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MS03 वेद-दर्शन-योग 4क || मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् के इस मंत्र में दृष्टियोगऔर ब्रह्मप्रकाश का वर्णन

वेद-दर्शन-योग / ऋग्वेद संहिता / मंत्र 4क

     प्रभु प्रेमियों  ! वेद-दर्शन-योग-यह सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंसजी महाराज की अनमोल कृति है। इसमें चारो वेदों से चुने हुए एक सौ मंत्रों पर टिप्पणीयां लिखकर संतवाणी से उनका मिलान किया गया है। आबाल ब्रह्मचारी बाबा ने प्रव्रजित होकर लगातार ५२ वर्षों से सन्त साधना के माध्यम से जिस सत्य की अपरोक्षानुभूति की है , उसी का प्रतिपादन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है 

     ऋग्वेद के निम्नलिखित मंत्र में पहुंचे हुए संतो के द्वारा प्रतिपादित अंतर ज्योति और अंतर्नाद की चर्चा की गई है . जिसे संतलोग ब्रह्म ज्योति,  अन्तर्ज्योति, ब्रह्मप्रकाश,  आदिनाद, रामनाम, सतनाम, वाहेगुरु, आदिशब्द  इत्यादि नामों से जानते-मानते और प्रचार करते हैं.

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संतमत और वेदमत एक है
संतमत और वेदमत


मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् 

( शुक्ल यजुर्वेद का ) 

ब्राह्मणं २ 

मूल - तन्मध्ये जगल्लीनम् । तन्नादविन्दुकलातीतमखण्डमण्डलम् । तत्सगुणनिर्गुणस्वरूपम् । तद्वेत्ता विमुक्तः । आदावग्निमंडलम् । तदुपरि सूर्यमण्डलम् । तन्मध्ये सुधाचन्द्रमण्डलम् । तन्मध्ये ऽखण्ड ब्रहातेजोमण्डलम् । तद्विद्युल्लेखावलभास्वरम् । तदेव शाम्भवीलक्षणम् । तदर्शने तिस्त्रो मूर्तयः अमा प्रतिपत्पूर्णिमा चेति । निमीलितदर्शन ममादृष्टि : अर्थान्मीलितं प्रतिपत् । सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति । तल्लक्ष्य 12 t तदभ्यासान्मनः स्थैर्यम् । ततो वायुस्थैर्यम् । तच्चिह्नानि । आदौ तारकवद् दृश्यते । ततो वजदर्पणम् । तत उपरि पूर्णचन्द्रमण्डलम् ततो नवरत्नप्रभामण्डलम् । ततो मध्याह्नार्क मण्डलम् । ततो वह्निशिखामण्डलं क्रमादृश्यते । तदा पश्चिमाभिमुखप्रकाशः स्फटिक धूम्रविन्दुनादकलानक्षत्रखद्योतदीपनेत्रसुवर्णनवरत्नादिप्रभा दृश्यन्ते । तदेव प्रणवस्वरूपम् । 

     अर्थ - उस ( ब्रह्म ) के अंदर संसार लीन ( डूबा हुआ ) है । ( ब्रह्म ) नाद , विन्दु और कला के परे , सगुण , निर्गुण तथा अखण्ड मण्डल स्वरूप है , इसका जाननेवाला विमुक्त होता है । पहले अग्निमण्डल है , इसके ऊपर सूर्यमण्डल है , उसके बीच में सुधामय चन्द्रमण्डल है और उसके मध्य में अखण्ड ब्रह्मतेजमण्डल है । वह शुक्ल बिजली की धार के समान चमकीला है । केवल यही शाम्भवी का लक्षण है । उसके देखने के लिये तीन दृष्टियाँ होती हैं – अमावस्या , प्रतिपदा और पूर्णिमा । आँख बन्द कर देखना अमादृष्टि है , आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है । उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिये । उसके अभ्यास से मन की स्थिरता आती है । इससे वायु आरम्भ में तारा - सा दीखता है । स्थिर होता है । उसके ये चिह्न हैं . - तब हीरा के ऐना की तरह दीखता है । उसके बाद पूर्ण चन्द्रमण्डल दिखलाई देता है । उसके बाद नौ रत्नों का प्रभामण्डल दिखाई देता है । उसके बाद दोपहर का सूर्यमण्डल दिखाई देता है । उसके बाद अग्नि शिखामण्डल दिखाई देता है । ये सब क्रम से दिखाई देते हैं , तब पश्चिम की ओर प्रकाश दिखाई देता है । स्फटिक , धूम्र ( धुआँ ) , विन्दु , नाद , कला , तारा , जुगनू , दीपक , नेत्र , सोना और नवरत्न आदि की प्रभा दिखाई देती है । केवल यही प्रणव का स्वरूप है । ∆


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     प्रभु प्रेमियों ! इस लेख में ब्रह्म ज्योति, अन्तर्ज्योति, ब्रह्मप्रकाश आदि की बातों को जाना.  आशा करता हूं कि आप इसके सदुपयोग से इससे समुचित लाभ उठाएंगे. इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार  का कोई शंका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस लेख के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी इससे लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले हर पोस्ट की सूचना नि:शुल्क आपके ईमेल पर मिलती रहेगी। . ऐसा विश्वास है. जय गुरु महाराज.


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MS03 वेद-दर्शन-योग 4क || मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् के इस मंत्र में दृष्टियोगऔर ब्रह्मप्रकाश का वर्णन MS03 वेद-दर्शन-योग 4क || मण्डल ब्राह्मणोपनिषद्  के इस मंत्र में दृष्टियोगऔर ब्रह्मप्रकाश का वर्णन Reviewed by सत्संग ध्यान on 7/24/2022 Rating: 5

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