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LS04- 05 कुण्डलिनी शक्ति और उसका स्थान || संतमत में कुंडलिनी जगाने का निर्दोष तरीका क्या है?

LS04  पिंड माहिं ब्रह्मांड / 05

     प्रभु प्रेमियों  ! 'इस पोस्ट में जानेंगे कि- जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में चेतना का प्रभाव शरीर के किस भाग से किस भाग तक होता है? कुंडलिनी किसे कहते हैं?  कुंडलिनी को और क्या क्या कहते हैं? शरीर के किस स्थान पर चेतन धारा सुसुप्त अवस्था में पड़ी रहती है? आध्यात्मिक उत्थान कब होता है?  कुंडलिनी जगाने का तरीका क्या है?  चेतना का प्रभाव कहां से कहां तक होकर शांत हो जाता है? शिव तत्व क्या है?  कुंडलिनी शक्ति जग गया है इसे कैसे जाने? कुण्डलिनी शक्ति की अवस्थिति कहाँ है? संतमत में कुंडलिनी शक्ति का जागरण कैसे करते हैं? अगर आपको इन बातों के बारे में जानना है तो इस पोस्ट को पूरा पढ़ें-

इस पोस्ट के पहले वाले पोस्ट में बताया गया है कि पिण्ड में छह चक्र कौन सा है? उसे पढ़ने के लिए    👉यहाँ दवाएँ.   


कुंडलिनी शक्ति और उसका स्थान


कुण्डलिनी शक्ति और उसका स्थान :

     प्रभु प्रेमियों  ! जाग्रत् अवस्था में चेतन तत्त्व शिवनेत्र में रहता है और उसकी धाराएँ  दोनों आँखों में तथा दोनों आँखों से नीचे फैली हुई रहती हैं | स्वप्न में चेतन तत्त्व सिमटकर कण्ठ में आ जाता है और उसकी धाराएँ कण्ठ से नीचे फैली हुई रहती हैं | सुषुप्ति में चेतन तत्त्व सिमटकर हृदय में आ जाता है और उसकी धाराएँ हृदय से नीचे फैली हुई रहती हैं । जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में चेतन तत्त्व आता - जाता रहता है और तीनों अवस्थाओं में उसकी धाराएँ नीचे मुख्यतः गुदा तक फैली हुई मानी जाती हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वप्न में चेतन तत्त्व आँखों से हट जाता है ; सुषुप्ति में वह आँखों और कण्ठ- दोनों से हट जाता है ; परन्तु उसकी धाराएँ जीवन भर किसी भी अवस्था में गुदा स्थान को छोड़ नहीं पातीं , मानो चेतन की धाराएँ यहाँ जकड़ी हुई हों । .

     गुदा स्थान में जकड़ी हुई चेतन धाराओं को हठयोगियों ने ' कुण्डलिनी ' की संज्ञा दी है । इसे कुण्डलिनी शक्ति ( Serpent Power ) भी कहते हैं । इसकी तुलना साढ़े तीन फेरे मारकर सोये हुए एक नाग या नागिन से की गयी है । ' हठयोग प्रदीपिका ' में कुण्डलिनी के कई नाम दिये गये हैं ; जैसे कुटिलांगी , कुण्डली , कुण्डलिनी , भुजंगी , शक्ति , ईश्वरी , अरुन्धती आदि । ' कुण्डल ' कान के एक आभूषण का नाम है , जो गोलाकार होता है । कुण्डल की तरह फेरे मारकर बैठने के कारण साँप को भी ' कुण्डली ' कहते हैं । ‘ कुण्डली ’ का स्त्रीलिंग रूप ‘ कुण्डलिनी ’ ( साँपिन ) है । फेरे मारकर या चक्कर लगाकर बैठने की मुद्रा को भी ' कुण्डली ' कहते हैं । जो शक्ति साँपिन की तरह कुंडली ( फेरे ) मारकर गुदा - स्थान में सोयी हुई है , वह है कुण्डलिनी शक्ति जिसकी आकृति घुँघराली , घुमावदार या छल्लेदार हो , वह है कुटिलांगी । साँप जितने फेरे मारकर किसी चीज से लिपटता है , उतनी ही मजबूती के साथ वह उस चीज को पकड़ा हुआ समझा जाता है । कम - से - कम तीन फेरे डालकर जब हम किसी वस्तु को बाँधते हैं , तभी वह  मजबूती के साथ बँधी हुई मानी जाती है । चेतन धारा गुदा स्थान को जकड़कर पकड़े हुई है । इसीलिए कहा जाता है कि वह साँपिन की तरह साढ़े तीन चक्कर डालकर गुदाचक्र में सुषुप्त अवस्था में पड़ी हुई है । जबतक कुंडलिनी शक्ति जगती नहीं , तबतक किसी का आध्यात्मिक उत्थान नहीं हो सकता , तबतक वह एक सामान्य व्यक्ति की ही तरह रहता है | दण्ड से आहत हुआ साँप क्रुद्ध होकर जिस प्रकार दण्ड की तरह सीधे खड़ा हो जाता है , उसी प्रकार हठयोग या राजयोग के द्वारा जब कुण्डलिनी शक्ति जगती है , तब वह साँप के फूत्कार की तरह आवाज करती हुई सीधी होकर मेरुदण्ड के मार्ग से ऊपर चढ़ती है और आज्ञाचक्र या सहस्रदल कमल में स्थित शिव से मिलकर फिर वहाँ से नीचे उतर आती है । 
[ भ्रुवोर्मध्ये शिवस्थानं मनस्तत्र विलीयते । ( हठयोग प्रदीपिका ) सहस्रकमले शक्तिः शिवेन सह मोदते । ( योगकुण्डली उपनिषद् , प्रथम ध्याय ) अन्तर - दर्शित ज्योतिर्मय विन्दु भी शिवरूप है । ]  

