LS09 महर्षि मेँहीँ जीवन और उपदेश 2 || सच्चे गुरु की प्राप्ति, स्वावलम्बी जीवन, साधना और प्रचार-प्रसार
महर्षि मेँहीँ : जीवन और उपदेश / जीवन 2
प्रभु प्रेमियों ! पिछले पोस्ट में हमलोग सदगुरु महर्षि मँहीँ के: माता - पिता , जन्म और बाल्यावस्था, शिक्षा और आध्यात्मिक प्रवृत्ति, प्रबल वैराग्य और इनके सच्चे गुरु के बारे में जाना है. इस पोस्ट में सच्चे गुरु की प्राप्ति, स्वावलम्बी जीवन, गम्भीर साधना और आत्म - साक्षात्कार, संतमत का संघबद्ध प्रचार - प्रसार, प्रचार - मार्ग की बाधाबाधाएँओं के बारे में जानेगें.
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सच्चे गुरु की प्राप्ति :
अन्त में , इन्हें जब जोतरामराय - निवासी बाबू श्रीधीरज लालजी गुप्त के द्वारा मुरादाबाद - निवासी परम संत बाबा देवी साहब और उनकी सन्तमत गुरु और सच्ची साधना के विषय में पता लगा , तब इनके हृदय में सच्चे साधना - पद्धति के मिल जाने की आशा बँध गयी । जब बड़ी आतुरतावश इन्होंने १९०९ ई ० में बाबा देवी साहब द्वारा निर्दिष्ट दृष्टियोग की विधि भागलपुर नगर के मायागंज - निवासी बाबू श्रीराजेन्द्रनाथ सिंहजी से की , तब इन्हें बड़ा सहारा मिला । उसी वर्ष विजया दशमी के शुभ अवसर पर श्रीराजेन्द्रनाथ सिंहजी ने भागलपुर में ही बाबा देवी साहब से इनकी भेंट कराकर उनके हाथ में इनका हाथ थमा दिया । बाबा देवी साहब - जैसे महान् सन्त को पाकर ये निहाल - से हो गये । उनके दर्शन - प्रवचन से इन्हें बड़ी शान्ति और तृप्ति का अनुभव हुआ ।
स्वावलम्बी जीवन की ओर :
प्राप्त कमाने की झंझट से मुक्त रहकर एकमात्र मधुकरी वृत्ति के द्वारा जीवन निर्वाह करते हुए ईश्वर की भक्ति करने की इच्छा रखनेवाले इन युवा संन्यासी को बाबा देवी साहब ने कड़ी डाँट लगाते हुए स्वावलम्बी होकर जीवन बिताने का कठोर आदेश दिया और कहा कि स्थायी जीविका के लिए कोई काम करो ; यदि तुम सौ वर्ष तक जी गये , तो क्या खाओगे ! एक सच्चा शिष्य गुरु आज्ञा की अवज्ञा करने का दुस्साहस कैसे कर सकता है ! विवश होकर इन्हें जीविका के लिए भंगहा ( पूर्णियाँ जिला ) में अध्यापन कार्य और सिकलीगढ़ धरहरा में कृषि कार्य अपनाना पड़ा ।
गम्भीर साधना और आत्म - साक्षात्कार :
सन् १ ९ १२ ई ० में बाबा देवी साहब ने स्वेच्छा से इन्हें शब्दयोग की विधि बतलाते हुए कहा कि अभी तुम दस वर्ष तक केवल दृष्टियोग का ही अभ्यास करते रहो । दृष्टियोग में पूर्ण हो जाने पर ही शब्दयोग का अभ्यास करना । शब्दयोग की विधि अभी मैंने तुम्हें इसलिए बता दीकि यह तुम्हारी जानकारी में रहे ।
बीच - बीच में इन्हें बाबा देवी साहब की सेवा और उनके साथ भारत के विभिन्न स्थानों में भ्रमण करने का भी अवसर मिलता रहा ।
सन् १९१८ ई ० में सिकलीगढ़ - धरहरा में इन्होंने जमीन के नीचे एक ध्यान कृप बनाया और उसमें लगातार तीन महीने तक अकेले रहकर तपस्यापूर्ण साधना की , जिसमें इनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था । सन् १९१९ ई ० की १९ जनवरी को बाबा देवी साहब के परिनिवृत्त हो जाने के बाद इनके मन में इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर लेने की बारंबार प्रबल कामना उठती रही । सन् १ ९३३-३४ ई ० में इन्होंने पूर्ण तत्परता के साथ १८ महीने तक भागलपुर नगर के मायागंज महल्ले के पास गंगा तट पर अवस्थित कुप्पाघाट की गुफा में शब्दयोग की गंभीर साधना की , फलस्वरूप ये आत्मसाक्षात्कार करने में सफल हो गये ।
संतमत का संघबद्ध प्रचार - प्रसार :
अब इनका ध्यान सन्तमत - सत्संग के प्रचार - प्रसार की ओर विशेष रूप से गया । इन्होंने सत्संग की एक विशेष नियमावली तैयार की । फिर क्या था ! जिला स्तर पर दो दिनों के लिए और अखिल भारतीय स्तर पर तीन दिनों के लिए जगह - जगह वार्षिक सत्संग- अधिवेशन होने लगे । इनके अतिरिक्त प्रखंड स्तर पर एक दिन के लिए मासिक सत्संग होने लगा ; कहीं - कहीं और कभी - कभी सत्संग के साथ - साथ सामूहिक मास - ध्यान - साधना भी होने लगी । व्यक्तिगत रूप से सत्संगी लोग प्रतिदिन कम से कम तीन बार ( प्रातःकाल , दिन के दोपहर ध्यानाश और सायंकाल) कम - से - कम दो बार ( प्रात:काल , सायंकाल ) सत्संग करने लगे ।
