महर्षि मेँहीँ : जीवन और उपदेश / जीवन 1
प्रभु प्रेमियों ! लालदास साहित्य सीरीज के नौवीं पुस्तक "महर्षि मँहीँ : जीवन और उपदेश " के इस भाग में हमलोग सदगुरु महर्षि मेँहीँ के माता - पिता , जन्म और बाल्यावस्था, शिक्षा और आध्यात्मिक प्रवृत्ति, प्रबल वैराग्य और इनके सच्चे गुरु के बारे में जानेंगे.
संत - परम्परा की अद्भुत कड़ी :
भारत की संस्कृति ऋषियों और संतों की संस्कृति रही है । यहाँ समय - समय पर व्यास - वाल्मीकि , शुकदेव - नारद , याज्ञवल्क्य जनक , वशिष्ठ - दधीचि , बुद्ध - महावीर , शंकर - रामानन्द , नानक - कबीर , सूर - तुलसी , विवेकानंद - रामतीर्थ आदि जैसे ऋषि , संत और मनीषी अवतरित होते ही रहे हैं । इन्हीं ऋषियों और संतों की दीर्घकालीन अविच्छिन्न परम्परा की एक अद्भुत कड़ी के रूप में परिगणित हैं हमारे गौरव पूज्यपाद सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज । भागलपुर नगर के मायागंज महल्ले के पास पावन गंगा - तट पर अवस्थित इनका भव्य विशाल आश्रम आज भी अध्यात्म - ज्ञान की स्वर्णिम ज्योति चतुर्दिक बिखेर रहा है । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत के ख्याति प्राप्त आश्रमों में अपना विशिष्ट स्थान रखनेवाला यह आश्रम दिनोंदिन देशी - विदेशी पर्यटकों के विशेष आकर्षण का केन्द्र बनता ही जा रहा है ।
माता - पिता , जन्म और बाल्यावस्था :
सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का अवतरण विक्रमी संवत् १९४२ के वैशाख शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि तदनुसार २८ अप्रैल , सन् १८८५ ई ० , मंगलवार को बिहार राज्यान्तर्गत सहरसा जिले ( अब मधेपुरा जिले ) के उदाकिशुनगंज थाने के खोखशी श्याम ( मझुआ ) नामक ग्राम में अपने नाना के यहाँ हुआ था । जन्म से ही इनके सिर पर सात जटाएँ थीं , जो प्रतिदिन कंघी से सुलझा दिये जाने पर भी दूसरे दिन प्रातःकाल पुनः अपने - आप सात - की - सात जटाओं में उलझ जाती थीं । लोगों ने समझा कि अवश्य ही किन्हीं योगी - महात्मा का जन्म हुआ है । ज्योतिषी ने इनका जन्मराशि का नाम ' रामानुग्रह लाल दास ' रखा । पीछे इनके पिता के चाचा श्रीभारतलाल दासजी ने इनका नाम बदलकर ' मेहीं लाल ' रख दिया । बाद में इनके अन्तिम सद्गुरुदेवजी महाराज ने भी इनके इस नाम की उपयुक्तता एवं सार्थकता का सहर्ष समर्थन किया । महर्षि का पितृगृह पूर्णियाँ जिलान्तर्गत बनमनखी थाने के सिकलीगढ़ धरहरा नामक ग्राम में है । मैथिल कर्ण कायस्थ - कुलोत्पन्न इनके पिता श्री बबुजनलाल दासजी यद्यपि आर्थिक दृष्टि से बड़े सम्पन्न थे , तथापि शौक से वर्षों तक बनैली राज्य के कर्मचारी रहे । जब महर्षि केवल ४ वर्ष के थे , तभी इनकी सौभाग्यशालिनी माता जनकवतीजी का देहान्त हो गया । बालक महर्षि को इनके पिता और इनकी बड़ी बहन झूलन देवीजी ने इतने स्नेह और सुख - सुविधापूर्ण वातावरण में पालित - पोषित किया कि इन्हें अपनी माता का अभाव कभी खटक नहीं पाया ।
शिक्षा और आध्यात्मिक प्रवृत्ति :
५ वर्ष की अवस्था में मुण्डन - संस्कार होने के बाद अपने गाँव की ही पाठशाला में इनकी प्रारंभिक शिक्षा आरंभ हुई , जिसमें इन्होंने कैथी लिपि के साथ - साथ देवनागरी लिपि भी सीखी । प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करके इन्होंने ग्यारह वर्ष की अवस्था में पूर्णियाँ जिला स्कूल में पुराने अष्टम वर्ग में अपना नाम लिखवाया । यहाँ ये उर्दू , फारसी और अँगरेजी में कक्षा की पाठ्य पुस्तकें पढ़ने के साथ - साथ पूर्व आध्यात्मिक संस्कार से प्रेरित होकर रामचरितमानस , महाभारत , सुखसागर आदि धर्मग्रंथों का भी अवलोकन करते और शिव को इष्ट मानकर उनके प्रति जल चढ़ाया करते । इसी अवधि सन् १ ९ ०२ ई ० में इन्होंने जोतरामराय ( जिला पूर्णियाँ ) के एक दरियापंथी साधु स्वामी श्रीरामानन्दजी से मानस जप , मानस ध्यान तथा खुले नेत्रों से किये जानेवाले त्राटक की दीक्षा ले ली और नियमित रूप से अभ्यास भी करने लगे । योग - साधना की ओर बढ़ती हुई अभिरुचि के कारण अब ये पाठ्य पुस्तकों की ओर से उदासीन होने लगे और मन - ही - मन साधु - संतों की संगति चाहने लगे ।
प्रबल वैराग्य :
सन् १ ९ ०४ ई ० की ३ जुलाई से आरंभ हो रही एन्ट्रेन्स ( प्रवेशिका ) के फर्स्ट क्लास * ( आधुनिक मैट्रिक ) की परीक्षा में ये सम्मिलित हुए । दूसरे दिन की परीक्षा के अँगरेजी प्रश्नपत्र के पहले प्रश्न में ' Builders ' ( बिल्डर्स ) नामक कविता की जिन प्रारंभिक चार पंक्तियों को उद्धृत करके उनकी व्याख्या अँगरेजी में लिखने का निर्देश किया गया था , वे इस प्रकार थीं
Time is with material's field .
