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MS03 वेद-दर्शन-योग 5 || ऋग्वेद संहिता के इस मंत्र में दृष्टियोग और ब्रह्मप्रकाश का वर्णन किया गया है

वेद-दर्शन-योग / ऋग्वेद संहिता / मंत्र 5

     प्रभु प्रेमियों  ! वेद-दर्शन-योग-यह सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज की अनमोल कृति है। इसमें चारो वेदों से चुने हुए एक सौ मंत्रों पर टिप्पणीयां लिखकर संतवाणी से उनका मिलान किया गया है। आबाल ब्रह्मचारी बाबा ने प्रव्रजित होकर लगातार ५२ वर्षों से सन्त साधना के माध्यम से जिस सत्य की अपरोक्षानुभूति की है , उसी का प्रतिपादन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है 

     ऋग्वेद के निम्नलिखित मंत्र में अंतर ज्योति और ब्रह्मप्रकाश को  प्राप्त करने का उपदेश है।

इस मंत्र से पहले वाले वेदमंत्र को पढ़ने के लिए    👉 यहां दवाई

संतमत और वेदमत एक है
संतमत और वेदमत

दृष्टियोग और ब्रह्मप्रकाश का वर्णन

     ( ५ ) वि वातजूतो अतसेषु तिष्ठते वृथा जुहूभिः सृण्या तुविष्वणिः । तृषु यदग्ने वनिनो वृषायसे कृष्णंत एम रुशदूर्मे अजर ॥ ४ ॥ अ ० ४ व ० २३ । ४ अ ०११ सू ० ५८ अष्टक १ मंडल १ खंड १ पृष्ठ २ ९ ७ 

शंकर भाष्य - वायु के वेग से तीव्र होकर अग्नि जिस प्रकार तृणों और काष्ठों में विविध रूप से फैलती है , उसी प्रकार यह आत्मा भी प्राणों द्वारा वेगवान , गतिमान , पृथ्वी , वायु , जल आदि तत्त्वों में भी विविध देहों को धारण कर विविध रूपों में स्थित है और प्रकार ज्वालाओं द्वारा और अपने वेग से गमन करने की शक्ति से अग्नि चटचटा आदि बहुत प्रकार के शब्द करती है , अथवा अग्नि जिस प्रकार अपने भीतर आग्नेय तत्त्वों को रखनेवाले मैनसिल , पोटास आदि पदार्थों और फूटकर वेग से निकलनेवाली बारूद आदि की शक्ति से बड़ा भारी धड़ाके का शब्द करती है , उसी प्रकार वह अपने भीतर आत्मा को धारण करनेवाले प्राणों और स्वयं सरण करनेवाली वाणी द्वारा अनायास ही बहुत - से स्वप्न अर्थात् वर्ण ध्वनियों को उत्पन्न करता है । 

 टिप्पणी – इस मंत्र में और छान्दोग्य उपनिषद् अध्याय ३ , खण्ड १३ के लोक ७-८ में सदृशता जान पड़ती है । 

अथ यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते विश्वतः पृष्ठेषु सर्वतः पृष्ठेष्वनुत्तमेषूत्तमेषु लोकेष्विदं वाव तद्यदिदमस्मिन्नन्तः पुरुषे ज्योतिस्त स्यैषा दृष्टिः ॥७ ॥ यत्रै तदस्मिञ्छरीरे स् स्पर्शेनोष्णिमानं विजानाति तस्यैषा श्रुतिर्यत्रैतत्कर्णावपिगृह्य निनदमिव नदथुरिवाग्नेरिव ज्वलत उपशृणोति तदेतदृष्टं च श्रुतं चेत्युपासीत चक्षुष्यः श्रुतो भवति य एवं वेद य एवं वेद ॥ ८ ॥ 

अर्थ - जो कि इससे परे स्वर्ग अथवा आकाश में ज्योति चमकती है , एवं विश्व की पीठ पर , सबकी पीठ पर तथा उत्तम और अनुत्तम सब लोकों में चमकती है , यह वही है जो अन्तःपुरुष में ज्योति है , उसी की यह दृष्टि है ॥ ७ ॥ जो कि इस शरीर में छूने से गर्मी का ज्ञान करते हैं , उसी की यह श्रुति है , जो कि यह कानों को बन्द करके ध्वनि के समान और जलती हुई आग के गर्जन के समान सुनते हैं , तो इस तरह उसे देखा भी और सुना भी । अतः चक्षुष्य और श्रुत दोनों से उसकी उपासना करनी चाहिए , जो इसे जानता है ॥ ८ ॥

     छान्दोग्योपनिषद् में कथित परमात्मा की , चक्षुष्य और श्रुत उपासना की विधि , दृष्टियोग और शब्दयोग की विधि है ; ऐसा ज्ञात होता है.∆


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     प्रभु प्रेमियों ! इस लेख में ब्रह्म ज्योति, अन्तर्ज्योति, ब्रह्मप्रकाश आदि की बातों को जाना. आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार  का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है. जय गुरु महाराज.


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MS03 वेद-दर्शन-योग 5 || ऋग्वेद संहिता के इस मंत्र में दृष्टियोग और ब्रह्मप्रकाश का वर्णन किया गया है MS03 वेद-दर्शन-योग 5 || ऋग्वेद संहिता के इस मंत्र में दृष्टियोग और ब्रह्मप्रकाश का वर्णन किया गया है Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/24/2022 Rating: 5

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