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LS14 छंद-योजना 02 || छंदबद्ध कविता लिखने के आसान तरीका || छंद में मात्रा लगाने के नियम || पदावली' के छंद

'महर्षि मँहीँ-पदावली' की छंद-योजना / 02

     प्रभु प्रेमियों ! 'महर्षि मँहीँ पदावली की छंद योजना' पुस्तक के इस भाग में हम लोग जानेंगे कि गुरु महाराज की त्रुटि पकड़ने की सूक्ष्म दृष्टि, गुरु महाराज कहाँ तक पढ़े-लिखे थे?  सद्गुरु महर्षि मँहीँ छंद रचना कैसे करते थे? गो. तुलसीदास जी की छंद-योजना कैसी थी? हृदय में उमड़नेवाले भावों को क्यों लिखना चाहिए? सहज रूप से पद्य बनाने के लाभ?  गुरु महाराज के पद बनाने का प्रमाणिक समय कौन-कौन ई.सन् है? गुरुदेव रचित स्तुति-विनती का महत्व और आलोचना?  आदि बातें.


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छंद शास्त्र पर चर्चा करते गुरु महाराज ज़ी

हृदय में उमड़नेवाले भावों को क्यों लिखना चाहिए?

 

पिछले पोस्ट का शेषांश-

     किसी वर्ष आश्रम से प्रकाशित होनेवाली मासिक पत्रिका ' शान्ति - सन्देश ' का कोई अंक निकला इसके तत्कालीन संपादक इसकी कुछ प्रतियाँ लेकर गुरुदेव को देने गये । उनके पीछे - पीछे मैं भी गया । गुरुदेव को जब वे प्रतियाँ अर्पित की गई , तो उन्होंने संपादकजी से कहा कि पत्रिका के मुखपृष्ठ पर जो सामग्री छपी है , उसे पढ़िये । मुखपृष्ठ पर गुरुदेव का ही एक पद्य ' बिना गुरु की कृपा पाये , नहीं जीवन उधारा है ' छपा था । संपादकजी ने वह पूरा पद्य पढ़कर उन्हें सुनाया । उसमें कई बार ' गुरु ' शब्द आये हैं । उनमें से कुछ में मात्रा बढ़ाने के लिए ' रु ' की जगह ' रू ' मूलपाठ में दिये गये हैं । ' शान्ति - संदेश ' के उस अंक के मुखपृष्ठ पर छपे उस पद्य में प्रूफ - संशोधक की असावधानी से ' रु ' ही छप गये थे । संपादकजी द्वारा पूरा पद्य पढ़े जाने पर गुरुदेव ने इस गलती की और उनका ध्यान दिलाया और कहा कि पत्रिका शुद्ध - शुद्ध छपनी चाहिए । गुरुदेव की सूक्ष्म त्रुटि की ऐसी पकड़ देखकर मैं चकित रह गया । एक बार उन्होंने मुझसे कहा था- " मैंने व्याकरण शास्त्र नहीं पढ़ा है , फिर भी मेरे मन में व्याकरण की बात अपने - आप आ जाती है । '

सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज
सद्गुरु महर्षि मेंहीं

     हमारे गुरुदेव पढ़े - लिखे संत थे । उन्होंने एन्ट्रेन्स तक की शिक्षा पायी थी । सत्संग , स्वाध्याय और साधनाभ्यासजन्य अनुभूति के द्वारा उन्होंने अपना ज्ञानकोष पर्याप्त समृद्ध कर लिया था । वे बोलते - लिखते समय भी भाषा की शुद्धियों पर ध्यान दिया करते थे । 