     इस प्रकार जब किसी साधक की चेतन - धाराएँ सिमटकर मूलाधार से आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु या सहस्रार तक और फिर आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु या सहस्रार से मूलाधार तक आने - जाने लगती है , तब कहा जाता है कि उसकी कुण्डलिनी शक्ति जग गयी उसकी सुषुम्ना नाड़ी उन्मुक्त हो गयी उसके षट् चक्रों का भेदन हो गया अथवा उसके सभी पिंडी कमल खिल गयेजगी हुई कुण्डलिनी शक्ति चक्रों का भेदन उसी प्रकार करती है , जिस प्रकार गर्म छड़ बाँस की गाँठों का चक्र का भेदन होने पर उस चक्र में स्थित शक्ति विशेष जग जाती है । किसी चक्र का ध्यान करने पर जो ध्यान फल होता है , वह उस चक्र की शक्ति के जगने का फल है । ध्यानविन्दूपनिषद् में कुण्डलिनी शक्ति का स्थान कन्द ऊपर बतलाया गया है- “ कन्दोर्ध्वकुण्डली शक्तिः । ”


चेतन शक्ति का मुख्य प्रभाव स्थान या कुंडलिनी का स्थान

      योगचूड़ामणि उपनिषद् में भी कुंडल की आकृतिवाली अष्टधा कुंडली शक्ति का स्थान कन्द से ऊपर बतलाया गया है- “ कन्दोर्ध्वे कुण्डली शक्तिः अष्टधा कुण्डल आकृतिः । ” योगचूड़ामणि उपनिषद् में ही दूसरी जगह कुण्डलिनी शक्ति का स्थान गुदा और लिंग के बीच योनिस्थान में माना गया है- 

आधारं प्रथमं चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम् । ” योनिस्थानं द्वयोर्मध्ये कामरूपं निगद्यते । " 

अब योगचूड़ामणि उपनिषद् से ही स्पष्ट हो जाता है कि ' कन्द का ऊपर ' गुदा और लिंग का मध्यस्थान ही है । किसी ने मेरुदंड के निचले भाग के आसपास के स्थान को कन्द बतलाया है । कुण्डलिनी शक्ति की अवस्थिति कोई गुदा में , कोई गुदा लिंग के बीच में , कोई लिंग में और कोई लिंग तथा नाभि के बीच मानते हैं । कुछ मतों के अनुसार , नाभि कुण्डलिनी शक्ति का अवस्थान है । विशेष मान्यता यही है कि यह शक्ति गुदा और लिंग के बीच सुषुप्त अवस्था में पड़ी हुई है । 

नाभेस्तिर्यगधः ऊर्ध्वं कुण्डलिनी स्थानम् । अष्ट प्रकृतिरूपाऽष्टधा कुण्डलीकृता कुण्डलिनी शक्तिर्भवति ( शाण्डिल्योपनिषद् ) 

स्वाद चक्र षट् दल विस्तारो , ब्रह्म सावित्री रूप निहारो । उलटि नागिनी का सिर मारो , तहाँ सबद ओंकारा है ॥ ( कबीर शब्दावली , भाग १ ) 

गरीब तीन पेच है , कुण्डलनी नाभी के पासा । जाके मुख सैं नीकलै , झल अग्नि अकासा ॥  ( सन्त गरीब दासजी ) 


