LS01 व्याख्या 14क || विश्व के आध्यात्मिक गुरु कौन है || सतगुरु का मतलब क्या होता है || गुरु पर विशेष
सद्गुरु की सार शिक्षा || व्याख्या भाग 14क
प्रभु प्रेमियों ! 'श्रीसद्गुरु की सार शिक्षा' पुस्तक के व्याख्या - भाग 14क में 'यह सार है सिद्धान्त सबका , सत्य गुरु को सेवना । ' मँहीँ ' न हो कुछ यहि बिना , गुरु सेव करनी चाहिये ॥१४॥' इस हरिगीतिका छंद का व्याख्या किया गया है. इसमें संतमत सिद्धांत का सार क्या है? सद्गुरु किसे कहते हैं? सद्गुरु कैसे अपने शिष्यों को अपने जैसा बना लेते हैं? भृंग और सद्गुरु में समानता कैसे हैं ? सद्गुरु का सेवा क्या है ? सद्गुरु कौन है? सद्गुरु किन को बनाना चाहिए ? झूठे सद्गुरु के चक्कर में पड़ने के बाद क्या करना चाहिए ? आदि बातों पर चर्चा की गई है.
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सद्गुरु महर्षि मेंहीं और ब्याख्याता |
विश्व के आध्यात्मिक गुरु कौन है || सतगुरु का मतलब क्या होता है ||सद्गुरु पर विशेष जानकारी हिंदी में
व्याख्या भाग 14क
यह सार है सिद्धान्त सबका , सत्य गुरु को सेवना । ' मँहीँ ' न हो कुछ यहि बिना , गुरु सेव करनी चाहिये ॥१४॥
पद्यार्थ - सन्त सद्गुरु की सेवा करना- यह सभी संतमत - सिद्धान्तों का सार है । सद्गुरु महर्षि मँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं कि सद्गुरु की सेवा किये बिना कुछ भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी । इसलिए सद्गुरु की सेवा अवश्य ही करनी चाहिए ॥१४॥
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व्याख्याता |
[ यह सार है सिद्धांत सबका - यह सभी संतमत - सिद्धांतों का सार है । सार- किसी पदार्थ का वास्तविक भाग , जिसपर वह अपना अस्तित्व बनाये रखता है ; किसी पदार्थ का उपयोगी भाग , सारांश , निष्कर्ष , आधार , जड़ जैसे शरीर का सार चेतन आत्मा है , सृष्टि का सार आदिनाद है , दूध का सार मक्खन है और नींबू का सार उसका रस है ।
सत्य गुरु को सेवना - सद्गुरु का सेवन करना । सद्गुरु की संगति करना , उनके उपदेशों का श्रवण करना , उनकी शारीरिक सेवा करना , उनकी आज्ञाओं का पालन करना , उनके गुणों का गान करना , गुरु - मंत्र का मानस जप करना और गुरु के स्थूल रूप का मानस ध्यान करना सद्गुरु का सेवन करना है ।
सद्गुरु का सेवन करना सभी संतमत - सिद्धांतों का सारांश है , आधार या मूल है । संतमत - सिद्धांतों में जो कुछ कहा गया है , वह सब सद्गुरु के सेवन से धीरे - धीरे अपने - आप प्राप्त होता जाएगा । आध्यात्मिक जीवन के मूल में सद्गुरु ही हैं , यदि उन्हें छोड़ दिया जाए , तो कुछ भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो पाएगी ।
गुरुदेव ' सत्संग - योग ' के चौथे भाग के ८४ वें पाराग्राफ में लिखते हैं- “ सत्संग , सदाचार , गुरु की सेवा और ध्यानाभ्यास ; साधकों को इन चारो चीजों की अत्यन्त आवश्यकता है ।... पंच पापों से बचने को सदाचार कहते गुरु की सेवा में उनकी आज्ञाओं का मानना मुख्य बात है ... सन्तमत में उपर्युक्त चारो चीजों के ग्रहण करने का अत्यन्त आग्रह है । इन चारो में मुख्यता गुरु - सेवा की है , जिसके सहारे उपर्युक्त बची हुई तीनों चीजें प्राप्त हो जाती हैं । "
गुरु की भक्ति साधु की सेवा , बिनु नहिं कछुहू पाई हो । ( पद्य - सं ० ३३ )
रह ' मैंहीं ' गुरु सेवा लीना , तब हीं होइ रसाई । ( पद्य - सं ० ७३ )
जग में ही आधार , ' मेंहीं ' नहिं आन सार । ( पद्य - सं ० ८६ )
बिन दया सन्तन्ह की ' मेंहीं ' , जानना इस राह को । हुआ नहीं होता नहीं वो , होनहारा है नहीं । ( पद्य - सं ० ११७ )
