LS18 महर्षि मेँहीँ के प्रिय भजन || सद्गुरुदेव के १३१ प्रिय भजनों में भक्तियोग, ध्यानयोग, सुरतशब्दयोग आदि से सम्बन्धित बातें हैं.
LS18 महर्षि मेँहीँ के प्रिय भजन
सद्गुरुदेव के १३१ प्रिय भजनों में भक्तियोग, ध्यानयोग, सुरतशब्दयोग आदि से सम्बन्धित बातें
प्रभु प्रेमियों ! बाबा लालदास जी महाराज इस पुस्तक के बारे में लिखते हैं- "संत तुलसी साहब (हाथरसवाले), संत राधास्वामीजी (आगरा ) और बाबा देवी साहब ( मुरादाबाद) के बाद संतमत के प्रबल और अन्यतम प्रचारक हुए- सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज। वे जीवन-भर संतमत के सत्य एवं मूलस्वरूप का प्रचार करते रहे; जनता के सामने यह भी सिद्ध करते रहे कि सभी संतों के विचारों में सामंजस्य है, भिन्नता नहीं।
वे जीवन-भर संतवाणी का अध्ययन मनन करते रहे; जीवन-भर संतवाणी की व्याख्या करके जनता को सुनाते रहे। प्रवचन में वे अधिकांशतः संतों की ही वाणियाँ उद्धृत किया करते थे। संतवाणी वे खुलकर गाया करते थे और भक्तों से भी गववाकर सुना करते थे। भक्तों से बातचीत करते समय भी वे संतवाणी का हवाला दिया करते थे और किसी की जिज्ञासा का समाधान भी संतवाणी के ही माध्यम से किया करते थे। कठोर साधना के द्वारा उन्होंने संतवाणी के तथ्यों को जीवन में अनुभूत कर लिया था। संतवाणी में जब उन्होंने आंतरिक मंडलों से संबंधित ध्वनि-विषयक भिन्नता पायी, तो इस भिन्नता का कारण जानने के लिए उन्होंने गंभीर साधना की और गहरे ध्यान में उन्हें जो ज्ञात हुआ, उसका वर्णन अपनी पुस्तक 'सत्संग-योग' के चौथे भाग में किया। कहने का भाव यह कि वे जीवन-भर संतवाणी के महासागर में डूबते-उतराते रहे; मानो संतवाणी उनके प्राण ही थी। उनके द्वारा की गयी अत्यन्त क्लिष्ट संतवाणियों की टीकाएँ देखकर बड़े-बड़े विद्वानों को भी दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है।
एक दिन हम कुछ आश्रमवासी गुरुदेव के कमरे में बैठे हुए इधर-उधर की बातें कर रहे थे। उस समय गुरुदेव अपनी चौकी पर चित लेटे हुए थे। एक आश्रमवासी ने मुझसे पूछा कि गुरु नानकदेवजी की वाणी की एक पंक्ति ( 'हे पूरन हे सरबमै, दुखभंजन गुणतास') में आये 'गुणतास' का क्या अर्थ है? मैंने कहा कि मुझे भी ज्ञात नहीं है। गुरुदेव हमलोगों की बात कुछ-कुछ सुन रहे थे। वे पूछ बैठे कि किस शब्द का अर्थ जानना चाहते हो? यह सुनकर में झट उठ खड़ा हुआ और उनके समीप जाकर हाथ जोड़ते हुए कहा, "हुजूर! 'गुणतास' शब्द नानकदेवजी की वाणी में आया है, उसका क्या अर्थ है?" उन्होंने बताया कि 'गुणतास का अर्थ है-गुणों का समुद्र, गुणों की खान।
दूसरे किसी दिन प्रात:कालीन सत्संग के बाद उनके एक होम्योपैथिक डॉक्टर शिष्य ने उनसे पूछा कि सरकार ! भक्तिन मीराबाई की वाणी 'मीरा मन मानी, सुरत सैल असमानी' में 'सैल' का अर्थ क्या है? उन्होंने कहा कि यहाँ 'सैल' का अर्थ शैल-पर्वत नहीं, बल्कि सैर, भ्रमण या यात्रा है।
