वेद-दर्शन-योग / ऋग्वेद संहिता / मंत्र 3
प्रभु प्रेमियों ! वेद-दर्शन-योग-यह सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज की अनमोल कृति है। इसमें चारो वेदों से चुने हुए एक सौ मंत्रों पर टिप्पणीयां लिखकर संतवाणी से उनका मिलान किया गया है। आबाल ब्रह्मचारी बाबा ने प्रव्रजित होकर लगातार ५२ वर्षों से सन्त साधना के माध्यम से जिस सत्य की अपरोक्षानुभूति की है , उसी का प्रतिपादन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है .
ऋग्वेद संहिता / मंत्र 3
( ३ ) अवर्त्या शुन आन्त्राणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम् । अपश्यं जायाममहीयमानामधा मे श्येनो मध्वाजभार ॥१३ ॥ अ ० ५ व ० २६/१३ अ ० २ सू ० १८ अष्टक ३ मंडल ४ खंड ३ पृ ० ४६४
भाष्य – अध्यात्मदर्शी कहता है ( अवर्त्या ) जन्म - मरण के व्यापार से रहित होकर मैं ( शुन :) सुखस्वरूप होकर अथवा ( अवर्त्या ) पुनः इस संसार में न होने के निमित्त से ही ( शुनः ) सुखकर परमेश्वर के ( आन्त्राणि ) ज्ञान करानेवाले गुह्य साधनों को ( पेचे ) परिपक्व करूँ । ( देवेषु ) पृथिवी सूर्यादि एवं विषय के अभिलाषी इन्द्रियों के बीच में मैं ( मर्डितारम् ) किसी को भी परम सुख देने वाला ( न विविदे ) नहीं पाता हूँ । अथवा मैंने अज्ञानी पुरुष ( अवर्त्या ) लाचार , , अगतिक होकर ( शुनः ) कुत्ते के समान लोभी आत्मा के ( आन्त्राणि ) भीतरी आँतों के तुल्य इन ( आन्त्राणि ) ज्ञानसाधन इन्द्रियों को ही ( पेचे ) परिपक्व किया , उनको तपःसाधना से वश किया और उन ( देवेषु ) विषयाभिलाषुक प्राणों में से एक को भी नहीं पाया , अनन्तर ( जायाम् ) इस संसार को उत्पन्न करनेवाली प्रकृति को भी मैंने ( अमहीयमाना ) महती परमेश्वरी शक्ति के तुल्य नहीं ( अपश्यम् ) देखा । इतना ज्ञान कर लेने के अनन्तर ( श्येनः ) a ज्ञानस्वरूप प्रभु परमेश्वर ( मे ) मुझे ( मधु ) परम मधुर ब्रह्मज्ञान ( आजभार ) प्रदान करता है ।
टिप्पणी – इस मन्त्र में पुनः इस संसार में न होने के ( अर्थात् सदा की मुक्ति के ) निमित्त सुखकर परमेश्वर के ज्ञान करानेवाले गुह्य साधनों का करना लिखा है । यह तो कबीर साहब की वही है बात है कि ' बहुरि नहीं आवना यहि देश । '∆
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