जो गुरु का सेवन करता है , वह भाव - विचार और सद्गुणों की दृष्टि से गुरु के ही जैसा हो जाता है ।
कीरति सु भृंगं समं सो सु स्वामी । कीटन्ह स्वयं सम करन गुरु नमामी ॥ ( पद्य - सं ० १५ )
गुरु को दंडवत कीजिए , कोटि कोटि परनाम । कीट न जानै भृंग को , कर ले आपु समान ॥ -संत कबीर साहब
भृंग बिरनी ( बिलनी ) की तरह उड़नेवाला एक प्रकार का कीड़ा होता है । वह घर आदि की दीवाल में गीली मिट्टी का गुम्बदनुमा एक छोटा - सा घर बनाता है । उसमें घुसने के लिए वह एक छेद छोड़ देता है । एक दूसरे ही किसी पिल्लू या कीड़े को पकड़कर वह लाता है और उसे जबरन् उस घर में घुसा देता है । वह पिल्लू जब बाहर निकलने का प्रयत्न करता है , तो भृंग ' भिन्न - भिन्न ' ध्वनि करते हुए उसपर तीखा प्रहार करता है , जिससे पिल्लू भीतर ही रहने में अपना कल्याण देखता है । बाद में उस घर का मुँह गीली मिट्टी से ही भृंग बंद कर देता है । वह पिल्लू भय के मारे भीतर ही भीतर उस भृंग का ख्याल करते - करते कुछ दिनों के बाद उसी के रूप का हो जाता है और तब वह घर का मुँह खोदकर बाहर उड़ भागता है । सद्गुरु का यश कीड़े को अपनी तरह बनानेवाले उसी भृंग की तरह संसार में विख्यात है । वे अपने ज्ञान से शिष्यों को अपने ही जैसा बना लेते हैं ।
निम्नलिखित उद्धरणों में गुरुदेव ने सत्य गुरु या सद्गुरु की पहचान बतलायी है और असत् ( झूठे ) गुरु का तत्काल त्याग करने का आग्रह किया है-
“जीवन - काल में जिनकी सुरत सारे आवरणों को पार कर शब्दातीत में समाधि - समय लीन होती है और पिंड में बरतने के समय उन्मुनी रहनी में रहकर सारशब्द में लगी रहती है , ऐसे जीवन - मुक्त परम सन्त पुरुष पूरे और सच्चे सद्गुरु कहे जाते हैं । ” ( सत्संग - योग , चौथा भाग , पाराग्राफ ८० )
“ पूरे और सच्चे सद्गुरु की पहचान अत्यन्त दुर्लभ है । फिर भी जो शुद्धाचरण रखते हैं , जो नित नियमित रूप से नादानुसंधान का अभ्यास करते हैं और जो सन्तमत को अच्छी तरह समझा सकते हैं , उनमें श्रद्धा रखनी और उनको गुरु धारण करना अनुचित नहीं । दूसरे - दूसरे गुण कितने भी अधिक हों में शुद्धता नहीं पायी जाए , तो वह गुरु अधिक हों ; परन्तु यदि आचरण में शुद्धता नहीं पायी जाए, तो वह गुरु मानने - योग्य नहीं । यदि ऐसे को पहले गुरु माना भी हो , तो उसका दुराचरण जान लेने पर उससे अलग रहना ही अच्छा है । उसकी जानकारी अच्छी होने पर भी आचरणहीनता के कारण उसका संग करना योग्य नहीं । और गुणों की अपेक्षा गुरु के आचरण का प्रभाव शिष्यों पर अधिक पड़ता है । और गुणों के सहित शुद्धाचरण का गुरु में रहना ही उसकी गरुता तथा गुरुता है , नहीं तो वह गरु ( गाय , बैल ) है । क्या शुद्धाचरण और क्या गुरु होनेयोग्य दूसरे - दूसरे गुण , किसी में भी कमी होने से वह झूठा गुरु है । " ( सत्संग - योग , चौथा भाग , पाराग्राफ ८२ ) क्रमशः
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प्रभु प्रेमियों ! 'सदगुरु की सार शिक्षा' पुस्तक की इस व्याख्या में सद्गुरु कौन है उनके बारे में बताओ? सतगुरु का मतलब क्या होता है? सच्चे सतगुरु कौन है? सतगुरु और गुरु में क्या अंतर है? विश्व के आध्यात्मिक गुरु कौन है? गुरु का अर्थ है,गुरु के प्रकार, सद्गुरु का महत्व, गुरु का स्वरुप, गुरु के गुण, आदि शब्दों के बारे में जानकारी प्राप्त की. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है.जय गुरु महाराज.
सद्गुरु की सार शिक्षा
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