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LS14 छंद-योजना 04 || महर्षि मँहीँ-पदावली के भजनों में रस, अलंकार और छंद का प्रयोग भेद सहित

 महर्षि मँहीँ-पदावली' की छंद-योजना / 04

     प्रभु प्रेमियों ! 'महर्षि मँहीँ पदावली की छंद योजना' पुस्तक के इस भाग में हम लोग जानेंगे कि पदावली में किन-किन विषयों के आधार पर पद्यों का वर्गीकरण किया गया है,  महर्षि मँहीँ पदावली के पद्य किन-किन छंदों में हैं? रस किसे कहते हैं ? साहित्य रस से आप क्या समझते हैं? रस कितने प्रकार के हैं? पदावली में किन-किन रसों का वर्णन हुआ है?  अलंकार किसे कहते हैं?  अलंकार के कितने भेद हैं ?  शब्दा अलंकार के उदाहरण ! पदावली में प्रयुक्त शब्दालंकार कौन-कौन से हैं? गुरु महाराज के साहित्य की भाषा कैसी है? गुरु महाराज कैसी भाषा बोलना पसंद करते थे अलंकार की याद सरल? पदावली में किन किन भाषाओं के शब्द प्रयुक्त हुए हैं आदि बातें.


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लेखक और गूरूवर

महर्षि मँहीँ-पदावली के भजनों में रस, अलंकार और छंद का प्रयोग भेद सहित


पिछले पोस्ट का शेषांश-

     पदावली के १३ वे , १५ वें और ११४ वें पद्य में दो बार और ९९वें पद्य में एक बार गुरुदेव ने इतने कलात्मक ढंग से 'सतगुरु महाराज की जय ' जैसा वाक्य लिख रखा है कि सामान्य रूप से इन पद्यों का अवलोकन करने पर यह वाक्य दृष्टिगत नहीं हो पाता ; इन पद्यों का मौखिक पाठ या गायन करने पर भी यह वाक्य उच्चरित नहीं हो पाता । इससे गुरुदेव की कलाप्रियता जाहिर होती है । इस ओर सबसे पहले मेरा ध्यान पूज्यपाद श्री शाही स्वामीजी महाराज ने आकर्षित किया था । १३ वें , १५ वें और ११४ वें पद्य की बाहर की ओर निकली हुई प्रत्येक पंक्ति का प्रथम अक्षर जोड़ देने पर ' सतगुरु महाराज की जय ' वाक्य बन जाता है । इन पद्यों की अंदर की ओर धँसी हुई प्रत्येक पंक्ति का भी प्रथम अक्षर जोड़ने पर वही वाक्य बन जाता है । ९९वें पद्य की केवल आरंभिक प्रत्येक पंक्ति के प्रथम अक्षर के मेल वाक्य बन जाता है ।

     उक्त पदावली की भाषा प्रायः सर्वत्र सरल - सुबोध है ; कुछ ही स्थलों पर कठिन और पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग के कारण दुर्बोध हो पायी है ।

सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज
सद्गुरु महर्षि मेंहीं

     गुरुदेव ने अपनी पदावली के पदों के ऊपर विभिन्न आधारों पर शीर्षक लगाये हैं ; जैसे-

( i ) विषय के आधार पर ; यथा - स्तुति , विनती , पुकार , संकीर्त्तन , पीव प्यारा , आत्मा , उपदेश , समदन , बारहमासा , चौमासा , आरती आदि । 

( ii ) छन्द के आधार पर ; यथा- दोहा , छंद ( हरिगीतिका ) , छप्पय , चौपाई , कुण्डलिया आदि । संतों ने चान्द्रायण छंद में आबद्ध पद्य के ही ऊपर ' मंगल ' शीर्षक दिया है । 

( iii ) राग या रागिनी के आधार पर , जैसे - भैरवी । 

( iv ) ताल के आधार पर जैसे - कहरा । 

( v ) किसी ऋतु , महीने या पर्व आदि के अवसर पर गाये जानेयोग्य होने के आधार पर ; जैसे- बरसाती , कजली , चैती , होली , मंगल , बारहमासा , चौमासा आदि । 

( vi ) पद्य के अन्य नाम के आधार पर , जैसे- शब्द । साधु - महात्माओं में संतों के पद्यों को ' शब्द ' भी कहने का रिवाज है । 

( vii ) पद्य की अन्य विशेषता के आधार पर ; जैसे - अरिल । यद्यपि ' अरिल्ल ' एक छंद का भी नाम है ; परंतु संतों ने उस पद्य को अरिल या अरियल कहा है , जिसके अंतिम चरण में कवि के नाम के पूर्व ' अरे हाँ रे ' या ' अरे हाँ ' जैसी शब्दावली जुड़ी रहती है ; यथा - ' अरे हाँ रे कहता दास गरीब , रूप नहिं रेख है । ' ' अरे हाँ रे पलटू ज्ञान ध्यान के पार , ठिकाना मिलेगा । ' ' अरे हाँ रे तुलसी निःअक्षर है न्यार , संत ने सैन बुझाया । ' ' अरे हाँ रे में हीँ , महा नगाड़ा बजै , घनहु गरजत रहै । ' यह अरिल या अरियल प्रायः चान्द्रायण या रोला छंद में आबद्ध हुआ है । 

     पदावली के पदों को संपादक प्रो ० श्री विश्वानन्दजी ने ७ वर्गों में विभाजित कर रखा है । वे वर्ग हैं- १. प्रातः , अपराह्न एवं सायंकालीन स्तुति - विनती , २. सद्गुरु - स्तुति , ३ . ईश्वर - स्वरूप - निरूपण , ४. ध्यानयोग , ५. संकीर्त्तन , ६. चेतावनी - उपदेश और ७ . आरती ।

