वेद-दर्शन-योग / ऋग्वेद संहिता / मंत्र 4
प्रभु प्रेमियों ! वेद-दर्शन-योग-यह सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज की अनमोल कृति है। इसमें चारो वेदों से चुने हुए एक सौ मंत्रों पर टिप्पणीयां लिखकर संतवाणी से उनका मिलान किया गया है। आबाल ब्रह्मचारी बाबा ने प्रव्रजित होकर लगातार ५२ वर्षों से सन्त साधना के माध्यम से जिस सत्य की अपरोक्षानुभूति की है , उसी का प्रतिपादन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है .
ज्योति और अन्तर्नाद
( ४ ) आ स्वमदम युवमानो अजरस्तृष्वविष्यन्नतसेषु तिष्ठति । अत्यो न पृष्ठ पुषितस्य रोचते दिवो न सानुं स्तनयन्नचिक्रदत् ॥ २ ॥ अ ० ४ व ० २३२ अ ० ११ सू ० ५८ अष्टक १ मंडल १ खंड १ पृ ० २१६
भाष्य- अपने भोग्य कर्मफल को भोग्य अन्न के समान प्राप्त करता हुआ , जरा से रहित आत्मा शीघ्र ही काष्ठों के बीच अग्नि जिस प्रकार उनका भोग करता हुआ भी उनके ही आश्रय में रहता है , उसी प्रकार व्यापक , आकाश , पृथ्वी आदि तत्त्वों के आश्रय पर ही और शीघ्र ही पिपासित के समान उन्हीं पदार्थों का भोग करता हुआ उनके ही बीच में रहता है और जिस प्रकार वेगवान अश्व मार्ग को पार करता अच्छा मालूम होता है और जिस प्रकार अति अधिक दाहकारी अग्नि के ऊपर का भाग अति उज्ज्वल होता है , उसी प्रकार अति तेजस्वी , सब पापों को भस्म कर देनेहारे इस जीवात्मा का आनन्द सेवन करनेवाला स्वरूप भी बहुत ही प्रिय प्रतीत होता । आकाश में स्थित मेघ के खंड के समान वह प्रकाशस्वरूप परमेश्वर का भजन करनेवाला जीव भी गर्जते मेघ के समान ही अन्तर्नाद करता है।
टिप्पणीकार |
टिप्पणी – ' प्रकाशस्वरूप परमेश्वर का भजन करनेवाला अर्थात् परमात्म - ज्योति का दर्शन करनेवाला जीव मेघ के समान गर्जन वा अन्तर्नाद करता है ' — से तात्पर्य अन्तर्नाद ( अनाहत नाद - अन्तर का ध्वन्यात्मक शब्द ) का ध्यान अर्थात् नादानुसन्धान वा सुरत - शब्द योग करना है । उपनिषदों और सन्तवाणियों में मेघ गर्जना का यत्र - तत्र बहुत वर्णन है ।
आदौ जलधिजीमूतभेरीनिर्झरसंभवः । मध्ये मर्दलशब्दाभो घण्टाकाहलजस्तथा ॥ -नादविन्दूपनिषद् ॥३४ ॥
अर्थ - आरम्भ में नाद समुद्र , बादल , दुन्दुभि , जलप्रपात से निकले हुए जैसे मालूम होते हैं और मध्य में मर्दल , घण्टा और सिंघा जैसे ।
गगन गराजै दामिनि दमकै , अनहद नाद बजावै । ( कबीर साहब )
गगन गरज घन बरषहीं , बाजै दीरघ नाद । अमरापुर आसन करै , जिन्हके मते अगाध ॥ ( गरीब दास )
साधक अन्तर अभ्यास में विविध प्रकार की ज्योतियों के दर्शन करता है और शब्दों का श्रवण करता है । ये ज्योतियाँ परमात्म - स्वरूप से व्याप्त है । इसलिये परमात्मा के विविध ज्योति - रूप कहे जाते हैं । उपनिषदों और सन्तवाणियों में इनके विस्तार से वर्णन है ; जैसे-
'गगन मण्डल के बीच में , तहवाँ झलके नूर। निगुरा महल न पावई , पहुँचेगा गुरु पूर ॥ कबीर कमल प्रकासिया , ऊगा निरमल सूर । रैन अंधेरी मिटि गई , बाजे अनहद तूर ॥ ' ' चन्दा झलके यहि घट माहीं , अन्धी आँखन सूझत नाहीं । यही घट चन्दा यहि घट सूर , यहि घट बाजे अनहद तूर ॥ ' मन्दिर में दीप बहु बारी , नयन बिनु भई अंधियारी ॥ ' ( कबीर साहब)
निशि दामिनी ज्यों चमक चन्दा यिनि पेखै । अहि निशि जोति निरन्तर देखै ।। अन्तर ज्योति भई गुरु साखी , चीने राम करम्मा । नानक हउमै मारि पतीणै , तारा चड़िया लम्पा ॥ प्रगटी जोति जोतिमहि जाता , मनमुखि भरमि भुलाणी । नानक भोर भइआ मनु मानिआ जागत रैणि विहाणी ॥ ( गुरु नानक )
उलटि देखो घट में जोति पसार । बिनु बाजे तहँ धुनि सब होवे , विगसि कमल कचनार ॥ ( गुलाल साहब )
धुनि महिं ध्यान ध्यान महि जाणिआ , गुरु मुख अकथ कहानी ॥ ( गुरु नानक )
' जैसे जल महि कमल निरालमु मुरगाई नैंसाणै । सुरति सबदि भवसागरु तरीऔ , नानक नामु बखाणै ॥ ' ' शब्द अनाहत बाजै पंज तूरा सति गुरुमति लै पूरो पूरा । ' ( गुरु नानक )
करम होवै सतिगुरु मिलाए , सेवा सुरति शब्द चित लाए । ( गुरु नानक )
अनहदो अनहदु बाजे , रुण झुनकारे राम । ( गुरु नानक )
बहुशास्त्रकथाकन्थारोमन्थेन वृथैव किम् । अन्वेष्टव्यं प्रयत्नेन मारुते ज्योतिरान्तरम् ॥ ( मुक्तिकोपनिषद् )
अर्थ- बहुत - से शास्त्रों की कथाओं को मथने से क्या फल ? हे वायुसुत ! अत्यन्त यत्नवान होकर केवल अन्तर की ज्योति की खोज करो ।
स्वात्मानं पुरुषं पश्येन्मनस्तत्र लयं गतम् । रत्नानि ज्योतिर्नादं तु विन्दु माहेश्वरं पदम् । य एवं वेदपुरुषः स कैवल्यं समश्नुते ॥ १०५ ।। ( ध्यानविन्दूपनिषद् )
अर्थ - मनुष्यों को अपनी आत्मा की ओर देखना चाहिये , जहाँ जाकर मन लय हो जाता है । जो रत्नों को , चन्द्रज्योति को , नाद को , विन्दु को और महेश्वर के परम पद को जानता है , वह कैवल्य पद पाता है । १०५ ।। ∆
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