     वस्तुतः कुण्डलिनी शक्ति गुदा से लेकर नाभि तक के स्थानों में विशेष रूप से आबद्ध है । । गुदा , लिंग और नाभिचक्र से छूटने के बाद वह सिमटकर द्रुत गति से ऊपर उठती हुई आज्ञाचक्र के केन्द्रविन्दु में जा केन्द्रित होती है । चेतन तत्त्व की कल्पना एक स्प्रिंग ( कमानी ) के रूप में की जा सकती है , जिसका निचला छोर गुदा - लिंग तथा नाभि से बँधा हुआ है और दूसरा छोर खुला हुआ है , जो फैल - सिकुड़कर हृदय से लेकर आज्ञाचक्र के केन्द्रविन्दु तक और आज्ञाचक्र के केन्द्रविन्दु से लेकर हृदय तक जाग्रत् , स्वप्न तथा सुषुप्ति अवस्थाओं में आता - जाता है । जब क्रिया विशेष के द्वारा निचला छोर पूरी तरह खुल जाता है , तब वह चेतनरूप स्प्रिंग सिमटकर आज्ञाचक्र के केन्द्र विन्दु में जा लगता है ।

      सन्तमत में आज्ञाचक्रकेन्द्रविन्दु से चेतन तत्त्व को ऊपर उठाने के लिए विन्दु और नाद की साधनाएँ करनी पड़ती हैं ।∆


आगे का प्रसंग है- 

 मूलाधार चक्र :

 प्रथम चक्र का नाम है- ' मूलाधार ' । ' मूलाधार में दो शब्द हैं - ' मूल ' और ' आधार ' । ' मूल ' के अर्थ हैं - जड़ , आरंभ , मुख्य. प्रथम चक्र सब चक्रों से नीचे पीठ की रीढ़ के मूल के आसपास कुण्डलिनी शक्ति का आधारभूत स्थान होने के कारण 'मूलाधार'  मूलाधार चक्र कहलाता है । 

     ' शिव - संहिता ' में चक्र आधार - कमल ( आधारचक्र ) भी कहा गया है- “ आधारकमले सुप्तां चालयेत् कुण्डलीं दृढाम् । ” वराहोपनिषद् में गुदा और लिंग के बीच मूलाधार चक्र माना गया है- " गुदमेढ़ान्तरालस्थं मूलाधारं त्रिकोणम् । ” ।  ...... 


इस पोस्ट के बाद आने वाले पोस्ट LS04- 06 में मूलाधार चक्र के बारे में बताया गया है . उसे अवश्य पढ़ें. उस पोस्ट को पढ़ने के लिए    👉 यहां दबाएं ( अगला पोस्ट कबतक आयेगा कोई निश्चित नहीं है अतः बुक ओनलाइन मंगाकर पढ़ ले.) 


प्रभु प्रेमियों ! पिंड माही ब्रह्मांड पुस्तक में उपर्युक्त बातें निम्न प्रकार से प्रकाशित हैं-

कुण्डलिनी शक्ति और उसका स्थान
कुण्डलिनी शक्ति और उसका स्थान 1

कुण्डलिनी शक्ति और उसका स्थान 2


     प्रभु प्रेमियों ! 'पिंड माहिं ब्रह्मांड' पुस्तक के उपर्युक्त लेख से हमलोगों ने जाना कि   कुंडलिनी जागरण कैसे करे? कुंडलिनी से आप क्या समझते हैं? मूलाधार चक्र कहाँ होता है? कुण्डलिनी योग के लेखक कौन हैं? कुण्डलिनी जागरण की विधि, कुंडलिनी जागरण के फायदे और नुकसान,  कुण्डलिनी जागरण की यौगिक विधि,  कुण्डलिनी योग, कुंडलिनी चक्र, कुंडलिनी शास्त्र, कुंडलिनी चित्र, कुण्डलिनी योग ,  इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस पोस्ट के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले पोस्ट की सूचना ईमेल द्वारा नि:शुल्क मिलती रहेगी। निम्न वीडियो में उपर्युक्त वचनों का पाठ किया गया है। इसे भी अवश्य देखें, सुनें और समझें। जय गुरु महाराज!!! 



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LS04- 05 कुण्डलिनी शक्ति और उसका स्थान || संतमत में कुंडलिनी जगाने का निर्दोष तरीका क्या है? LS04- 05  कुण्डलिनी शक्ति और उसका स्थान  ||  संतमत में  कुंडलिनी जगाने का  निर्दोष तरीका क्या है? Reviewed by सत्संग ध्यान on 11/28/2021 Rating: 5

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