     यद्यपि गुरुदेव ने छंदःशास्त्र का अध्ययन - अवलोकन नहीं किया था , तथापि उनके पद्यों में छंदःशास्त्र के नियमों का अच्छी तरह पालन दीखता है । छंदःशास्त्र से अनभिज्ञ व्यक्ति भी यदि तर्ज का पूरा - का - पूरा ख्याल रखते हुए पद्य - रचना करे , तो उसके भी पद्य में नियमबद्धता अपने - आप आ जाती है । संतों में प्राय : संत कम पढ़े - लिखे थे । कुछ तो सर्वथा निरक्षर थे । वे भावावेग में जो पद्य बनाया करते थे , उन्हें निकट रहनेवाले शिष्य आदि लिपिबद्ध कर लिया करते थे , जैसा कि संत कबीर साहब के भी विषय में बताया जाता है । संतों ने दूसरों के ही तर्ज को पकड़कर प्रायः पदों की रचना की है । ऐसी हालत में कहीं - कहीं उनके पद्यों में नियमों के उल्लंघन का पाया जाना स्वाभाविक ही है संत सुन्दरदासजी ( छोटे ) ने नियमों का पालन करते हुए पद्य - रचना की है । कहते हैं , गो ० तुलसीदासजी महाराज के ' रामचरितमानस ' में कहीं - कहीं जो छंदोभंग दिखाई पड़ता है , वह सकारण है - उसके द्वारा कोई विशेष भाव प्रकट किया गया है । ' महर्षि मँहीँ पदावली में कुछ ऐसे भी छंद मिले , जिनके लक्षण मुझे उपलब्ध छंदःशास्त्रों में नहीं मिल पाये । इससे मेरा अनुमान होता है कि गुरुदेव के द्वारा कुछ नये छंदों का भी आविर्भाव हुआ है, सभी पद्य उनके द्वारा तर्जों की नकल पर नहीं बनाये गये हैं । 

     हृदय में उमड़नेवाले भावों को किसी के समक्ष किसी भी रूप में अभिव्यक्त कर देने से व्यक्ति को संतुष्टि मिलती है । अच्छे विचार मन में सदा नहीं आते रहते । इसीलिए कुछ लोग अच्छे विचारों को नोट कर लिया करते हैं , ताकि वे विचार भविष्य में उनका पथ - प्रदर्शन कर सकें । कुछ लोग अपने विचारों को इसलिए लिख रखते हैं कि उनसे समाज के लोगों को लाभ होगा । गुरुदेव की पद्य - रचना का उद्देश्य न तो यशःप्राप्ति था । और न अर्थोपार्जन । उन्होंने स्वान्तः सुखाय और जनहिताय ही काव्य - रचना की । उन्होंने कोई भी पद्य खींचतान करके या बौद्धिक व्यायाम करके नहीं बनाया । जब उन्हें सहज रूप से भावों की स्फुरणा हुई , तभी पद्य बनाया ; भावों के उमड़े बिना जब - तब उन्होंने पद्य बनाने का प्रयास नहीं किया । यही कारण है कि उनके पद्यों की संख्या पर्याप्त नहीं है ।

सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज

     एक शोध - ग्रंथ में विद्वान् शोधार्थी ने लिखा है कि ' महर्षि मँहीँ पदावली ' में संकलित पद्य संत कवि मँहीँ द्वारा सन् १९२५ ई ० और १९५० ई ० के मध्य लिखे गये हैं । परंतु पदावली के कुछ पद्य बतलाते हैं कि कुछ पद्य १९१९ ई० के पूर्व भी लिखे गये हैं । बाबा देवी साहब सद्गुरु महर्षि मँहीँ परमहंसजी महाराज के सद्गुरु थे । उन्होंने १९ जनवरी , सन् १९१९ ई० को अपना पार्थिव शरीर छोड़ा था । पदावली का ५६ वाँ , १०९वाँ , ११३ वाँ और १२१ वाँ पद्य बाबा देवी साहब के जीवनकाल में ही लिखे गये प्रतीत होते हैं , क्योंकि इन पद्यों में उनके जीवित रहने का उल्लेख किया गया है । इन पद्यों की पंक्तियाँ देखें--