पदावली' की छंद-योजना के लेखक पूज्य बाबा श्री लालदास जी महाराज
ले.बाबा लालदास

     पदावली में मात्रिक और वर्णिक - दोनों छंद प्रयुक्त हुए हैं ; परंतु मात्रिक छंदों की अपेक्षा वर्णिक छंदों की संख्या बहुत कम है । पदावली के प्रमुख मात्रिक छंदों के नाम इस प्रकार हैं - चौपाई , कामिनीमोहन छंद , चान्द्रायण छंद , उल्लास छंद , उल्लाला छंद , उपमान छंद , हीर छंद , रूपमाला , दिक्पाल , रोला , मुक्तामणि , गीतिका , गीता , हरिगीतिका , विष्णुपद , सरसी , सारछंद , विधाता छंद , मरहठा छंद , मरहठा माधवी , ताटंक , ककुभ , लावनी , मात्रिक सवैया , हरिप्रिया , दोहा , कुण्डलिया और छप्पय । 

     पदावली में जो वर्णिक छंद प्रयुक्त हुए हैं , उनमें से कुछ के नाम ये हैं - मनहरण छंद , अमिताक्षर छंद , जलहरण छंद , भुजंगप्रयात छंद और दुर्मिल सवैया । 

     कोई वाक्य पढ़े जाने पर हमारे हृदय में भाव जगाकर जिस आनंद की सृष्टि करता है , वह साहित्य शास्त्र की भाषा में ' रस ' कहलाता है । कोई वाक्य पढ़ने पर जगनेवाले भाव को भी कभी - कभी हम ' रस ' कहा करते हैं । रस नौ प्रकार के बताये जाते हैं- शृंगार , हास्य , करुण , रौद्र , वीर , भयानक , वीभत्स , अद्भुत और शान्त । कोई - कोई दसवाँ भक्तिरस भी मानते हैं । इन सभी रसों की एक साथ अभिव्यक्ति किसी प्रबंध काव्य में ही देखने को मिल सकती है । पदावली के फुटकर पदों में हास्य रस को छोड़कर अन्य सभी रसों की झाँकियाँ मिलती हैं ।

     'अलंकार ' का अर्थ है- आभूषण , गहना । जिस प्रकार सोने - चाँदी आदि के आभूषण अंगों की शोभा बढ़ाते हैं , उसी प्रकार भाषा के अलंकार भाषा की शोभा बढ़ाते हैं । भाषा या काव्य के मुख्यतः दो ही अलंकार हैं - शब्दालंकार और अर्थालंकार । शब्दालंकार भाषा के वर्ण , शब्द और वाक्य पर आश्रित होते हैं । निम्नलिखित अर्धाली में शब्दालंकार का उदाहरण देखिए 

मुदित हीपति मंदिर आए । सेवक चिव सुमंत्र बुलाए । 

यहाँ म और स की आवृत्ति होने से पंक्तियाँ कर्णप्रिय हो गई हैं ।

     अर्थालंकार भाषा को सौंदर्य प्रदान करने के साथ - साथ उसके भाव ( अर्थ ) को पूर्णतः अभिव्यक्त करने में भी सहायक बनते हैं । इस तरह अर्थालंकार भाषा के अर्थ पर निर्भर करते हैं । ' उसका मुख चंद्रमा के समान सुंदर है । ' इस वाक्य में अर्थालंकार है । 

    पदावली में शब्दालंकारों में अनुप्रास , छेकानुप्रास , वृत्यनुप्रास , अन्त्यानुप्रास , यमक , श्लेष , पुनरुक्ति प्रकाश आदि का और अर्थालंकारों में उदाहरण , रूपक , उपमा , दृष्टांत , प्रतीप , उल्लेख आदि का प्रयोग देखने को मिलता है । 

     संत लोग मान - बड़ाई से दूर भागते हैं । उन्हें विद्वत्ता आदि कोई बड़प्पन प्रदर्शित करना नहीं सुहाता । हमारे संत सद्गुरु महर्षि में ही परमहंसजी महाराज की मौखिक और लिखित भाषा बिल्कुल सरल थी । उनका कथन था कि हमेशा सरल और स्पष्ट भाषा बोली और लिखी जानी चाहिए , जिससे सामान्य लोग भी उसे समझकर लाभ उठा सकें । वे अपने प्रवचनकर्त्ता शिष्यों को भी कठिन भाषा बोलने की मनाही किया करते थे । उनकी गद्यात्मक और पद्यात्मक - दोनों भाषाओं में बड़ी सरलता पायी जाती है । वे कभी जान - बूझकर अलंकृत भाषा का प्रयोग नहीं किया करते थे । उनके पदों में कहीं - कहीं जो अलंकार आ गये हैं , वे जान - बूझकर नहीं लाये गये हैं ; पद्य - रचना के समय अपने - आप आ गये हैं

     पदावली में परिमार्जित खड़ी बोली हिन्दी , बँगला , मैथिली और अंगिका के साथ - साथ सधुक्कड़ी भाषा का भी प्रयोग हुआ है । गुरुदेव खड़ी बोली हिन्दी (भारती), बँगला , मैथिली और अंगिका के सहित फारसी तथा अँगरेजी के भी जानकार थे । इनके पदों में संस्कृत , अरबी - फारसी , तुर्की , अँगरेजी , भोजपुरी और व्रजभाषा के भी शब्द आए हैं ।∆


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