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LS01 व्याख्या 14च || संतमत की परिभाषा के गद्य और पद्य का मिलान || संतमत का महामंत्र कौन-सा शब्द है

सद्गुरु की सार शिक्षा || व्याख्या भाग 14च

      प्रभु प्रेमियों  ! 'श्रीसद्गुरु की सार शिक्षा' पुस्तक के व्याख्या - भाग 14च  में 'यह सार है सिद्धान्त सबका , सत्य गुरु को सेवना । ' मँहीँ ' न हो कुछ यहि बिना , गुरु सेव करनी चाहिये ॥१४' इस हरिगीतिका छंद का व्याख्या किया गया है.  इसमें बताया गया है कि  संतमत का महामंत्र कौन-सा शब्द है? संतमत का सिद्धांत किस छंद में लिखा गया है? हरिगीतिका छंद की क्या विशेषता है? संतमत की परिभाषा गद्य और पद्य में है इसकी पूरी जानकारी  कैसे हुई है? संतमत की परिभाषा के गद्य और पद्य का मिलान, इत्यादि  बातें।


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सद्गुरु महर्षि मेंहीं और व्याख्याता
सद्गुरु महर्षि मेंहीं और ब्याख्याता

संतमत की परिभाषा के गद्य और पद्य का मिलान || संतमत का महामंत्र कौन-सा शब्द है


LS01 व्याख्या 14च

शेषांश-

सद्गुरु महर्षि मेंहीं
महर्षि मेंहीं

     गुरुदेव का नाम होने से यह ' मेँहीँ ' शब्द महापवित्र है । यह महामंत्र और महावाक्य है । कोई पवित्र हृदयवाला व्यक्ति ही इसकी पवित्रता और अर्थवत्ता का सतही तौर पर बोध कर सकता है ।वित्रता और अर्थवत्ता का सतही तौर पर बोध कर सकता है ।

    ' श्रीसद्गुरु की सार शिक्षा याद रखनी चाहिए । ' पहली पंक्तिवाला यह पद्य हरिगीतिका छन्द में लिखा गया है । हरिगीतिका छन्द के प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं , १६-१२ या १४-१४ पर यति और अन्त में लघु - गुरु वर्ण ( 15 ) । इसी शैली में ; परन्तु गीतिका छन्द में गुरुदेव के गुरु - भाई परमहंस ध्यानानंद साहब ने भी एक पद्य लिखा है , जिसकी प्रारंभिक दो पंक्तियाँ नीचे लिखी जाती हैं--

 तुझको झीना राह से , हरगिज न डरना चाहिए । 
आत्म - अनुभव के लिए , कष्टों को सहना चाहिए ।  ( सत्संग - योग , दूसरा भाग ) 

     गुरुदेव ने गद्य में जो संतमत - सिद्धांत लिखे हैं , वे पद्य में लिखे गये संतमत - सिद्धांतों से पूरी तरह मेल खा जाते हैं । मिलान करके देखा जा सकता है--

 १. जो परम तत्त्व आदि - अन्त - रहित , असीम , अजन्मा , अगोचर , सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है , उसे ही सर्वेश्वर - सर्वाधार मानना चाहिये ।

 ( शेष अंश पीछे जोड़ा गया है , जो ' सत्संग - योग ' के चौथे भाग का ग्यारहवाँ पाराग्राफ है ।)

अव्यक्त व्यापक व्याप्य पर जो , राजते सबके परे । 
उस अज अनादि अनन्त प्रभु में , प्रेम करना चाहिये ।

 ( अनादि - आदि - रहित , आदि - अन्त - रहित । अनन्त - असीम। अज = अजन्मा । अव्यक्त - अगोचर । व्यापक व्याप्य पर = सर्वव्याप्यकता के परे । ) 

 २. जीवात्मा सर्वेश्वर का अभिन्न अंश है । 

बाबा लालदास जी महाराज
व्याख्याता
जीवात्म प्रभु का अंश है , जस अंश नम को देखिये । घटमठ प्रपंचन्ह जब मिटैं, नहि अंश कहना चाहिये । 

३. प्रकृति आदि अन्त सहित हैं और सृजित है ।  

ये प्रकृति द्वय उत्पत्ति लय , होवै प्रभु की मौज से। ये अजा अनाद्या स्वयं हैं, हरगिज़ न कहना चाहिए।

४. मायाबद्ध जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है । इस प्रकार रहना जीव के सब दुःखों का कारण है । इससे छुटकारा पाने के लिए सर्वेश्वर की भक्ति ही एकमात्र उपाय है । 

