LS04 पिंड माहिं ब्रह्मांड / 04
पिण्ड में छह चक्र हैं : Cycle of hathog
वराहोपनिषद् में ये चक्र शक्ति के स्थान देखें - ' मूलाधार आदि षट् चक्रं शक्तिस्थानम् उदीरितम् । ' गये हैं ; अँगरेजी में पद्मों अथवा चक्रों को ' प्लेक्सस ' ( Plexus ) कहते हैं । हठयोगशास्त्र के अनुसार इन चक्रों के नाम क्रमश : ये हैं मूलाधार , स्वाधिष्ठान , मणिपूरक , अनाहत , विशुद्ध और आज्ञाचक्र |
योगकुंडली उपनिषद् में भी छो चक्रों के ये ही नाम दिये गये हैं- ' मूलाधारं स्वाधिष्ठानं मणिपूरं तृतीयकम् । अनाहतं विशुद्धं च आज्ञाचक्रं च षष्ठकम् । ' ( अध्याय ३ )
मूलाधार गुदा में , स्वाधिष्ठान लिंग में , मणिपूरक नाभिदेश में , अनाहत हृदय में , विशुद्ध चक्र कंठ में और आज्ञाचक्र मस्तक में स्वीकार है - ' आधारं गुदमित्युक्तं स्वाधिष्ठानं तु लैंगिकम् । मणिपूरं नाभिदेशं हृदयस्थमनाहतम् । विशुद्धिः कण्ठमूले च आज्ञाचक्रं च मस्तकम् ॥ ' ( योगकुण्डली उपनिषद् , अध्याय ३ )
संत दरिया साहब बिहारी भी पिण्ड के अंदर छह चक्र कहते हैं - ' छवो चक्र काया परघट है , वाका भेद जो पावै ।
इन छह चक्रों के नाम संत गरीब दासजी ने इस प्रकार गिनाये हैं- मूलचक्र , स्वाद चक्र , नाभि - कमल , हृदय - कमल , कंठ - कमल और त्रिकुटी कमल ।
"मूल चक्र में राम है , स्वाद चक्र में राम । नाभि कमल में राम है , हृदय कमल में राम ॥ कंठकमल में राम है , त्रिकुटी कमल में राम । सहस कमलदल राम है , सुन बस्ती सब ठाम ॥ ( संत गरीब दासजी )
तंत्रशास्त्रों और कई उपनिषदों में भी षट् चक्रों का उल्लेख पाया जाता है । संतों में दो - चार संतों ने ही इनका जिक्र किया है । किन्हीं- किन्हीं संतों ने इनकी चर्चा तक नहीं की है । कई एक संतों की वाणियों में आये षट् चक्र संबंधी वर्णन को विद्वानों ने क्षेपक माना है । संत लोग राजयोग ( ध्यानयोग ) के लिए हठयोग की कोई आवश्यकता नहीं समझते । राजयोग से ही हठयोग का लक्ष्य पूरा हो जाता है । हठयोग सर्वसाधारण के लिए उपयुक्त नहीं है । यदि इसकी क्रिया ठीक - ठीक नहीं की जाए , तो लाभ के बदले हानि भी हो सकती है ; परन्तु राजयोग में ऐसी बात नहीं है । राजयोग सबके लिए सुगम और आपदा रहित है । ∆
आगे का प्रसंग है-
कुण्डलिनी शक्ति और उसका स्थान :
प्रभु प्रेमियों ! जाग्रत् अवस्था में चेतन तत्त्व शिवनेत्र में रहता है और उसकी धाराएँ दोनों आँखों में तथा दोनों आँखों से नीचे फैली हुई रहती हैं | स्वप्न में चेतन तत्त्व सिमटकर कण्ठ में आ जाता है और उसकी धाराएँ कण्ठ से नीचे फैली हुई रहती हैं | सुषुप्ति में चेतन तत्त्व सिमटकर हृदय में आ जाता है और उसकी धाराएँ हृदय से नीचे फैली हुई रहती हैं । जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं में चेतन तत्त्व आता - जाता रहता है और तीनों अवस्थाओं में उसकी धाराएँ नीचे मुख्यतः गुदा तक फैली हुई मानी जाती हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वप्न में चेतन तत्त्व आँखों से हट जाता है ; सुषुप्ति में वह आँखों और कण्ठ- दोनों से हट जाता है ; परन्तु उसकी धाराएँ जीवन भर किसी भी अवस्था में गुदा स्थान को छोड़ नहीं पातीं , मानो चेतन की धाराएँ यहाँ जकड़ी हुई हों । . .....
इस पोस्ट के बाद आने वाले पोस्ट LS04- 05 में कुंडलिनी और उसके स्थान के बारे में बताया गया है . उसे अवश्य पढ़ें. उस पोस्ट को पढ़ने के लिए 👉 यहां दबाएं
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