पुस्तकों को प्रचार का सबसे बड़ा माध्यम समझकर इन्होंने पुस्तक लेखन की ओर भी ध्यान दिया । ये अपनी साहित्यिक रचना और प्रवचन के द्वारा यह सिद्ध करके दिखाने लगे कि सभी संतों के विचारों में पारस्परिक मूलभूत एकता है और संतमत वेद - उपनिषद् , गीता आदि ग्रंथों के विचारों से मेल खाता है । इन्होंने संतमत के सत्स्वरूप को उजागर किया ।
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सादे कपड़े में गुरुदेव की जीवनी लेखक |
अध्यात्म में रुचि रखनेवाली यूकिको फ्यूजिता नाम की एक जापानी महिला को उसके स्वप्न में दर्शन देकर महर्षि ने उसकी आध्यात्मिक भावना को और अधिक जाग्रत् कर दिया । स्वप्न भंग होने के बाद भी कई दिनों तक वह अपूर्व आनंद में डूबी रही । सामान्य दशा में आने पर वह स्वप्न - दर्शित महात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए व्याकुल हो उठी । ऐसे साधु - महात्मा भारत में ही मिल सकते हैं - ऐसा सोचकर वह भारत आयी और स्वप्न में देखे गये रूप के आधार पर अंततः उसने महर्षि की पहचान कर ही ली । महर्षि ने दीक्षित करके उसे कृतार्थ किया । दीक्षा लेने के बाद वह ध्यानाभ्यास में बैठी , तो घंटों बैठी रही और ध्यान से उठी , तो अपनी साधनानुभूति की बातें कागज पर पेंसिल से चित्र बना - बनाकर महर्षि को बताने लगी । उसने यह भी कहा कि संतमत की साधना बहुत कठिन है और बहुत सरल भी । अभी वह जापान में संतमत और उसकी साधना पद्धति का जोर - शोर से प्रचार कर रही है ।
ढाई - तीन सौ से अधिक सत्संग - आश्रम देश - विदेशों में स्थापित हो चुके हैं , जिनकी देख - रेख प्राय : भारत सरकार से निबंधित संस्था अखिल भारतीय सन्तमत - सत्संग - महासभा किया करती है ।
प्रचार - मार्ग की बाधाएँ :
जैसा कि अनेक धर्म - प्रचारकों के जीवन में घटित हुआ है , इन्हें भी सत्संग - प्रचार के दरम्यान अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा । इनपर मनगढ़न्त दोषों के कीचड़ उछाले गये ; अनेक प्रकार की अफवाहों की आँधियाँ बहायी गयीं ; मीरा की तरह छल से विष दिया गया ; रात में फूस की कुटिया में आग फूँककर जिन्दा जलाने की कोशिश की गयी ; तलवार से सिर उड़ा देने के लिए क्रूर हाथ उठा और तंग करने के लिए आश्रम में डाका डाला गया ; परन्तु ये धरती की क्षमाशीलता , आकाश की अनंत हृदयता , सागर की गंभीरता और हिमालय की अटलता लिये हुए कभी भी प्रचार - मार्ग से विचलित नहीं हुए ; दिनोंदिन इनका व्यक्तित्व आग में तपाये जा रहे सोने की भाँति निखरता ही गया ; दिनोंदिन इनके पवित्र यश की धवल चाँदनी फैलती ही गयी ।
अंततः जड़ी सँघाये गये विषधर की भाँति कट्टर विरोधियों ने भी इनके आगे मस्तक टेक दिये और उलटी दिशा में भी इनकी सच्चरित्रता की सुगंध फैली अर्थात् दुष्टों ने भी अपनी दुष्टता का त्याग करके इनकी विमल गुणगाथा का गान किया । आचार्य परशुराम चतुर्वेदीजी ने ठीक ही लिखा है- " इन्हें अपने कार्य में इतना उत्साह था कि इन्होंने अपने सद्गुरु का देहावसान हो जाने तथा योग्य गुरु - भाइयों के न रहने पर भी इसमें ढीलापन नहीं आने दिया । " ( देखें , ' उत्तरी भारत की संत - परम्परा ' , पृ ० ८१७ , तृतीय संस्करण ). .. क्रमशः
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प्रभु प्रेमियों ! लालदास साहित्य सीरीज में आपने 'महर्षि मँहीँ जीवन और उपदेश' नामक पुस्तक से सद्गुरु महर्षि मेंहीं के बारे में जानकारी प्राप्त की. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। ऐसा विश्वास है .जय गुरु महाराज.
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महर्षि मेँहीँ जीवन और उपदेश |
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