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LS14 छंद-योजना 09 || कविता में तुक या अन्त्यानुप्रास का महत्व || तुक परिचय विविध उदाहरणों सहित

महर्षि मँहीँ-पदावली' की छंद-योजना / 09

     प्रभु प्रेमियों ! 'महर्षि मँहीँ पदावली की छंद योजना' पुस्तक के इस भाग में हम लोग जानेंगे कि छंदशास्त्र में अन्त्यानुप्रास या तुक किसे कहते हैं? अन्त्यानुप्रास का छंद में क्या महत्व है? तुकान्त और अतुकान्त छंद किसे कहते हैं? विविध प्रकार के अन्त्यानुप्रास को उदाहरण से समझाना, तुक कितने अक्षरों तक आ हो सकता है? कविता में तुक मिलाना कितना जरूरी है? सम छंद के तुकों को उदाहरण सहित समझावे. कविता की तुकबंदी से कविता के कौन-कौन गुण बढते हैं? इत्यादि बातें.  


इस पोस्ट के पहले बाले भाग में  'छंद में गति का महत्व' के बारे में बताया गया है उसे पढ़ने के लिए   👉 यहां दबाएं.


छंद-योजना पर चर्चा करते गुरुदेव और लेखक


कविता में तुक या अन्त्यानुप्रास का महत्व || तुक परिचय विविध उदाहरणों सहित


अन्त्यानुप्रास 

     छन्द के चरणों के अंत में पाये जानेवाले ध्वनि - साम्य को अन्त्यानुप्रास कहते हैं । ' अन्त्यानुप्रास ' संस्कृत भाषा का शब्द है । हिन्दी में इसे तुक और अरबी में काफिया कहते हैं । अन्त्यानुप्रास छन्द का कोई आवश्यक अंग नहीं है , क्योंकि छन्द के प्रवाह से इसका कुछ भी संबंध नहीं होता । दूसरे शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि चरणों में अन्त्यानुप्रास हो या न हो , उससे किसी चरण के प्रवाह पर कोई असर नहीं पड़ता ; प्रत्येक चरण प्रवाह की दृष्टि से अपने आपमें स्वतंत्र है । हाँ , इतना अवश्य है कि अन्त्यानुप्रास छन्द में सौन्दर्य और माधुर्य ला देता है । संस्कृत के छन्दों में अन्त्यानुप्रास का अभाव देखा जाता है । हिन्दी के मध्यकालीन कवियों की कविताओं में अनिवार्यत : इसका प्रयोग किया गया हैसाहित्यशास्त्र में अन्त्यानुप्रास एक प्रकार का शब्दालंकार माना गया है । जिस छंद में तुक रहती है , उसे में तुकान्त छंद और जिसमें तुक की योजना नहीं रहती है , उसे अतुकान्त छंद कहते हैं । 

     अन्त्यानुप्रास में क्रमिक रूप से स्वरों की समानता होती है , परन्तु कम - से - कम सबसे अंतिम वर्णों में तो व्यंजनों की भी समानता अवश्य होती है ।  ' डाली - काली ' में ' आई - आई ' स्वर - ध्वनियों की समानता है और अंतिम वर्णों ( ली - ली ) में व्यंजन ( ल् ) सहित स्वर ( ई ) का भी साम्य है । इस तरह ' डाली - काली ' ध्वनि साम्य का बहुत अच्छा उदाहरण है । ' माला - पारा ' में ' आआ आआ ' स्वर - ध्वनियों का साम्य तो है ; परन्तु अंत के वर्णों ( ल और र ) में व्यंजन - साम्य नहीं है । इसलिए यह अन्त्यानुप्रास का उत्तम उदाहरण नहीं है । 

सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज
सद्गुरु महर्षि मेंही

     निम्नलिखित चौपाई के चरणों में देखिए , कितना अच्छा अन्त्यानुप्रास है--

अधम उधारन अमृत खानी । परहित रत जाकी सत बानी

सतगुरु ज्ञान - सिंधु अति निर्मल सेवत मन इन्द्रिन हों निर्बल ॥ धर्म धुरंधर सतगुरु स्वामी । सत्य धरम मत संत को हामी ॥ ( पदा ० , १०० वाँ पद्य ) 

