महर्षि मेँहीँ : जीवन और उपदेश / जीवन 3
प्रभु प्रेमियों ! पिछले पोस्ट में हमलोग ने सदगुरु महर्षि मँहीँ के सच्चे गुरु की प्राप्ति, स्वावलम्बी जीवन, गम्भीर साधना और आत्म - साक्षात्कार, संतमत का संघबद्ध प्रचार - प्रसार, प्रचार - मार्ग की बाधाबाधाओं के बारे में जाना है. इस पोस्ट में महर्षि मेंहीं आश्रम , कुप्पाघाट , भागलपुर का संक्षिप्त परिचय, गुरुदेव का साहित्य - परिचय और संत - परम्परा में प्रतिष्ठा के बारे में जानेगें.
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महर्षि मेंहीं आश्रम , कुप्पाघाट , भागलपुर :
सन् १९६० ई ० में स्थापित महर्षि मेंही आश्रम , कुप्पाघाट , भागलपुर ऊँची - नीची जमीन पर अवस्थित होकर एवं पावन महर्षि निवास , भव्य सत्संग - प्रशाल , बृहत् सत्संग - मंदिर , विशाल समाधि - मंदिर , सुंदर गोशाला , महर्षि मेंहीं- साहित्यागार , बाबा देवी साहब पुस्तकालय , शान्ति सन्देश - प्रेस कार्यालय , अतिथिशाला , विभिन्न सत्संगी साधकों के द्वारा निर्मित साधना कुटीरों , प्राचीन गुफा एवं हरे - भरे पेड़ - पौधों से नित्य शोभायमान होता हुआ प्रतिपल सात्त्विक आभा बिखेर रहा है ।
यहाँ प्रतिदिन प्रातः , अपराह्न और सायंकाल तीन बार एक - एक घंटे के लिए सत्संग होता है , जिसमें स्तुति - प्रार्थना , सद्ग्रंथ - पाठ , भजन - कीर्तन और आरती के पद्यों का गायन होता है । प्रत्येक रविवार को अपराह्नकाल में साप्ताहिक सत्संग हुआ करता है , जिसमें स्तुति- विनती , सद्ग्रंथ - पाठ तथा भजन - कीर्तन के अलावा साधु - महात्माओं और विद्वानों के प्रवचन भी हुआ करते हैं । दूर - दूर से लोग आकर इसमें सम्मिलित होते हैं ।
आश्रमवासी सामान्यतया ब्राह्म मुहूर्त्त में , दिन में स्नान करने के बाद तुरंत और सायंकाल - तीन बार एक - एक घंटे के लिए ध्यानाभ्यास करते हैं । वैशाख शुक्ल पक्ष चतुर्दशी ( सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज का जन्म - दिवस ) , ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा ( महर्षि मँहीँ - परिनिर्वाण दिवस ) , आषाढ़ पूर्णिमा ( गुरु - पूर्णिमा ) और २० दिसम्बर ( महर्षि संतसेवी परमहंसजी महाराज का जन्म दिवस ) को आश्रम में सत्संग का विशेष रूप से आयोजन होता है ।
साहित्य - परिचय :
सन् १९६० ई ० में स्थापित महर्षि मेंहीँ आश्रम , कुप्पाघाट , भागलपुर से प्रकाशित होनेवाली ' शान्ति - सन्देश ' हिन्दी मासिक पत्रिका लगभग ४७ वर्षों से महर्षि एवं अन्य ऋषि - मुनियों , साधु - संतों , महात्माओं और विद्वानों के लोक - परलोक - हितकारी वचनों को जन - जन तक पहुँचाने के कार्य में संलग्न है । अखिल भारतीय संतमत सत्संग - प्रकाशन समिति के द्वारा महर्षि की जिन १४ रचनाओं का नियमित रूप से प्रकाशन किया जा रहा है , उनके नाम इस प्रकार हैं -१ . सत्संग - योग , चारो भाग , २. वेद-दर्शन-योग , ३. विनय - पत्रिका - सार सटीक , ४. रामचरितमानस - सार सटीक , ५ . श्रीगीता - योग - प्रकाश , ६. महर्षि मँहीँ - पदावली , ७. संतवाणी सटीक , ८ . भावार्थ - सहित घटरामायण - पदावली , ९ . सत्संग - सुधा , प्रथम भाग , १० . सत्संग - सुधा , द्वितीय भाग , ११. महर्षि मँहीं - वचनामृत , प्रथम खंड , १२ . मोक्ष - दर्शन , १३. ज्ञान - योग - युक्त ईश्वर भक्ति , १४. ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति ।
इन चौदहो रचनाओं में इनके द्वारा संपादित और लिखित ' सत्संग - योग , चारो भाग ' का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है । जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता में समस्त उपनिषदों का निचोड़ आ गया है , उसी प्रकार ' सत्संग - योग , चारो भाग ' में ऋषियों , संतों , भगवन्त - महात्माओं और विद्वानों के वचनों का संकलन करके , सचमुच ही अध्यात्म - ज्ञान का सार समाविष्ट कर में दिया गया है । इस अद्भुत ग्रन्थ के अन्तिम भाग में साधना सूत्ररूप पद्धतियों के साथ लिखे गये महर्षि के जिन उच्चतम दार्शनिक विचारों का संकलन हुआ है , उन्हें पढ़े और समझे बिना यदि कहा जाए कि कोई भी व्यक्ति वास्तविक वेदान्त - ज्ञान से अनभिज्ञ ही रह जाएगा , तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं होगी । महर्षि ने स्वयं एक दिन कहा था कि ' सत्संग - योग ' में जो उपदेश है , वही मेरा उपदेश है ।
