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LS09 महर्षि मेँहीँ जीवन और उपदेश 4 || संतमत की साधना-पद्धति और गुरुदेव का महापरिनिर्वाण

हर्षि मेँहीँ : जीवन और उपदेश / जीवन 4

     प्रभु प्रेमियों ! पिछले पोस्ट में हमलोग ने सदगुरु महर्षि मँहीँ के महर्षि मेंहीं आश्रम , कुप्पाघाट , भागलपुर का संक्षिप्त परिचय, गुरुदेव का साहित्य - परिचय और संत - परम्परा में प्रतिष्ठा के बारे में जाना है. इस पोस्ट में  संतमत का मूल स्रोत, संतमत की साधना - पद्धति, विचार और उपदेश और गुरुदेव का महापरिनिर्वाण के बारे में जानेगें.


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संतमत की साधना-पद्धति और गुरुदेव का महापरिनिर्वाण 

पिछले पोस्ट का शेषांश-

इन्हें देखकर हमें इनकी समानता के लिए मराठी के संत ज्ञानेश्वर तथा एकनाथ की रचनाओं की ओर दृष्टि डालनी पड़ सकती है । ” ( पृ ० ८१४ ) संत - साहित्य के दूसरे यशस्वी विद्वान् डॉ ० रामेश्वर प्रसाद सिंहजी ने तिलकामाँझी भागलपुर विश्वविद्यालय , भागलपुर की एम ० ए ० ( हिन्दी ) कक्षा के पाठ्य क्रम में निर्धारित अपनी संपादित पुस्तक ' संत - वचनावली ' के अंत में इनके पर्याप्त पदों को संकलित करके इन्हें संत - साहित्य की एक अत्याधुनिक कड़ी के रूप में निरखा - परखा है । 

     महर्षि की रचनाओं की उत्कृष्टता देखकर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् ने १९६७ ई० में इन्हें ' वयोवृद्ध साहित्यिक - सम्मान पुरस्कार ' से विभूषित किया था । 

     कभी दिल्ली में आयोजित एक कबीर पंथी सम्मेलन में महर्षि को भारत का एकमात्र कबीर - साहित्य का मर्मज्ञ स्वीकार करते हुए इन्हें ' कबीर - रत्न ' की उपाधि से विभूषित किया गया था । इनके व्यक्तित्व , कृतित्व और दर्शन पर शोध - प्रबंध लिखकर अनेक विद्वानों ने विभिन्न विश्वविद्यालयों से पी - एच ० डी ० और डी ० लिट् ० की उपाधियाँ लेकर अपने को अलंकृत किया है और अनेक अलंकृत करने का प्रयत्न कर रहे हैं.

संतमत का मूल स्रोत : 

     सन्तमत को अध्यात्म - ज्ञान और उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के विशेष साधन नादानुसंधान ( सुरत - शब्द - योग ) का गौरव है और चूँकि ये दोनों बातें उपनिषदों में वर्णित हैं , इसलिए संतमत अपना मूलस्त्रोत उपनिषद् के वाक्यों को ही मानता है । संतों के मतों में जो पृथक्त्व ज्ञात होता है , वह मोटी और बाहरी बातों को तथा पंथाई भावों को हटाकर विचार करने पर और संतों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण करने पर दूर हो जाता है । 

     पहले - पहल हाथरस के सन्त तुलसी साहब ने संकीर्ण पंथाई भावों से ऊपर उठकर सन्तमत के प्रचार - प्रसार का बीज भारत की भूमि में वपित किया ; उनसे आशीर्वाद प्राप्त किये हुए बाबा देवी साहब ने उस बीज को अंकुरित करके एक स्वस्थ पौधे का रूप दिया और महर्षि ने तो उसे एक विशालतर वृक्ष के ही रूप में परिणत कर दिया ।

संतमत की साधना - पद्धति : 

     वेद , उपषिद् , गीता आदि शास्त्र और संतवाणी - सम्मत महर्षि के द्वारा प्रचारित साधना - पद्धतियों का क्रम इस प्रकार है - मानस जप , मानस ध्यान , दृष्टियोग और नादानुसंधान । इनमें से प्रत्येक पूर्ववर्ती साधना की परिपक्वता परवर्ती साधना करने की योग्यता प्रदान करती है । मानस जप में मन - ही - मन गुरु - प्रदत्त मंत्र की बारंबार आवृत्ति की जाती है । मानस ध्यान में आँखें बंद करके अपने इष्टदेव के स्थूल रूप का बारंबार स्मरण करके उसे हू - ब - हू प्रत्यक्ष कर लेने का अभ्यास किया जाता है । दृष्टियोग में मुँह और आँखें बंद करके नासाग्र में दृष्टिधारों को जोड़कर एकविन्दुता प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है ।