     छंदों में अन्त्यानुप्रास २ , ४ , ६ , ७ , ८ और ९ मात्राओं तक का देखने में आया है । नीचे अन्त्यानुप्रास - संबंधी उदाहरण ' महर्षि में ही पदावली ' से दिये जा रहे हैं--

यम नीयम सबमें अति पूरन सतगुरु महाराज की जय भन ॥ (

      इस अर्धाली में रन भन दो मात्राओं का अन्त्यानुप्रास है । )

यहि मानुष देह समैया में , करु परमेश्वर में प्यार । कर्म धर्म को जला खाक कर देंगे तुमको तार ।।

     ( इन दो चरणों में ३ मात्राओं का अन्त्यानुप्रास है । ) 

गुरुगम से सुषमन में पैठिके , अंतरपथ धारी । ब्रह्मज्योति ब्रह्मनाद धार धरि , हो सबसे न्यारी ।। 

     ( इन दो चरणों का अन्त्यानुप्रास ४ मात्राओं का है । ) 

पर निज बल कछु नाहि है , जेहि बने कमाई । बल तबहीं पावऊँ , गुरु होयँ सहाई ॥ 

     ( इन दो चरणों में ५ मात्राओं का उत्तम अन्त्यानुप्रास है । ) 

 " जुग  जुगान ते अहूँ , पड़े दूखन में । सुधि बुधि गई सब भूलि , माया भूखन में ॥ " 

कुंडलिया में कहूँ सो सद्गुरु कर पहिचाना । अरे हाँ रे ' में हीँ , जौं प्रभु दया सों मिलैं , सेविये तजि अभिमाना ॥ " 

     ( ऊपर के चरणों में ६-६ मात्राओं का अन्त्यानुप्रास है । ) 

अगल - बगल कहुँ दृष्टि न डोलै , सन्मुख बिन्दु पकड़ लागी । ब्रह्मज्योति खुल गई अंतर में , निसि अँधियारी हदस भागी ॥

     ( ऊपर के चरणों में ७ मात्राओं की तुक है । ) 

आओ वीरो मर्द बनो अब , जेल तुम्हें तजना होगा । मन - निग्रह के समर क्षेत्र में , सन्मुख थिर डटना होगा । 

     ( ऊपर के चरणों में ८ मात्राओं की तुक है । ) 

भक्ति - योग अरु ध्यान को , भेद बतावनिहारे । श्रवण मनन निदिध्यास , सकल दरसावनिहारे । 

     ( उपरिलिखित चरणों में ९ मात्राओं का अन्त्यानुप्रास है । ) 

गंभीर चिंतन, ज्ञान के बारे में, लेखक का गंभीर चिंतन छंद ज्ञान के बारे में
 संत लालदास  

     हम पहले कह आये हैं कि अन्त्यानुप्रास से चरणों के प्रवाह पर कोई असर नहीं पड़ता । इसे हम उदाहरण द्वारा अच्छी तरह समझ सकते हैं । नीचे दिये गये चरणों में अपेक्षित प्रवाह भी है और ' कमाई - सहाई ' अन्त्यानुप्रास भी । यदि दूसरे चरण के ' सहाई ' के स्थान पर दयालू ( Iss ) शब्द रख दिया जाए , तो इससे दूसरे चरण के प्रवाह में कोई अंतर नहीं पड़ेगा ; यह गाकर देखा जा सकता है । अंतर इतना ही पड़ जाता है कि छंद का सौंदर्य और माधुर्य नष्ट हो जाता है--