इनकी पदावली ( महर्षि मेँहीँ पदावली ) के पद्य अपनी मिठासपूर्ण गेयता के लिए जन - जन में प्रसिद्ध हैं , जिनमें इन्होंने अपनी साधनात्मक अनुभूतियों को बड़ी ही सरलता और कुशलता से अभिव्यंजित किया है ।
' रामचरितमानस - सार सटीक ' में इन्होंने गद्य में मानस की संक्षिप्त कथावस्तु प्रस्तुत करने के साथ - साथ उद्धृत ज्ञान , योग , भक्ति और नीतिपरक छन्दों की टीकाएँ करते हुए उनके जिन गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन किया है , वे अन्यत्र खोजने पर भी नहीं मिलते । इस ग्रंथ में ' मानस ' के ही आधार पर बड़ी मजबूती के साथ अनेक स्थलों पर यह सिद्ध कर दिया गया है कि श्रीराम दूसरे कोई नहीं , क्षीरशायी भगवान् विष्णु के ही अवतार थे ।
' श्रीगीतायोग - प्रकाश ' में इन्होंने गीता के विचारों और योग - पद्धतियों का सन्तों के मतों एवं साधनाओं से मेल दिखाते हुए उनसे संबंधित उन भ्रान्तियों का निराकरण कर दिया है , जो बड़े - बड़े मनीषियों के भी मस्तिष्क में घर किये हुए थीं । गीता के सही तात्पर्य को सरलतापूर्वक समझने की इच्छा रखनेवाले प्रत्येक अध्यात्मप्रेमी के लिए यह पुस्तक पठनीय है ।
' वेद - दर्शन - योग ' में इन्होंने वेदमत और सन्तमत का साम्य दिखाकर वर्षों से मानी जा रही वेदमत और सन्तमत के बीच की खाई को पाट दिया है ।
' सन्तवाणी सटीक ' में सन्तवाणियों के गंभीर अर्थ की इनकी जो सूक्ष्म और सही पकड़ देखने में आती है , वह किसी मननशील विद्वान् के द्वारा नहीं , बल्कि महर्षि ही जैसे किन्हीं आत्मानुभव प्राप्त महापुरुष के द्वारा संभव है ।
' विनय - पत्रिका - सार सटीक ' में गो ० तुलसीदासजी की ' विनय - पत्रिका ' के कुछ उन पद्यों को लेकर उनकी सांगोपांग टीकाएँ लिखी गयी हैं , जिनसे गोस्वामीजी के निर्गुण - उपासक भी होने का तथा सर्वोच्च पद तक उनकी भी पहुँच होने का ठीक - ठीक पता लग जाता है ।
' ज्ञान - योग - युक्त ईश्वर भक्ति ' में ईश्वर के साक्षात्कार के लिए ज्ञान , योग और भक्ति इन तीनों की साथ - साथ अनिवार्य आवश्यकता बतलायी गयी है ।
' मोक्ष - दर्शन ' दूसरा कुछ नहीं , ' सत्संग - योग ' का ही अंतिम अर्थात् चतुर्थ भाग है , जो अलग करके इस नाम से प्रकाशित किया गया है ।
' भावार्थ सहित घटरामायण - पदावली ' में हाथरस - निवासी संत तुलसी साहब की मानी जानेवाली पुस्तक ' घटरामायण ' के कुछ उन पद्यों का संचयन करके उनके शब्दार्थ और भावार्थ लिख दिये गये हैं , जो सचमुच तुलसी साहब - जैसे संत के माने जा सकते हैं ।
' सत्संग - सुधा ' के दोनों भागों में और ' महर्षि मेंहीं वचनामृत , प्रथम खंड ' में विभिन्न अवसरों और स्थानों पर महर्षि के दिये गये प्रवचनों का अनूठा संकलन है ।
' ईश्वर का स्वरूप और उसकी प्राप्ति ' में जैसा कि नाम से भी विदित होता है , युक्तिपूर्वक ईश्वर के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए उसकी प्राप्ति की विधियों का भी स्पष्टतः उल्लेख किया गया है । इसमें दैनिक सत्संग में की जानेवाली स्तुति प्रार्थना और आरती के पद्य भी अंत में दे दिये गये हैं ।
उत्तरी भारत की संत - परम्परा में प्रतिष्ठित :
संत - साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान् आचार्य परशुराम चतुर्वेदीजी ने इन्हें ' उत्तरी भारत की संत - परंपरा ' में सुप्रतिष्ठित करते हुए इनकी रचनाओं की विशिष्टता को ' हिन्दी के संत - साहित्य में अन्यत्र कदाचित् विरल ' बताया है ; देखें- “ जहाँ तक प्राचीन ग्रंथों पर की गयी टीकाओं अथवा उनपर लिखे गये विस्तृत भाष्यों का प्रश्न है , इनके उदाहरण हिन्दी संत साहित्य में अन्यत्र कदाचित् विरल ही होंगे । इन्हें देखकर हमें इनकी समानता के लिए मराठी के संत ज्ञानेश्वर तथा एकनाथ की रचनाओं की ओर दृष्टि डालनी पड़ सकती है । ” ( पृ ० ८१४ )..... क्रमशः
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प्रभु प्रेमियों ! लालदास साहित्य सीरीज में आपने 'महर्षि मँहीँ जीवन और उपदेश' नामक पुस्तक से सद्गुरु महर्षि मेंहीं के बारे में जानकारी प्राप्त की. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। ऐसा विश्वास है .जय गुरु महाराज.
LS09 महर्षि मेँहीँ जीवन और उपदेश
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