Our todays and yesterdays ,
Are the blocks with which we build .
इन चार पंक्तियों को उद्धृत करके इनकी व्याख्या ** लिखते - लिखते इनमें वैराग्य की भावना इतनी प्रबल हो गयी कि इन्होंने ' मानस ' की यह अर्द्धाली " देह धरे कर यहि फल भाई । भजिय राम सब काम बिहाई ॥ ” लिखकर परीक्षा भवन का परित्याग कर दिया और यहीं इनकी स्कूली शिक्षा का सदा के लिए अन्त हो गया । इनके वैराग्य का उद्दीपक था अँगरेजी का यह वाक्य- ' All men must die ' , जिसे इन्होंने बचपन में प्रारंभिक पाठ्य पुस्तक में पढ़ा था और जो इनके मस्तिष्क में बिजली की भाँति कौंधता रहता था ।
सच्चे गुरु की खोज :
ध्यानस्थ सदगुरुदेव |
इन्होंने धर्मग्रंथों में पढ़ा था कि मानव जीवन में ही ईश्वर की भक्ति करके बारंबार जनमने - मरने के दुःखों से छूटा जा सकता है । इसलिए इन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ईश्वर की भक्ति में अपना समस्त जीवन बिता देने का संकल्प किया । ये अपने आरम्भ के गुरु स्वामी श्रीरामानन्दजी की कुटिया पर आ गये और उनकी निष्ठापूर्वक सेवा करते हुए कुछ दिनों तक उनके पास रहे ; परन्तु वे इनकी जिज्ञासा की पूर्ण तृप्ति न कर सके । इसलिए किन्हीं सच्चे और पूर्ण गुरु की खोज के लिए ये निकल पड़े । भारत के अनेक प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों की इन् होंने यात्राएँ कीं ; परन्तु कहीं भी इनके चित्त को समाधान नहीं मिला । क्रमशः
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* " पूर्णिया जिला स्कूल में दर्जे उलटे चलते थे । पहले आठ , फिर सात , छह , पाँच आदि । अतः एन्ट्रेंस में फर्स्ट क्लास की पढ़ाई होती थी । उस समय आठवाँ दर्जा आज का चतुर्थ वर्ग या नवीन तृतीय वर्ग समझा जा सकता है । " -डॉ ० सत्यदेव साह - रचित ' महर्षि मेंहीं चरित ' , पृ ० ६ ।
** व्याख्या का संक्षिप्त रूप हिन्दी में इस प्रकार है- " हमलोगों का जीवन - मन्दिर अपने प्रतिदिन के सुकर्म और कुकर्म - रूपी ईंटों से बनता व बिगड़ता है । जो जैसा कर्म करता है , उसका जीवन वैसा ही बन जाता है । इसलिए हमलोगों को भगवद्भजनरूपी सर्वश्रेष्ठ ईंटों से अपने जीवन - मंदिर का निर्माण करते जाना चाहिए । समय की सदुपयोगिता सत्कर्म में है और ईश्वर भक्ति से श्रेष्ठतर दूसरा कोई भी सत्कर्म नहीं है । "
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प्रभु प्रेमियों ! लालदास साहित्य सीरीज में आपने 'महर्षि मँहीँ जीवन और उपदेश' नामक पुस्तक के बारे में जानकारी प्राप्त की. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। ऐसा विश्वास है .जय गुरु महाराज.
LS09 महर्षि मेँहीँ जीवन और उपदेश
महर्षि मेँहीँ जीवन और उपदेश |
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