पर निज बल कछु नाहिं है , जेहि बने कमाई । सो बल तबहीं पावऊँ , गुरु होयँ सहाई ॥ 

     छंदःशास्त्र में अन्त्यानुप्रास के लिए कोई विशेष नियम नहीं बनाया गया है । यह कवि की अपनी इच्छा पर निर्भर है कि वह किन चरणों में तुक मिलाये और किनमें नहीं । किसी - किसी छंद के सभी चरणों में एक - सी तुक होती है । ऐसे छंद को सर्वान्त्यतुक छंद कहते हैं । किसी - किसी छंद के पहले दूसरे और तीसरे - चौथे चरणों में तुक पायी जाती है । किसी - किसी छंद के पहले और तीसरे चरणों में तथा किसी - किसी छंद के दूसरे और चौथे चरणों में तुक देखी जाती है ।

    समछन्द के चारो चरणों में एक - सी तुक हो सकती है , पहले दूसरे और तीसरे - चौथे चरणों में भी तुक हो सकती है और केवल दूसरे - चौथे में भी । चौपाई भी समछंद है ; परन्तु इसके केवल दूसरे - चौथे चरणों में ही तुक नहीं देखी जाती । चारो चरणों में एक - सी तुक होने का उदाहरण--

अविगत अज विभु अगम अपारा , सत्यपुरुष सतनाम । सीम आदि मध अन्त विहीना , सब पर पूरन काम ॥ बरन - विहीन न रूप न रेखा , नहिं रघुवर नहिं श्याम । सत रज तम पर पुरुष प्रकृति पर , अलख अद्वैत अधाम ॥ ( पदा ० , १२ वाँ पद्य ) 

गुरू गुरू मैं करौं पुकारा । सतगुरु साहब सुनो हमारा ॥ अघ औगुण दुख मेटनहारा सतगुरु साहब परम उद्वारा ॥ ( पदा ० , १८ वाँ पद्य ) 

     पहले दूसरे और तीसरे - चौथे चरणों में तुक होने का उदाहरण--

जय - जय परम प्रचंड , तेज तम मोह विनाशन । जय - जय तारण तरण , करन जन शुद्ध बुद्ध सन ॥ जय - जय बोध महान , आन कोउ सरवर नाहीं । सुर नर लोकन माहिं , परम कीरति सब ठाहीं ॥ ( पदा ० , ४ था पद्य ) 

बार बार करुँ वीनती , गुरु साहब आगे । कृपा दृष्टि हेरिय गुरू , चित चरनन लागे । अति दयाल दे चित्त सुनो , मम हाल मलीना । या जग मो सम और ना , दुख दूषण भीना ॥ ( पदा ० , २६ वाँ पद्य ) 

नित सतसंगति करो बनाई । अंतर बाहर द्वै विधि भाई ॥ धर्मकथा बाहर सतसंगा । अंतर सत्सँग ध्यान अभंगा ॥ ( पदा ० , ४७ वाँ पद्य )  

     दूसरे और चौथे चरणों में तुक होने का उदाहरण --- 

गुरुदेव दानि तारण , सब भव व्यथा विदारन । मम सकल काज सारन , अपना दरस दिखा दो ॥ विषयों में ही मन लागे , सत्संग से हटि भागे । मोको करो सभागे , सत्संग में लगा दो ॥ ( पदा ० , १ ९वाँ पद्य ) 

दोहा , बरवै , उल्लाला आदि छंदों के दूसरे - चौथे चरणों में तुक होती है--

दोहा- तुम साहब रहमान हो , रहम करो सरकार । भव सागर में हौं पड़ो , खेड़ उतारो पार ॥ ( पदा ० , ११ वाँ पद्य )

     सोरठा छंद के पहले तीसरे चरणों में तुक होती है ; देखें--

सोरठा- प्रनवउँ पवन कुमार , खल बन पावक ग्यानघन । जासु हृदय आगार , बसहिं राम सर चाप धर ॥  ( मानस , बालकाण्ड ) 

     सोरठा के दूसरे - चौथे चरणों में भी कहीं - कहीं तुक देखने को मिलती है ; जैसे-- 

जो सुमिरत सिधि होइ , गननायक करिबर बदन । करउ अनुग्रह सोइ , बुद्धिरासि सुभ गुन सदन ॥ ( मानस , बालकाण्ड ) 