आवागमन सम दुःख दूजा , है नहीं जग में कोई । 
इसके निवारण के लिए प्रभु भक्ति करनी चाहिये । 

५. मानस जप , मानस ध्यान, दृष्टि- साधन और सुरत - शब्द - योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अन्धकार , प्रकाश और शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने का मनुष्य मात्र अधिकारी है । 

जितने मनुष तनधारि हैं , प्रभु भक्ति कर सकते सभी । 
अन्तर व बाहर भक्ति कर , घट - पट हटाना चाहिये ।।
 गुरु - जाप मानस ध्यान मानस , कीजिये दुद्द साधकर | 
इनका प्रथम अभ्यास कर, खुत शुद्ध करना चाहिये । 
घट तम प्रकाश व शब्द पट प्रय , जीव पर हैं छा रहे । 
कर दृष्टि अरु ध्वनि योग साधन , ये हटाना चाहिए।।
इनके हटे माया हटेगी , प्रभु से होगी एकता।
फिर द्वैतता नहि कुछ रहेगी , अस मनन दृढ़ चाहिए। । 

 ६. झूठ बोलना , नशा खाना , व्यभिचार करना , हिंसा करनी अर्थात जीवों को दुःख देना वा मत्स्य - मांस को खाद्य पदार्थ समझाना और चोरी करनी इन पाँचो महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिये । 

व्यभिचार, चोरी नशा हिंसा , झूठ तजना चाहिये ॥ 

( हिंसा के अंतर्गत ' जीवों को दुःख देना वा मत्स्य - मांस को खाद्य पदार्थ समझना ' आ जाता है । )


 ७. एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास , पूर्ण भरोसा तथा अपने अन्तर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना , सद्गुरु की निष्कपट सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास ; इन पाँचो को मोक्ष का कारण समझाना सेवा , चाहिये । 

पाखण्ड अरुऽहंकार तजि , निष्कपट हो अरु दीन हो । 
सब कुछ समर्पण कर गुरू की , सेव करनी चाहिये । 

( इन दो पंक्तियों के अंतर्गत ' सद्गुरु की निष्कपट सेवा और एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास , पूर्ण भरोसा ' आ जाता है । सब कुछ समर्पित करके गुरु की सेवा वही कर सकेगा , जिसे सर्वेश्वर पर अचल विश्वास और पूर्ण भरोसा होगा । ) 

सत्संग नित अरु ध्यान नित , रहिये करत संलग्न हो । 

( इस पंक्ति के अंदर सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास आ जाता है । )

अन्तर व बाहर भक्ति कर , घट - पट हटाना चाहिये ।

 [ इस पंक्ति में बाहरी भक्ति ( संत - संग - सत्संग ) के साथ - साथ आन्तरिक भक्ति भी करके घट - घट हटाने के लिए कहा गया है । परमात्मा की प्राप्ति के लिए शरीर के अंदर चलना आन्तरिक भक्ति है । इसमें ' अपने अंदर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना ' आ जाता है । ] 

     ऐसा लगता है कि गुरुदेव ने संतमत - सिद्धांतों को पहले गद्य में लिखा होगा , फिर उतने के उतने को पद्म में बाँध दिया होगा । जय गुरु । 

॥ ' सद्गुरु की सार शिक्षा ' समाप्त | 


इस पोस्ट के बाद बाले पोस्ट में "प्रेम-भक्ति गुरु दीजिये..." का 

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     प्रभु प्रेमियों ! 'सदगुरु की सार शिक्षा' पुस्तक की इस व्याख्या में   संतमत का महामंत्र कौन-सा शब्द है? संतमत का सिद्धांत किस छंद में लिखा गया है? हरिगीतिका छंद की क्या विशेषता है? संतमत की परिभाषा गद्य और पद्य में है इसकी पूरी जानकारी कैसे हुई है? संतमत की परिभाषा के गद्य और पद्य का मिलान इत्यादि बातों के बारे में जानकारी प्राप्त की. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है.जय गुरु महाराज.


सद्गुरु की सार शिक्षा 

 
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LS01 व्याख्या 14च || संतमत की परिभाषा के गद्य और पद्य का मिलान || संतमत का महामंत्र कौन-सा शब्द है LS01 व्याख्या 14च || संतमत की परिभाषा के गद्य और पद्य का मिलान || संतमत का महामंत्र कौन-सा शब्द है Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/20/2022 Rating: 5

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