कहते हैं कि किसी समय उन्हें संत तुलसी साहब (हाथरसवाले ) की वाणी ( “सखी ऐन सूरति पैन पावै। नील चढ़ि निर्मल भई ॥” ) में आये 'पैन' शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा था। उसी समय कभी वे गोड्डा जिले के किसी गाँव में सत्संग-कार्यक्रम के लिए गये हुए थे और सायंकाल कुछ सत्संगियों के साथ धान के खेतों की ओर टहलने निकले हुए थे। बातचीत के क्रम में एक सत्संगी ने 'पैन' शब्द का प्रयोग किया। गुरुदेव ने बड़ी उत्सुकतापूर्वक उनसे पूछा कि 'पैन' शब्द का क्या अर्थ होता है जी? उन सत्संगी ने कहा कि हुजूर ! हमलोग नाले को 'पैन' कहते हैं। यह जानकर गुरुदेव बड़े प्रसन्न हुए और बोले कि लो जी, आज मुझे संत तुलसी साहब की वाणी में आये 'पैन' शब्द का अर्थ स्पष्ट हो गया; वहाँ इसका अर्थ है-नली, गली, मार्ग।
गुरुदेव ने अपने मनभावन संतवाणियों को कई पुस्तकों में संकलित किया है; जैसे सत्संग-योग (द्वितीय भाग), संतवाणी सटीक, विनय-पत्रिका-सार सटीक और भावार्थ-सहित घटरामायण-पदावली ।
यदि किन्हीं को यह जानने की इच्छा हो कि सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज को कौन-कौन-सी संतवाणी बेहद पसंद थी, तो उन्हें 'महर्षि मेँहीँ के प्रिय भजन' नाम्नी इस पुस्तक का अवश्य अवलोकन करना चाहिए। इस पुस्तक में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ के १३१ प्रिय भजनों का संकलन किया गया है। ये सारे भजन उन्हें कंठस्थ थे। इनमें से कुछ को मैंने रात्रिकालीन सत्संग में उन्हें गाते हुए सुना था और कुछ को वे अपने प्रवचन में प्रायः उद्धृत किया करते थे।
दिन में स्नान के बाद वे प्रायः कबीर साहब की विनती 'विनवत हौं कर जोड़ि के, सुनिये कृपानिधान' और गुरु नानकदेवजी की दो स्तुतियों - 'हे अचुत हे पारब्रह्म, अविनाशी अघनाश' तथा 'गुरदेव माता गुरदेव पिता, गुरदेव सुआमी परमेसुरा' का अवश्य पाठ किया करते थे। एक बार उनकी एक शिष्या ने उनसे प्रार्थना की कि हुजूर ! मुझे भक्ति का दान दिया जाए। गुरुदेव ने उसी समय अपने एक सेवक शिष्य से धनी धर्मदासजी की यह विनती 'भक्ति दान गुरु दीजिए, देवन के देवा' गववाकर सुनायी और उस शिष्या से कहा कि इस पद्य के भाव को जीवन में उतार लो, भक्ति प्राप्त हो जाएगी।
कहते हैं कि कुप्पाघाट, भागलपुर की गुफा में जब वे साधना-रत थे, तब वे पहले संत तुलसी साहब (हाथरसवाले ) की वाणी 'गगन धार गंगा बहै, कहैं संत सुजाना हो' का तन्मयतापूर्वक पाठ कर लिया करते थे, तब ध्यानाभ्यास में मौन होकर लीन हो जाते थे। इस पद्य का भाव आंतरिक साधनात्मक अनुभूतियों का साक्षात्कार करने की ललक मन में पैदा करता है।
'महर्षि मेँहीँ के प्रिय भजन' में संकलित अधिकांश संतवाणियाँ गुरुदेव के विभिन्न प्रवचन - संकलनों में देखी जा सकती हैं।
इस पुस्तक का अवलोकन करके हमारे सत्संग-प्रेमी अवश्य ही आनंदित होंगे; क्योंकि इससे उन्हें पता चल जाएगा कि सद्गुरु महर्षि मेँहीँ को कौन-कौन-सी संतवाणी प्रिय थी और उन्हें कैसे-कैसे भाव- विचार अच्छे लगते थे। यह भी पता चल जाएगा कि संत कबीर साहब की वाणियों ने उन्हें अपनी ओर कितना अधिक आकृष्ट किया था।" - छोटेलाल दास ८ सितम्बर, सन् २००७ ई०
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