     नादानुसंधान में आँखें , कान और मुँह बंद करके ब्रह्मांड की अनहद ध्वनियों के बीच उस अनाहत नाद को पकड़ने की कोशिश की जाती है , जिससे सारी सृष्टि का विकास हुआ है । इसको पकड़ लेने पर साधक परम पद में पहुँचकर जन्म - मरण के चक्र से सदा के लिए छूट जाता है । सत्संग , सदाचार , गुरु की सेवा और ध्यानाभ्यास - इन चारो को साधकों के लिए अत्यन्त आवश्यक बतलाते हुए महर्षि कहते हैं- “ नादानुसंधान लड़कपन का खेल नहीं है । इसका पूर्ण अभ्यास यम - नियम - हीन पुरुष से नहीं हो सकता । " 

विचार और उपदेश :

     महर्षि अन्य संतों की तरह परमात्मा को सत् - असत् , सगुण - निर्गुण , व्यक्त - अव्यक्त जैसे सभी सापेक्ष भावों से परे मानते हैं । उनका कहना है कि स्थिति और देश - काल की दृष्टि से एकमात्र परमात्मा ही अनादि है ; प्रकृति उसके द्वारा सृजित है और मात्र देश - काल की दृष्टि से वह अनादि है , उत्पत्ति की दृष्टि से नहीं । जीवात्मा परमात्मा का उसी प्रकार अभिन्न अंश है , जिस प्रकार घटाकाश महदाकाश का अभिन्न अंश होता है । अंधकार , प्रकाश और शब्द के आवरणों के हट जाने पर जीवात्मा परमात्मा का अंश कहलाने की संज्ञा से छूट जाता है अर्थात् वह परमात्मा ही हो जाता है ।

     महर्षि अत्यन्त सरल भाषा में प्रवचन करते हुए अपनी बातों को संपुष्ट करने के लिए बीच - बीच में वेद , उपनिषद् , गीता , रामचरितमानस , सन्तवाणी और धम्मपद के भी उद्धरण प्रस्तुत करते जाते थे । ये किसी भी देश के उत्थान के लिए आध्यात्मिकता को सर्वोपरि स्थान देते थे । इनका कहना था कि आध्यात्मिकता को अपनाये बिना क्रमशः सदाचारिता , सामाजिक नीति और राजनीति कभी भी ऊँची तथा उत्तम नहीं हो सकती । फिर बुरी राजनीति शासन सँभालने में समर्थ कैसे हो सकती है ! 

     महर्षि का जन सामान्य के लिए उपदेश था कि ईश्वर की खोज के लिए कहीं बाहर मत भटको ; उसे मानस जप , मानस ध्यान , दृष्टियोग और नादानुसंधान ( सुरत - शब्दयोग ) के द्वारा अपने ही शरीर के अन्दर खोजो । ईश्वर की भक्ति करने के लिए कोई खास वेश - भूषा धारण करने की आवश्यकता नहीं है । अपने घर - द्वार में रहो और अपने पसीने की कमाई से जीवन का निर्वाह करो । 1 । 

     सच्चाई और संतोष को अपनाये रहो ; अपनी आवश्यकताएँ कम रखो - जीवन में सुखी रहोगे । सहनशील और नम्र बनकर रहना सीखो , तो उन्नति - ही - उन्नति करते जाओगे । मेल में बड़ा बल है , इसलिए सत्य व्यवहार अपनाते हुए आपस में मेल से रहो । झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार - इन पंच पापों से बचकर रहो ; गुरु और ईश्वर के प्रति आस्था - विश्वास बनाये रखो ; नित नियमित रूप से सत्संग और ध्यानाभ्यास करते रहो - कभी - न - कभी जन्म - मरण के चक्र से अवश्य मुक्त हो जाओगे । 

अस्ताचल की ओट में : 

महर्षि मेँहीँ महापरिनिर्वाण

     इस संसाररूपी रंगमंच पर आकर प्रत्येक प्राणी अपनी - अपनी भूमिका अदा करके चल देता है । ईसा की बीसवीं शताब्दी के तीन - चौथाई से भी कुछ अधिक काल तक अपने ज्ञानालोक से समस्त जगत् को आलोकित करते हुए अध्यात्म - गगन का यह महान् सूर्य भी ८ जून , सन् १ ९ ८६ ई ० , रविवार को अपने जीवन के १०१ वर्ष पूरे करके हमारी आँखों से ओझल गया ; परन्तु सन्तमत के प्रचार - प्रसार के लिए पूज्यपाद स्वामी श्रीसंतसेवीजी महाराज और पूज्यपाद श्रीशाही स्वामीजी महाराज जैसे दो तेजस्वी शिष्य अपने पीछे छोड गये । हमें उनका आश्वासन भी याद है कि मैं एकदम मोक्ष नहीं चाहता , तुमलोगों के उद्धार के लिए फिर आऊँगा । इति.


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LS09 महर्षि मेँहीँ जीवन और उपदेश 4 || संतमत की साधना-पद्धति और गुरुदेव का महापरिनिर्वाण LS09 महर्षि मेँहीँ जीवन और उपदेश 4 || संतमत की साधना-पद्धति और गुरुदेव का महापरिनिर्वाण Reviewed by सत्संग ध्यान on 9/28/2022 Rating: 5

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