जाहिर जहूर सतगुरु देवि साहब , भेद बतावयँ खासा । ' मँहीँ ' कहत सुनो जो शरण गहैं , लहैं निज घट के विलासा ॥ ( ५६ वाँ पद्य ) 

जागृत जिन्दा सतगुरु जग में , सब जिनको कर जोड़ा रे । बाबा सतगुरु देवी साहब , जा पद को ' में ही चेरा रे ॥ ( १०९वाँ पद्य ) 

परगट सतगुरु जग में विराजैं , मेटयँ जिवन दुख दाह । बाबा देवी साहब जग में कहावयँ , ' मँहीँ ' पर मेहर निगाह ॥ ( ११३ वाँ पद्य ) 

जौं नहिं समझहु सतगुरु पद गहु , परगट सतगुरु आहिं । बाबा देवी साहब परगट सतगुरु , ' मँहीँ जा पद बलि जाहिं ॥ ( १२१ वाँ पद्य ) 

     गुरुदेव सन् १९०९ ई ० में बाबा देवी साहब की साधना पद्धति से अवगत हुए और इसी ईस्वी सन् में वे बाबा देवी साहब के संपर्क में भी आए । इसलिए पदावली के जिन पद्यों में बाबा देवी साहब की चर्चा है , वे पद्य अवश्य ही १९०९ ई० के बाद ही लिखे गये हैं - ऐसा निस्संदेह कहा जा सकता है । सन् १९०९ ई ० के पूर्व गुरुदेव को कोई ऐसे गुरु नहीं मिल पाये , जिनसे इनके हृदय को संतुष्टि मिले और जो इनकी जिज्ञासाओं का समाधान कर सकें । सच्चे गुरु या सच्चे साधु - महात्माओं की खोज में इन्हें भारत के विभिन्न स्थानों में भटकना पड़ा था । 

     मेरा अनुमान है कि गुरुदेव द्वारा सबसे पहले जो पद्य रचा गया , वह बाबा देवी साहब से संबंधित होगा ; जैसे १०१ वाँ पद्य ( खोजत खोजत सतगुरु भेटि गेला , शहर मुरादाबाद ) , १०२ रा पद्य ( संतन मत भेद प्रचार किया , गुरु साहब बाबा देवी ने । ) , ११३ वाँ पद्य ( आगे माई सतगुरु खोज करहु सब मिलिके , जनम सुफल कर राह । ) , ११२ वाँ पद्य ( करिये भाई सतगुरु गुरु पद सेवा ) , ६८ वाँ पद्य ( यहि विधि जैबै भव पार , मोर गुरु भेद दिये । ) , ५६ वाँ पद्य ( घट बिच अजब तमाशा ) , १०९वाँ पद्य ( सतगुरु सेवत गुरु को सेवत , मिटत सकल दुख झेला रे । ) , १२१ वाँ पद्य ( जनि लिपटो रे प्यारे जग परदेसवा , सुख कछु इहवाँ नाहिं । ) , ११९वाँ पद्य ( घटवा घोर रे अंधारी , स्रुति आँधरी भई । ) या १०५ वाँ पद्य ( सतगुरु चरण टहल नित करिये , नरतन के फल एहि है । ) ही गुरुदेव का प्रथम पद्य होगा । दूसरे अनुमान के अनुसार , गुरुदेव का प्रथम पद्य गुरु महिमा से संबंध रखता होगा । 

