगीत के समीप आता है । छंद के गाये जाने के गुण को गेयता कहते हैं । जिस छंद में भरपूर गेयता होती है , वह गीत कहलाने का अधिकारी हो जाता है । छंद में ध्वनियों का नियमित प्रवाह न हो , तो वह हमें आनन्द नहीं प्रदान कर सकता , तब वह कोलाहल या शोरगुल की तरह हमें नीरस प्रतीत होगा ।
जब हृदय में भाव उमड़ने लगे और काव्य - रचना की इच्छा हो , तब विचार कर लेना चाहिए कि किस छन्द में भावों को बाँधना है । छन्द चुनाव के बाद छंद के लक्षण जान लेने चाहिए कि उसके प्रत्येक चरण में कितनी मात्राएँ होती हैं , कितनी - कितनी मात्राओं पर यति होती है और अंत में लघु - गुरु वर्णों का क्रम क्या होता है । इसी तरह यदि किसी वर्णिक छंद में भावों को बाँधना हो , तो उसके भी लक्षण जान लेने चाहिए । इसके बाद किसी अन्य कवि की उसी छन्द में आबद्ध रचना को बारंबार गुनगुनाना चाहिए । जब उस छंद के तर्ज पर मन पूरी तरह कंपित या तरंगित होने लगे , तब अपने भावों को तर्ज के अनुसार उस छन्द में बाँधने का प्रयास करना चाहिए । जब मन में संतुष्टि आ जाए कि मेरे भाव ठीक - ठीक छन्दोबद्ध हो गए हैं , तब उसे कॉपी पर लिख लेना चाहिए और देखना चाहिए कि छन्द के सारे लक्षण उसमें उतरे हैं या नहीं । यदि कहीं त्रुटि हो , तो उसे कलम से सुधार लेना चाहिए । यदि कहीं प्रवाह में थोड़ी भी बाधा उपस्थित हो रही हो या चरण का प्रवाह खटक रहा हो ; गाने में उकड़ लग रहा हो , तो पुनः छन्द को बारंबार गाना चाहिए , शब्दों का क्रम उलटना - पलटना चाहिए और एक शब्द के स्थान पर दूसरा कोई शब्द रखना चाहिए । इस तरह बारंबार प्रयास के द्वारा छंद में प्रवाह लाना चाहिए । नहीं , नहिं , नाहिं और नाहीं — इन चारो में दो - दो वर्ण हैं । किसी वर्णिक छंद के इन चारो में से जो प्रवाह लाने में समर्थ हो , उसी इसी तरह ' रात ' और ' रात्रि ' का एक ही अर्थ है का प्रयोग करना और दोनों में चरण में चाहिए , अन्य का नहीं । समान मात्राएँ ( ३-३ ) हैं , फिर भी सर्वत्र एक की जगह दूसरे की योजना नहीं की जा सकती । चरण में ऐसे शब्द का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए , जिसकी ध्वनि अन्य शब्दों की ध्वनियों के बीच गुम जाए या स्पष्ट सुनाई न पड़े । भावों के अनुसार छन्द में कठोर या मधुर शब्दों का प्रयोग करना चाहिए । कोमल भावोंवाले छंद में कोमल शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए ।
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सद्गुरु महर्षि मेंहीं |
यदि भावावेग में अपने - आप छन्द का एक या दो चरण मुँह से फूट निकलें , तो उस एक या दोनों चरणों के लक्षण देख लेने चाहिए और फिर आगे के अन्य चरण उसी तरह के रखने या बनाने चाहिए । प्रारंभ के बने हुए एक - दो चरण बड़े महत्त्वपूर्ण होते हैं ; उनके बन जाने पर आगे के चरणों का बनाना आसान हो जाता है ; क्योंकि उनमें छन्द और विषय - दोनों निश्चित हो जाते हैं ।
मात्रिक छन्दों की ही तरह वर्णिक छन्दों की भी रचना गा - गाकर करनी चाहिए । गा - गाकर रचना किये बिना छंदों में गति ( प्रवाह या रवानगी ) नहीं लायी जा सकती । बारंबार का अभ्यास और अनुभव भी हमें बता देता है कि चरण में शब्दों की किस तरह मजावट करें , जिससे उसमें प्रवाह आ जाए । शब्दों की सजावट करते समय इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि सजा हुआ शब्द - समूह एक पूर्ण अर्थ दे ; चरण का सही अर्थ समझने में पाठकों के लिए अड़चन न डाले और याद करने में भी लोगों को सुविधा हो ।
