शिक्षाप्रद कथाएँ / कथा नंबर 80
८०. रविदास का चरणामृत
बनाने का काम करते रहे और उसी से अपना ही जिनक चलाते रहे।
किसी सुअवसर पर काशी में गंगा तट पर मेला लगा हुआ था । लोग गंगा स्नान के लिए आ - जा रहे थे । ये गंगा के किनारे जूता गाँठ रहे थे । एक पण्डितजी इनके सम्मुख उपस्थित हुए और बोले कि रैदास ! आज भी तो गंगा स्नान कर आओ ।
रैदासजी महाराज ने कहा – ' पण्डितजी ! मैं तो नहीं जा पाऊँगा ; लेकिन आप मेरी तरफ से गंगा माई को एक सुपारी भेंट कर देंगे । ' ऐसा कहते हुए उन्होंने एक सुपारी दी ।
पण्डितजी स्नान के बाद जब गंगा में सुपारी चढ़ाने लगे , तो गंगा के अन्दर से एक हाथ निकला , जिसमें हीरे - जवाहिरात जड़ा हुआ सोने का एक कंगन था । पण्डितजी ने वह कंगन ले लिया और रैदासजी महाराज को नहीं देकर अपनी पण्डिताइन को ले जाकर दे दिया ।
उसे पाकर पण्डिताइन बहुत खुश हुईं ; लेकिन सोचने लगीं कि शरीर पर तो सुन्दर वस्त्रों का अभाव है , कंगन क्या पहनूँगी ! वे कंगन रानी को दे आयीं । रानी ने जब कंगन को देखा , तो आश्चर्य से भर गयीं और उदास मुँह किये राजा के समक्ष गयीं । राजा ने उदासी का कारण पूछा , तो वे बोलीं कि इस कंगन का जोड़ा लगवा दीजिए ।
राजा ने पूरे राज्य में ढिंढोरा पिटवाया । स्वर्णाभूषण बनानेवाले बहुत - से कलाकार उपस्थित हुए । कंगन दिखाते हुए उसका जोड़ा लगाने के लिए सबसे कहा । उनलोगों ने एक स्वर से कहा कि महाराज ! निश्चित रूप से इस कंगन की कोई मिसाल नहीं है , इसका जोड़ा लगाने में हमलोग बिल्कुल असमर्थ हैं ।
तब राजा ने पता लगाया कि आखिर यह कंगन प्राप्त कैसे हुआ ? उन्हें मालूम हुआ कि कंगन रैदासजी की कृपा से प्राप्त हुआ है । राजा घोड़े पर सवार हो रैदासजी महाराज के पास गये । राजा को देखते ही रैदासजी महाराज ने उनका उचित सत्कार किया और बैठने के लिए एक चमड़े का टुकड़ा बिछा दिया , फिर चमड़े का दो बूँद पानी देते हुए कहा कि महाराज ! भगवान् का चरणामृत लीजिए ।
राजा ने सोचा कि चमड़े का पानी ! यह कैसा चरणामृत है ! उन्होंने रैदासजी महाराज की नजर बचाते हुए उसे धोती में पोंछ लिया ।
रैदासजी महाराज ने राजा से पूछा कि ' महाराज ! आपकी कौन - सी सेवा की जाय ? ' राजा ने उन्हें कंगन दिखाते हुए उसका जोड़ा लगाने का निवेदन किया । उन्होंने ' मन चंगा , तो कठौती में गंगा ' कहकर चमड़ा फुलानेवाले बर्तन में से उसी तरह का एक कंगन निकालकर राजा को दिखाया और पूछा कि महाराज ! देख लीजिए , जोड़ा लगा कि नहीं ?
राजा ने स्वीकृति में सिर हिलाया और वापस राजमहल चले गये । उन्होंने कंगन रानी को दिया । जिस धोती में उन्होंने चरणामृत पोंछ लिया था , उसमें दाग लग गया था । स्नान के बाद राजा ने वह धोती एक दासी को साफ करने के लिए दे दी और स्वयं पूजा करने के लिए पूजा - गृह में चले गये ।
इधर दासी जैसे - जैसे धोती का दाग छुड़ाने की कोशिश करती गई , वैसे - वैसे दाग भी गहरा होता चला गया । अन्त में थक गई और दाग को दाँत से छुड़ाने का प्रयास करने लगी । दाँत लगाते ही दासी को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई । अब वह भूत , भविष्य और वर्त्तमान - तीनों का हाल जानने लग गई ।
वह राजा को खोजती हुई रानी के निकट गयी । रानी ने बताया कि राजा साहब पूजा - गृह में पूजा कर रहे हैं । दासी ने कहा कि राजा साहब पूजा नहीं कर रहे हैं , बल्कि शहर - भर की कुलटाओं के संबंध में चिंतन कर रहे हैं ।
रानी क्रोधित हो गयीं और राजा के कमरे के निकट जाकर किवाड़ में धक्के देने लगीं । राजा कहा कि यह क्या मामला है ? पूजा - पाठ के समय भी जरा - सा चैन से नहीं रहने देती !
रानी ने कहा- ' आप पूजा कर रहे हैं या शहर की कुलटाओं का हिसाब लगा रहे हैं ? ' सुनते ही राजा के होश उड़ गये और कि तुम्हें यह बात किसने कही ? रानी ने जवाब दिया कि धोती के दाग छुड़ाने के लिए जबसे दासी ने दाँत लगाये हैं , तबसे उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी है और वह सब बातें जानने लग गई है ।
राजा ने पश्चात्ताप करते हुए कहा- ' ऐसा था वह चरणामृत ! " उसे प्राप्त करने के लिए इस बार वे भक्ति - भाव से पैदल ही रैदासजी महाराज के पास गए । उन्होंने भी राजा को आते देख बैठने के लिए एक चारपाई पर चादर बिछा दी और आने का कारण पूछा । –
राजा ने कहा– ' महाराज ! मुझसे बड़ी भूल हो गई । ' रैदासजी बोले - ' वह क्या ? ' राजा ने बताया , ' उस दिन आपने जो चरणामृत दिया था , उसका पान नहीं करके मैंने उसे कपड़े में पोंछ लिया था । कृपा करके दो बूँद फिर दे दें महाराज ! '
रैदासजी बोले- ' राजा ! वह चरणामृत अब मिलनेवाला नहीं है । वह सुयोग तूने खो दिया है । वह अवसर अब आनेवाला नहीं ।
राजा रैदासजी महाराज से इतने प्रभावित हुए कि राज - पाट छोड़कर रैदासजी महाराज । उन्होंने इनकी शिष्यता ग्रहण कर ली और आजीवन साथ रहे । ऐसे थे सन्त रैदासजी महाराज।∆
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