     तुक केवल चरणों के अंत में ही नहीं होती , बल्कि एक ही चरण में कई जगहों पर भी होती है । यह तुक प्रायः यतियों पर होती है । 

     निम्नलिखित एक चरण में तीन यतियाँ हैं । इनमें से प्रारंभिक दो यतियों पर तुक है ; देखें--

ममता - मदहीना , अनहद लीना , बास बसें सत धाम ।

      निम्नलिखित चरण में तीन यतियाँ हैं और तीनों पर तुक है 

गुरु ज्ञान सूर्य रूप , उनकी जोती अनूप , उर के नामैं तम कूप।

ध्यान में चंद ज्ञान का उदय
ध्यान में छंद ज्ञानानुभूति

     निम्नलिखित एक चरण में चार यतियाँ हैं और प्रारंभिक ३ यतियों पर एक - सी तुक है-- 

रामनाम धुन घरि , प्रेम अति थिर करि , भव दुख जाय टरि , अस नाम उपासन । 

     निम्नलिखित चरण में दो यतियाँ हैं और दोनों पर तुक है--

संसृति संताप से काँप रहे , भव भौंर भ्रमत जीव हाँफ रहे । निम्नलिखित एक चरण में चार यतियाँ हैं और प्रारंभिक दो यतियों पर तुक है-- 

तन नव द्वार हो रामा , अति ही मलिन हो ठामा , त्यागि चढ़ , दशम दुआरे , सुख पाउ रे भाई । 

     अधोलिखित चरण में ६ यतियाँ हैं और आरंभिक ५ यतियों पर तुक है--

ज्ञानवान , अति सुजान , प्रेमपूर्ण हृदय ध्यान , विगत मान , सुख निधान , दास भाव धारणं । 

     निम्नलिखित एक चरण में चार यतियाँ हैं और बीच की दो यतियों पर ध्वनि साम्य देखने को मिलता है --

आहो भाई ब्रह्मज्योति पार करु हो , सहस कमल दल , जोति करे झलमल , त्रिकुटी में सूर्य उगे हो । 

     नीचे एक छंद के दो चरण दिये गये हैं ; दोनों चरणों में दो - दो यतियाँ हैं । प्रथम चरण की दोनों यतियों और द्वितीय चरण की प्रथम यति पर एक - सा ध्वनि - साम्य है --

गुरुदेव दानि तारण , सब भव व्यथा विदारन । मम सकल काज सारन , अपना दरस दिखा दो |

     इस तरह हम देखते हैं कि कवियों ने छंदों में तुक की योजना मनमाने ढंग से की है । चरणों में तुक की योजना जितनी अधिक होती है , उतनी अधिक छंद की रुचिरता बढ़ती है और हम यह जानते हैं कि रुचिरता छंद का एक आवश्यक गुण है , इसलिए तुक छंद का एक अनिवार्य अंग मानी जानी चाहिए ।∆


इस पोस्ट के बाद 'मात्रा और उसके गिनने के नियम' का बर्णन हुआ है उसे पढ़ने के लिए   👉 यहां दबाएं.


प्रभु प्रेमियों ! इस लेख में  अनुप्रास अलंकार की परिभाषा क्या है? अन्त्यानुप्रास का क्या प्रभाव पड़ता है? एक ही वर्ण की आवृत्ति बार होने पर कौन सा अलंकार है? अनुप्रास का द्विअर्थी क्या है? अनुप्रास अलंकार के उदाहरण, अनुप्रास अलंकार के 10 उदाहरण, काव्य में अलंकार का स्थान और सुंदरता का विश्राम। अनुप्रास अलंकार का भेद विस्तृत विवरण। अनुप्रास अलंकार के प्रकार, अनुप्रास अलंकार की परिभाषा उदाहरण सहित, अनुप्रास अलंकार के उदाहरण संस्कृत में, अनुप्रास अलंकार के 5 उदाहरण, अनुप्रास अलंकार के 20 उदाहरण इत्यादि बातों को  जाना. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार  का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है. जय गुरु महाराज.



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