जब मन प्रसन्न , आनन्दित , पवित्र और विशेष एकाग्र हो तथा हृदय में भी निरंतर भाव स्फुरित हो रहे हों , तो उस स्थिति में लगातार ऐसे छन्द मुख से फूटते रह सकते हैं , जो अपने - आपमें सही - दुरुस्त हों और उनमें पीछे सुधार की भी कोई गुंजाइश नहीं रह जाए । पुराण लिखते समय वेदव्यासजी के मुख से अनवरत अनुष्टुप् छन्द सही दुरुस्त हालत में अनायास निकलते जाते थे , जिन्हें श्रीगणेशजी शीघ्रता से लिपिबद्ध करते जाते थे । इस तरह की स्थिति कभी - कभी सामान्य कवियों के भी जीवन में आती है ।
हम जानते हैं कि किसी - किसी वर्णिक छंद के चरण में वर्णों की संख्या और उनका क्रम निश्चित होता है और किसी - किसी में केवल वर्णों की संख्या निश्चित होती है । यदि कोई बहुत तीक्ष्ण बुद्धि का कवि बहुत प्रयत्न करके चरण के शब्दों की सजावट इस तरह कर दे कि वर्णों की संख्या और उनका क्रम सही हो जाए , तो उस चरण में अवश्यमेव प्रवाह आ जाएगा ; परंतु कोई कवि मौखिक या मानसिक गायन के बिना मात्रिक छंद के चरण में शब्दों की सजावट करके मात्राएँ पूरी कर दे या किसी वर्णिक छंद के चरण में वर्णों की संख्या पूरी कर दे , तो यह अनिवार्य नहीं है कि उस चरण में गति आ ही जाएगी ।
देवी सतगुरु अरु जे भये हैं , शिरधारी होंगे । सब चरनन ' में ही " धन्य धन्य कहि भजत है , सारी आशा संत - पद गही ॥
उपरिलिखित चारो पंक्तियों में १६-१६ मात्राएँ हैं ; परंतु प्रथम पंक्ति को छोड़कर अन्य तीनों पंक्तियों में गति नहीं है । यदि अन्य तीन पंक्तियों को निम्न ढंग से सजा दिया जाए , तो उनमें भी प्रवाह आ जाएगा और तब चारो पंक्तियाँ मात्रिक सवैया के दो चरण हो जायेंगे ।
सतगुरु देवी अरु जे भये हैं , होंगे सब चरनन शिरधारी । भजत है ' में हीँ ' धन्य धन्य कहि , गही संत - पद आशा सारी ॥ ( पदा ० , २ रा पद्य )
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संत लालदास |
निम्नलिखित पंक्ति में २८ मात्राएँ हैं ; परंतु उसमें थोड़ा भी प्रवाह नहीं है , देखें
' गुरु भक्ति अति अटल श्रद्धा प्रेम से करनी चाहिए । '
इसी पंक्ति को नीचे इस तरह सजाकर लिखा गया है कि उसमें प्रवाह आ गया है और वह हरिगीतिका छंद का एक चरण बन गया है
' अति अटल श्रद्धा प्रेम से , गुरु - भक्ति करनी चाहिए । ' ( पदा ० , ७ वाँ पद्य )
परमेसुर आप ही के घट में प्रगट है , नर ताहि छोड़ि भूलें दूर - दूर जात है ।
इन दो पंक्तियों में ३१ अक्षर हैं ; परंतु इनमें प्रवाह नहीं है । यदि इन्हें निम्नलिखित ढंग से सजा दिया जाए , तो उनमें प्रवाह आ जाएगा और वे दोनों मनहर छंद का एक चरण बन जाएँगी
' आप ही के घट में प्रगट परमेसुर है , ताहि छोड़ि भूलें नर , दूर दूर जात है । ' ( संत सुन्दरदासजी )
चरण में ऐसा प्रवाह लाना चाहिए कि चरण का गायन करते समय उसके शब्द जिभ्या पर अपने - आप फिसलने - ससरने लगें ; उनके उच्चारण में कुछ भी श्रम या कष्ट का अनुभव न हो ।
चरणों में समान मात्राएँ होने पर भी दो भिन्न छंदों की लय भिन्न - भिन्न होती है । इसका कारण है - उनके चरणों में भिन्न - भिन्न मात्राओं पर यति का होना और चरणांत के लघु - गुरु के क्रम का एक - सा न होना ।
छंद के चरण में प्रवाह का न होना या प्रवाह की गड़बड़ी होना गतिभंग - संबंधी दोष है । निम्नलिखित चरण में प्रवाह की गड़बड़ी है ; देखें --
' जो कल करना है आज कर ले , जो आज करना है वो अब कर ले । ' ∆
इस पोस्ट के बाद अन्त्यानुप्रास या तुक का बर्णन हुआ है उसे पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं.
प्रभु प्रेमियों ! इस लेख में छंद मे गति शब्द का अर्थ क्या है? काव्य में गति से क्या आशय है? गति के कितने भेद होते हैं ? पारंपरिक छंद गति से आप क्या समझते है? छंद के प्रसंग में गति से क्या तात्पर्य है? इत्यादि बातों को जाना. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है. जय गुरु महाराज.
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