     पदावली के पढ़ने पर पता लगता है कि गुरुदेव के अंतिम पद्य हैं -४७ वाँ पद्म ( सुनिये सकल जगत के वासी । यह जग नश्वर सकल विनासी ।। ) और १२३ वाँ पद्य ( समय गया फिरता नहीं , झटहिं करो निज काम । ) । चौपाई छंद में आबद्ध ४७ वाँ पद्य बहुत लम्बा है , जबकि दोहा छंद में बद्ध १२३ वाँ पद्य छोटा । सन् १९३९ ई० में प्रथम बार प्रकाशित ' सत्संग - योग ' के चौथे भाग में १२३ वाँ पद्य ४७ वें पद्य के बिल्कुल नीचे रखा गया है और दोनों में अलग - अलग क्रम संख्या नहीं दी गयी है । पदावली में दोनों पद्यों को संपादक ने अलग - अलग दूर रखकर अलग - अलग क्रम संख्या दी है । १२३ वें पद्य के अंत में गुरुदेव ने कहा है कि संतों का जो सूक्ष्म भेद है , उसे मैंने पद्यों में गाकर सुना दिया । अब मैं चुप्पी साधता हूँ अर्थात् अब मैं पद्य बनाना बंद करता हूँ । ४७ वें और १२३ वें पद्य में गुरुदेव ने संसार के समस्त लोगों को संबोधित करके अपना सारा अनुभूत ज्ञान सुना दिया है । ऐसा करके वे बहुत संतुष्ट हुए - से लगते हैं कि कभी लोग यह नहीं कह सकेंगे कि मैंने अपना सारभूत ज्ञान समाज को नहीं दिया । संसार में सुख - शान्तिपूर्वक जीने के लिए या परम मोक्ष पाने के लिए एक साधक को जो आवश्यक शिक्षा , उपदेश या ज्ञान चाहिए , वह सब - का - सब ४७ वें और १२३ वें पद्य में वर्णित कर दिया गया है । 

पदावली' की छंद-योजना के लेखक पूज्य बाबा श्री लालदास जी महाराज
लेखक बाबा लालदास

     पूज्यपाद श्रीसंतसेवीजी महाराज का कथन है कि गुरुदेव - रचित अंतिम पद्म पदावली का ४० वाँ पद्य है , जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं- " नैन सों नैनहिं देखिय जैसे । त्वचहिं त्वचा सुख पाइय जैसे ।। " उन्होंने यह भी कहा कि पदावली का ९वाँ पद्य ( प्रेम भक्ति गुरु दीजिए , विनवौं कर जोड़ी । ) बाबा देवी साहब के ही जीवनकाल में लिखा गया था और उन्हीं के आदेश से सत्संग में गुरु - विनती के रूप में इसका पाठ किया जाता है । प्रसंग का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि बाबा देवी साहब ने अपने कुछ शिष्यों से कहा कि तुमलोग अच्छी सी गुरु - विनती की रचना करो , जिसकी सबसे अच्छी होगी , उसका प्रतिदिन सत्संग में पाठ किया जाएगा । शिष्यों ने गुरु - विनती के पद्य बनाकर उन्हें दिखाये । गुरु विनंती के उन पद्यों में बाबा देवी साहब को गुरुदेव - रचित पद्य ही भा गया और उसी का पाठ सत्संग में करने का आदेश उन्होंने दे दिया । इस पद्य में पहले एक पंक्ति थी - ' सब प्यारा परिवार अरु , पुत्र नहीं भावै । ' एक समय एक संतमत सत्संगी का जवान पुत्र मर गया । बेचारे सत्संगी पुत्र वियोग से शोकित होकर लोगों से कहने लगे कि गुरु - विनती में रोज गाया करता था - ' सब प्यारा परिवार अरु , पुत्र नहीं भावै । ' इसीलिए मेरा जवान पुत्र मर गया । गुरुदेव को जब इस बात की जानकारी हुई , तब उन्होंने पद्म में ' पुत्र नहीं भावे की जगह संपति नहिं भावै ' पंक्ति रखी । आज भी कुछ धनी गृहस्थ भक्तों को यह पंक्ति नहीं भाती । क्रमशः


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     प्रभु प्रेमियों ! इस लेख में छंद में मात्रा लगाने के नियम, छंद के उदाहरण, छंदबद्ध कविता लिखने के आसान तरीका, छंद की रचना कैसे की जाती है? छंद में मात्रा लगाने के नियम, सहज पद्य रचना, इत्यादि बातों को  जाना. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार  का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है. जय गुरु महाराज.



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